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बिहार चुनाव: पिछले 30 सालों में फीका क्यों पड़ गया लोकतंत्र का उत्सव?

मुझे याद है, हर गांव में प्रचार के दौरान जब हम पहुंचते तो हमारे चेहरों पर गुलाल ऐसे लगाया जाता, मानों होली मनाई जा रही हो. पटाखे फूटते थे, नारे लगते थे, गाने बजते, और भोजपुर-बक्सर की तरफ तो भिखारी ठाकुर के नाटकों की तरह लौंडा नाच (लड़की के कपड़ों में नाचने वाले लड़के का डांस) तक होता था.

बिहार चुनाव: पिछले 30 सालों में फीका क्यों पड़ गया लोकतंत्र का उत्सव?
क्या आज का बिहार गाना भूल गया है?
  • 1995 के दशक में बिहार के चुनावों को राजनीतिक उत्सव के रूप में मनाया जाता था, जिसमें लोक गीत और रंगमंच शामिल थे
  • चुनाव प्रचार में लोगों की सक्रिय भागीदारी होती थी, जिसमें नारे, नृत्य और भोज होते थे जो लोकतंत्र की आत्मा थीं
  • वर्तमान में बिहार के चुनावी माहौल में राजनीतिक प्रचार में भारी खामोशी और उत्साह की कमी देखी जा रही है
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नई दिल्‍ली:

एक जमाना था जब बिहार में चुनावों को लड़ाई नहीं उत्सव के तौर पर मनाया जाता था. ये बात साल 1995 की है. तब मैं सेंटर फॉर स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसायटीज (सीएसडीएस) के साथ बिहार विधानसभा चुनाव का सर्वे करने कैलिफोर्निया से यहां पहुंचा था. मैं बाजारों में लोगों की चहलपहल से उठते धूल और अलसाते गांवों के बीच पूरे राज्य में घूम रहा था, जहां की हवा में मानों चुनावी बयार की बिजली सी दौड़ रही थी. (कई चरणों में मतदान की तारीखों की घोषणा के बाद) चुनाव प्रचार करीब छह हफ्तों तक चला, जहां माहौल में राजनीति और उत्सव का खुशनुमा मेल था. रिक्शे पर बांस के डंडों में बंधे लाउडस्पीकर बजा करते थे, रिकॉर्ड प्लेयर पर चुनावी गीत लगाए जाते थे- हर पार्टी का अपना गीत होता था जिसे लोक गायक की टोलियां एक से दूसरे टोले में घूम-घूम कर गा कर सुनाया करती थीं, जैसे वो घुमक्कर लोक गायक हों.

चुनावी माहौल में तब रतजगी हुआ करती थी. हर शाम, फसल काटने और मवेशियों को बांधने उन्हें चारा खिलाने और दीया-बाती जलाने के बाद राजनीति का असली रंगमच शुरू होता था. चौक-चौराहों पर भोजपुर के ढोल वादक और मिथिला के गायक इकट्ठा होते और वहां खुले में रंगमच सज जाया करता.  मर्द, औरत यहां तक कि बच्चे भी 'लाल सलाम' या 'जय लालू यादव की जय हो' के धुनों पर झूम रहे होते- यह इस पर निर्भर करता कि गांव में किस पार्टी का अधिक राजनीतिक वर्चस्व है. तब लालू प्रसाद यादव के आलोचकों ने एक मजेदार नारा बनाया थाः बिहार चुनाव भेल भादों में, लालू के लालटेन फसल कादो में. यानी बिहार में चुनाव भादो (अगस्त के अंत से सितंबर के अंत तक मानसून की बरसात) के महीने में हो रहा है, जहां लालू यादव का लालटेन (आरजेडी का चुनावी चिह्न) कादो यानी कीचड़ में फंस गया है. जहां 'कीचड़' से सड़कों के विकास की कमी को भी जोड़ा गया था.

कहीं दीपावली, तो कहीं होली पर राजनीतिक रंग से सराबोर

विदेश से आए कुछ संवाददाता जो मेरे साथ इस चुनावी सफर पर बिहार में थे, उन्हें ये सब देख कर बहुत हैरानी हो रही थी. वो अक्सर लिखते कि भारत में चुनाव जितनी लोकतांत्रिक प्रक्रिया है उतना ही ये धार्मिक उत्सव भी है. वो गलत भी नहीं थे. करीब डेढ़ महीने तक बिहार एकजुट होकर, कहीं होली तो कहीं दीपावली, पर पूरी तरह राजनीतिक उत्सव के रंग में सराबोर रहा. ये मुझे आज भी हरिवंश राय बच्चन की महाकाव्य मधुशाला (रोज होली, रोज दीवाली मनाती मेरी मुधशाला) की याद दिलाती है. तब बिहार में शराब पर प्रतिबंध नहीं थाः चुनावी अभियानों के दरम्यान मधुशाला जैसा माहौल भी खूब जमता था, लेकिन जहां तक मुझे याद है वहां शराबखानों से ज्यादा चाय की दुकानें थीं.

राजनीति केवल दिखावा नहीं, बल्कि सच्ची भागीदारी हुआ करती

मुझे याद है, हर गांव में प्रचार के दौरान जब हम पहुंचते तो हमारे चेहरों पर गुलाल ऐसे लगाया जाता, मानों होली मनाई जा रही हो. पटाखे फूटते थे, नारे लगते थे, गाने बजते, और भोजपुर-बक्सर की तरफ तो भिखारी ठाकुर के नाटकों की तरह लौंडा नाच (लड़की के कपड़ों में नाचने वाले लड़के का डांस) तक होता था. प्रत्याशियों की तरफ से लिट्टी-चोखा के बाद खीर-मिठाई की दावतें होती थीं; तब लोगों के बीच एक भरोसा था कि राजनीति महज जीत-हार का प्रदर्शन नहीं बल्कि  एक भागीदारी है. ये बार-बार होने वाला वो उत्सव था, जो तब के मुख्य चुनाव आयुक्त टीएन शेषण के लागू आचार संहिता के बावजूद बदस्तूर जारी था. राजनीतिक दलों ने दिखने वाले खर्च को तो कम कर दिया था पर पर्दे के पीछे मतदाताओं पर वो दिल खोल कर लुटाते थे. दलित बूथ बनाए गए, उनकी वजह से कुछ झगड़े भी हुए पर फिजा में उत्साह अधिक था. दलितों की निराशा ने उम्मीदों का दामन थाम लिया था.

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क्या आज का बिहार गाना भूल गया है? 

तीन दशक बाद 2025 के चुनावी माहौल में यहां आकर ऐसा सोचने के लिए माफ करें कि बिहार गाना ही भूल गया है. इस साल चुनाव प्रचार के अभियान में एक अजब सी खामोशी है. जो सड़कें कभी राजनीतिक दलों के गाने से गूंजती थी, अब वे केवल जेनरेटर की मशीनी गड़गड़ाहट और स्मार्टफोन्स के क्लिक से गुंजयमान है. कभी जो दमदार लाउडस्पीकर बजा करते थे- जो भारतीय लोकतंत्र की गूंज का प्रतीक हुआ करते थे- अब खामोश हो गए हैं. अब दीवारों से नेताओं के मुस्कुराते चेहरे वाले पोस्टर भी नदारद हैं. कोई लोकगायक विकास और न्याय के छंद नहीं बना रहा. न तो हाजीपुर या पूर्णिया की तंग गलियों में धूल भरा कोई हुजूम दिखता, और मैथिली ठाकुर जैसी लोकप्रिय गायिका को अलीनगर से टिकट देने के बावजूद न ही मधुबनी या दरभंगा में मैथिली विद्यापति के गीत सुनाई देते, जिनमें राजनीति का खूबसूरत मेल हुआ करता था.

पर, इस बार हवा में चुप्पी छाई है.

इनकी जगह, अब असली प्रचार स्क्रीन पर हुआ करता है, जहां रील्स, हैशटैग्स और तीस सेकेंड के वीडियो जिन्हें शॉर्ट्स कहते हैं, उनका चलन है. राजनीतिक रैलियां अब वर्चुअल चश्मे से देखे जाने लगे हैं, गांवों के दीवारों पर लिखे जाने वाले नारों की जगह ट्वीट्स और इंस्टाग्राम स्टोरीज ने ले ली है. जमीन पर खामोश दिखते इस चुनाव में सबसे अधिक दिखने वाले शख्स प्रशांत किशोर हैं- जो जिला-दर-जिला घूम रहे हैं, और उनका जनसुराज अभियान जितना खबरों में नहीं दिखा हकीकत में कहीं अधिक ईमानदारी से लाइव-स्ट्रीम हो रहा है. जो सबसे अहम था वो नदारद हैः न जोश है, न ही आस फिर भी, इस पूरे डिजिटल एनर्जी में कुछ ऐसा है जो जरूरी है, पर वो नदारद है. अब चुनाव कैंपेन महसूस नहीं होते. यहां पसीने और धूल की गंध नहीं आती; इसमें उम्मीदों का शोर या संशय भरे ठहाकों की गूंज नहीं दिखती.

कुछ हद तक इस पर समय का असर भी दिखता है. क्योंकि दिवाली और छठ अबी से 28 अक्टूबर तक होने के कारण बिहार में एक त्योहारी खुमारी भी है. त्योहार के अंतिम दिन और मतदान के पहले दिन के बीच बमुश्किल एक हफ्ते का समय है- 6 नवंबर को पहले चरण का मतदान होना है. सितंबर और अक्टूबर का महीना राजनीतिक दलों के आपसी सीटों के बंटवारे में निकल गया; पटना के बाजारों में राजनीतिक नारों की जगह गठबंधन के जोड़तोड़ अधिक गूंज है.
कुछ हद तक यह चुनाव आयोग के जल्दबाजी में लागू किए गए स्पेशल इंटेंसिव रिवीजन का असर भी है. राहुल गांधी और तेजस्वी यादव की वजह से 16 दिवसीय वोटर अधिकार रैली और पांच दिनी बिहार अधिकार यात्रा के दौरान थोड़ी जमीनी हलचल जरूर रही लेकिन चुनावी तारीखों की घोषणा के बाद से पूरे राज्य में एकदम सन्नाटा छा गया है. लेकिन चुनाव आयोग के सख्त चुनावी कार्यक्रम से अधिक यहां राजनीतिक सोच की थकान दिखती है. कभी खुली हवा में सांस लेने वाला लोकतंत्र अब स्क्रीन तक सिमट कर रह गया है. जो नारे कभी जनता के दिलों से उठा करते थे, अब वो सोशल मीडिया के सेल से उतरा करते हैं. जो उम्मीदवार कभी हाथ जोड़कर घर-घर जाया करता था, वो अब एक रिंग लाइट के सामने बैठकर लाइक्स गिन रहा है.

चुनाव की बदली हुई तस्वीर स्टाइल नहीं, सोच का संकेत

लिहाजा, बिहार के चुनाव प्रचार में आया ये बदलाव इसकी शैली में आया बदलाव भर नहीं, ये सोच में आए बदलाव का संकेत है. जब राजनीति केवल बाहरी दिखाने तक सीमित रह जाए, जब लोकतंत्र का हिस्सा बनना सबके लिए संभव न हो, तो भागीदारी पर असर पड़ता है. मत देने के आह्वान का कम लोगों पर असर होता है. बहुत कम लोग उम्मीदें होती हैं. लोकतंत्र का यह उत्सव, जो कभी स्कूल के शिक्षकों से लेकर रिक्शावालों तक बड़ी संख्या में लोगों को आकर्षित करता था, आज भागीदारी की जगह इस पर केवल दूर से देखने की चीज में बदलने का खतरा मंडरा रहा है.

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प्रचार की खामोशी का मतदान पर असर क्या होगा?

क्या प्रचार में यह खामोशी नतीजों के बदल देगी? शायद. प्रचार का इस कदर शांत होना, अक्सर सत्ता में बैठे लोगों के पक्ष में होता है. कम उत्साह का मतलब ये हो सकता है कि मतदान भी कम ही हो; और इतिहास साक्षी है कि कम मतदान अक्सर सत्ता में बैठे लोगों को मदद करता है. इसके बावजूद, इस शांत माहौल में कुछ नया सोचने, नया गढ़ने और एक गहरी सोच वाली राजनीति करने का मौका है. हो सकता है कि मतदाता राजनीति नहीं बल्कि शोरगुल से ऊब गए हों. शायद, दशकों से चुनावी वादों से पस्त बिहार के मतदाता अब चुनने से पहले शांति से सोच-विचार करने को तरजीह दे रहे हों. इन सब के बावजूद, चुनावी प्रचार में गानों का न होना बेहद खल रहा है. वो गाने और नारे की गूंज से भरी रातें, जहां हंसी झगड़ों के बीच उम्मीदें नाच में तब्दील हो जाया करती थीं- वो केवल चुनावी भावनाएं नहीं होती थीं. वो अपने में लोकतंत्र की आत्मा थी, जो बिना किसी बनावट के अपनी खुशी, दिलो-जान से वहां भाग लिया करती थीं. अब लोकतंत्र स्क्रीन पर स्क्रॉल हो रहा है.

सवाल ये उठता है कि जब 2025 की ये शांत शरद ऋतु मदतान की तारीखों की ओर बढ़ रही है, तो बिहार की ये खामोशी भारतीय राजनीति की परिपक्वता की ओर ईशारा कर रही है या केवल इसकी उदासी की ओर.

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