ओडिशा में भारत के मुख्य न्यायाधीश सूर्यकांत ने एक मार्मिक कहानी सुनाई. उन्होंने अपनी वकालत के शुरुआती दिनों की चर्चा करते हुए कहा कि जब मैं ज़िला और उच्च न्यायालयों में वातानुकूलित चैंबरों से ज्यादा धूल भरे गलियारों में समय बिताता था. एक दोपहर मैंने एक बुजुर्ग किसान को एक अदालत के बाहर प्रतीक्षा करते देखा. उनका मामला सूची में क्रम संख्या 104 पर था. तब तक समय दोपहर 3 बजे हो चुका था.मैंने चिंता से उनसे पूछा, बाबा, आप अब भी क्यों प्रतीक्षा कर रहे हैं? आज आपका मामला शायद न सुना जाए.
'वे बुझी-सी मुस्कान के साथ बोले, बेटा, अगर मैं जल्दी घर चला गया तो सामने वाला समझेगा कि मैंने हार मान ली है.' वह क्षण दशकों से मेरे साथ बना हुआ है. उनके लिए देरी कोई डॉकेट का आंकड़ा नहीं थी, बल्कि गरिमा का एक मौन क्षण थी और खर्च कोई कानूनी व्यय नहीं था, वह एक ऐसी आर्थिक सर्दी थी, जिसे उन्हें सहना पड़ता था. भारत के मुख्य न्यायाधीश सूर्यकांत ओडिशा हाईकोर्ट बार एसोसिएशन द्वारा आयोजित संगोष्ठी 'आम आदमी के लिए न्याय सुनिश्चित करना: मुकदमेबाजी की लागत और देरी कम करने की रणनीतियां' में मुख्य भाषण दे रहे थे.
उन्होंने कहा कि न्याय व्यवस्था की असली कसौटी आम नागरिक का अनुभव है न कि केवल कानूनी सिद्धांत. मुख्य न्यायाधीश ने कहा कि न्याय तक पहुंच में सबसे बड़ी बाधाएं मुकदमों की ऊंची लागत और मामलों के निपटारे में देरी है. उन्होंने स्पष्ट किया कि उनका मूल उद्देश्य 'आम आदमी के लिए न्याय सुनिश्चित करना' है और सभी सुधार—चाहे वे तकनीक, वैकल्पिक विवाद समाधान (ADR) या संस्थागत बदलाव हों- इसी लक्ष्य से प्रेरित होने चाहिए. उन्होंने अपनी वकालत के शुरुआती दिनों का एक प्रसंग साझा करते हुए कहा कि न्याय में देरी केवल आंकड़ों की समस्या नहीं, बल्कि यह आम नागरिक की गरिमा को धीरे-धीरे खत्म करती है. उन्होंने कहा कि अनुच्छेद 21 के तहत गरिमा का अधिकार तब सबसे अधिक प्रभावित होता है, जब न्याय महंगा और धीमा हो जाता है. मुख्य न्यायाधीश ने कहा कि न्यायिक पेंडेंसी एक 'पूरा तंत्र' है, जो निचली अदालतों से लेकर शीर्ष अदालत तक प्रभावित करता है.
उन्होंने बताया कि सुप्रीम कोर्ट में लंबे समय से लंबित और दोहराए जाने वाले मुद्दों वाले मामलों का निर्णायक निपटारा कर नीचे की अदालतों पर दबाव कम करने की दिशा में सक्रिय प्रयास किए जा रहे हैं. उन्होंने मध्यस्थता को मुकदमेबाजी का प्रभावी विकल्प बताते हुए कहा कि समझौता हार नहीं, बल्कि रणनीति है. सरकार से अनावश्यक अपीलों की प्रवृत्ति छोड़ने और वकीलों से उचित मंच चुनने की अपील की गई. साथ ही लोक अदालतों को 'जमीनी स्तर पर न्याय का सफल भारतीय मॉडल' बताया गया.
CJI कांत ने कहा कि तकनीक न्याय की सहायक है, उसका विकल्प नहीं है. ई-फाइलिंग, डिजिटल समन और ऑनलाइन केस ट्रैकिंग से देरी घट सकती है, लेकिन डिजिटल रूप से वंचित वर्गों को बाहर करने वाला कोई भी सुधार वास्तविक सुधार नहीं होगा. उन्होंने कहा कि पर्याप्त अदालतें और संसाधन बिना न्याय व्यवस्था टिक नहीं सकती. विशेष अदालतों और जटिल अपराधों के लिए समयबद्ध सुनवाई हेतु विशेष/एक्सक्लूसिव कोर्ट की आवश्यकता पर भी ज़ोर दिया गया. मुख्य न्यायाधीश ने कहा कि पेंडेंसी घटने से जनता का भरोसा बढ़ेगा और कानून के प्रति सम्मान गहरा होगा.
उन्होंने न्याय व्यवस्था को चार पहियों वाले रथ की संज्ञा दी—न्यायपालिका, वकील, प्रशासन और नागरिक—और सभी से मिलकर आगे बढ़ने का आह्वान किया.
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