छत्तीसगढ़ के आदिवासी बाहुल्य क्षेत्रों में परंपरा और धर्म परिवर्तन के बीच की लकीर अब हिंसा की खूनी इबारत लिख रही है. जहां कभी सामुदायिक एकजुटता मिसाल हुआ करती थी, आज वहां 'आम पंडुम' जैसे लोक त्योहारों और शव दफनाने की भूमि को लेकर गहरे मतभेद उभर आए हैं. बस्तर संभाग और कांकेर में यह विवाद अब केवल जमीन का टुकड़ा हासिल करने तक सीमित नहीं रहा, बल्कि यह अपनी जड़ों, पहचान और अधिकारों को बचाने की एक बेहद संवेदनशील लड़ाई बन चुका है.
इस लड़ाई को ऐसे समझिए कि मीठे आम को लेकर भी कड़वाहट भर जाती है. कई आदिवासी इलाकों में परंपरा है कि जब तक आम पंडुम का त्योहार नहीं मनाते, आम नहीं खाते. आरोप यह लगते हैं कि जिन लोगों ने ईसाई धर्म अपनाया है, वे पहले ही आम तोड़कर बाजार में बेचने लगते हैं, जब तक पंडुम आता है तब तक आम खत्म. बात सुनने में छोटी लगती है, लेकिन गांव के सामूहिक जीवन में यही छोटी-छोटी चुभनें रिश्तों में दूरी बनाती हैं और जब वही दूरी किसी की अंतिम विदाई यानी शव दफनाने तक पहुंच जाती है, तो विवाद सिर्फ जमीन का नहीं रहता, पहचान, परंपरा, शक्ति और अधिकार का बन जाता है.
अब छत्तीसगढ़ में यही तनाव एक बार फिर उभर रहा है. खासकर बस्तर संभाग और कांकेर जैसे इलाकों में शव दफनाने को लेकर आदिवासी समाज और वे परिवार जो ईसाई धर्म अपना चुके हैं, आमने-सामने हैं. कई जगहों पर विवाद ने हिंसा का रूप भी लिया है.
पहले बुनियादी तस्वीर समझिए
छत्तीसगढ़ की 2011 जनगणना के मुताबिक राज्य में 93.25 प्रतिशत हिंदू, 2.02 प्रतिशत मुस्लिम और 1.92 प्रतिशत ईसाई हैं. कुल जनसंख्या उस वक्त 2,55,45,198 दर्ज हुई थी. यह आंकड़े राज्य-स्तर पर हैं, लेकिन जमीनी हकीकत यह है कि बस्तर, जशपुर, कांकेर जैसे इलाकों में कई गांवों में ईसाई आबादी छोटे प्रतिशत में भी सघन रूप में मौजूद है. ऐसे गांवों में सामाजिक रिश्ते, पंचायत व्यवस्था और परंपरा का टकराव ज्यादा तेज दिखता है.
टकराव की असली जड़ क्या है
छत्तीसगढ़ के कई आदिवासी गांवों में अंतिम संस्कार और दफन की जगहें समुदाय-आधारित होती हैं. किस समाज का कब्रिस्तान या श्मशान कहां होगा, किस रीति से विदाई होगी, इन पर ग्राम-समुदाय की मजबूत परंपराएं हैं. जब कोई परिवार ईसाई धर्म अपनाता है, तो अंतिम संस्कार की रीति बदल जाती है: पादरी, प्रार्थना, बाइबिल, कब्र का स्वरूप. कई गांवों में यही बदलाव यह बहस खड़ी करता है कि क्या धर्म परिवर्तन के बाद भी वही व्यक्ति गांव के पारंपरिक कब्रिस्तान में दफनाया जा सकता है या नहीं.
इस बहस को कानूनी और ज्यादा जटिल बनाता है बस्तर जैसे अनुसूचित क्षेत्रों में लागू पेसा, यानी पंचायत विस्तार अधिनियम. जमीनी स्तर पर ग्राम सभा के फैसलों को कई बार परंपरा और संस्कृति की रक्षा के नाम पर ताकत मिलती है. दूसरी तरफ, परिवार यह कहता है कि अंतिम संस्कार सम्मान और गरिमा का अधिकार है, और यह नागरिक अधिकार भी है. यही वजह है कि कई मामले प्रशासन से आगे अदालतों तक पहुंचे हैं.

फोटो क्रेडिट - जुल्फेकार अली
छत्तीसगढ़ में चर्चों का नेटवर्क और इतिहास
छत्तीसगढ़ में लगभग 727 चर्च बताए जाते हैं. ग्रामीण अंचलों में छोटे छोटे प्रार्थना घरों और चर्चों को मिलाकर यह संख्या 900 के पार बताई जाती है. इसी नेटवर्क की वजह से कई इलाकों में ईसाई समुदाय की धार्मिक और सामाजिक संरचना मजबूत हुई है.
इतिहास में एक बड़ा संदर्भ विश्रामपुर का मिलता है, जिसे द सिटी ऑफ रेस्ट के नाम से भी जाना जाता है. कहा जाता है कि राज्य का सबसे पहला चर्च विश्रामपुर में 1868 के आसपास स्थापित मिशनरी गतिविधियों से जुड़ा है और इम्मानुएल चर्च का निर्माण 15 फरवरी 1873 को शुरू होकर 29 मार्च 1874 को पूरा हुआ. इस चर्च की खास बात यह बताई जाती है कि इसके परिसर से लगा हुआ कब्रिस्तान है, जहां प्रार्थना घर और कब्रों के बीच सिर्फ 10 से 12 फीट का फासला है और आज भी वहां दफन की परंपरा बनी हुई है. इसी कब्रिस्तान में मिशनरी से जुड़े फादर ऑस्कर थियोडोर लोर को भी दफनाए जाने का उल्लेख मिलता है.

फोटो क्रेडिट - जुल्फेकार अली
विश्रामपुर लगभग 2 हजार की आबादी वाला गांव बताया जाता है, जहां बड़ी संख्या में ईसाई समुदाय रहता है. इसी केंद्र से मिशनरी नेटवर्क के फैलने की बात आती है. बताया जाता है कि 1880 में जहां विश्रामपुर में ईसाई धर्म अपनाने वालों की संख्या बहुत कम थी, वहीं कुछ वर्षों में यह तेजी से बढ़ी और मिशनरी के केंद्र रायपुर, बैतलपुर और परसाभदर तक बने, साथ ही स्कूल और अन्य संस्थान भी खड़े हुए. इस इतिहास को इसलिए समझना जरूरी है क्योंकि छत्तीसगढ़ के कई हिस्सों में ईसाई समुदाय की जड़ें सेवा संस्थानों, शिक्षा और स्वास्थ्य से जुड़ी रहीं और दफन की परंपरा भी उसी सामाजिक संरचना का हिस्सा बनी.
इसी के समानांतर जशपुर के कुनकुरी में एक बड़ा रोमन कैथोलिक कैथेड्रल चर्च है, जिसे एशिया के बड़े कैथेड्रल चर्चों में गिना जाता है और 1979 में स्थापित बताया जाता है. यहां प्रार्थना और धार्मिक कार्यक्रमों के लिए कई राज्यों से लोग आते हैं. यह भी दिखाता है कि राज्य में चर्च आधारित धार्मिक ढांचा सिर्फ प्रतीकात्मक नहीं, बल्कि संगठित और सक्रिय है.
आज विवाद सबसे ज्यादा कहां और कैसे दिख रहा है
कांकेर जिले के आमाबेड़ा इलाके के बड़े तेवड़ा गांव की घटना इसका ताजा उदाहरण है. यहां सरपंच के पिता के शव को दफनाने के तरीके पर विवाद बढ़ा, मांग उठी कि शव को कब्र से बाहर निकाला जाए, तनाव बढ़ते-बढ़ते हिंसा तक पहुंचा, और धार्मिक ढांचों में तोड़फोड़ व आगजनी की खबरें सामने आईं.
ऐसी घटनाओं के बाद कई गांवों में पास्टर या पादरियों के प्रवेश पर रोक, चेतावनी वाले पोस्टर या सामाजिक बहिष्कार जैसे कदम भी देखने को मिले हैं. इस संदर्भ में अदालतों ने भी यह कहा है कि सार्वजनिक व्यवस्था और संवैधानिक प्रावधानों के अनुरूप हों तो कुछ प्रकार के कदमों को तुरंत असंवैधानिक मानना सही नहीं, हालांकि भेदभाव की सीमा पार नहीं होनी चाहिए.
सुप्रीम कोर्ट तक मामला क्यों पहुंचा
बस्तर के चिंदवाड़ा गांव से जुड़ा मामला तो राष्ट्रीय बहस का केंद्र बना, जिसमें एक परिवार अपने परिजन को गांव में दफनाना चाहता था, लेकिन ग्राम-समुदाय के विरोध के बाद मामला हाई कोर्ट और फिर सुप्रीम कोर्ट तक गया. सुप्रीम कोर्ट में दो जजों की पीठ का फैसला विभाजित रहा और अंत में दफन गांव के बजाय दूसरे चिन्हित कब्रिस्तान में हुआ. यह केस बताता है कि कानून, परंपरा और स्थानीय शक्ति-संतुलन के बीच अंतिम संस्कार जैसी मानवीय और संवेदनशील प्रक्रिया भी कितना कठोर संघर्ष बन सकती है.
क्यों “शव दफन” का मुद्दा इतना विस्फोटक बन जाता है
पहली परत पहचान की है. कई आदिवासी समुदाय मानते हैं कि परंपरा, पेन-पुरखा और सामुदायिक रीति उनके अस्तित्व का आधार है. इसलिए दफन केवल धार्मिक क्रिया नहीं, सांस्कृतिक निरंतरता का प्रतीक है.
दूसरी परत संसाधन और अधिकार की है. गांव में जमीन सीमित है, कब्रिस्तान सीमित है, और पेसा जैसे कानूनों के कारण ग्राम सभा की भूमिका बढ़ जाती है. ऐसे में हर विवाद अधिकार और नियंत्रण की लड़ाई जैसा बन जाता है.
तीसरी परत राजनीति और ध्रुवीकरण की है. ईसाई समुदाय और उनके संगठनों का आरोप है कि माहौल को उकसाया जा रहा है, वहीं कुछ राजनीतिक प्रतिनिधि इसे “स्थानीय संस्कृति और अस्मिता” का विषय बताते हैं. यह टकराव जमीन पर अक्सर सामाजिक बहिष्कार, जुर्माने, मजदूर न मिलने, सेवाओं से काटने जैसे तरीकों में दिखता है, और फिर किसी एक घटना के बाद आग की तरह फैल जाता है.
तो समाधान क्या है, और आगे खतरा कहां है
यदि प्रशासन केवल कानून-व्यवस्था तक सीमित रहेगा और गांव स्तर पर कब्रिस्तान चिन्हांकन, स्पष्ट नियम, समुदाय-वार संवाद और संवैधानिक अधिकारों की व्याख्या नहीं करेगा, तो हर अगला मामला पहले से ज्यादा तनाव पैदा करेगा. क्योंकि यह सिर्फ शव को दफनाने की जगह नहीं, गांव में साथ रहने के तरीके की बहस है और यही कारण है कि छत्तीसगढ़ में यह विवाद बार-बार लौट रहा है. कभी आम के मौसम में, कभी त्योहार में, और कभी किसी की मौत के बाद, जब गांव को तय करना होता है कि “अपना” कौन है और “अपना” आखिर कहां दफनाया जाएगा. छत्तीसगढ़ में शव दफनाने का विवाद दरअसल उस बदलते सामाजिक यथार्थ की कहानी है जहां एक तरफ आदिवासी समाज अपनी परंपरा, पुरखों और सामुदायिक व्यवस्था को बचाना चाहता है, दूसरी तरफ ईसाई धर्म अपना चुके परिवार अपने धार्मिक अधिकार और गरिमापूर्ण अंतिम विदाई की मांग कर रहे हैं. त्योहार, बाजार, आम पंडुम जैसी छोटी बातों से शुरू होने वाली कड़वाहट जब कब्रगाह तक पहुंचती है, तो गांव दो हिस्सों में बंटने लगता है. और यही वजह है कि आज खासकर बस्तर में यह मुद्दा बार बार आग की तरह भड़क रहा है.
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