महाराष्ट्र में हजारों बच्चे कुपोषण ग्रस्त हैं जबकि राज्य सरकार ने महिला एवं बाल विकास के बजट में कटौती कर दी है.
मुंबई:
महाराष्ट्र में महिला और बाल विकास के काम करने वाली सरकारी और समाजसेवी संस्थाओं में समन्वय की जिम्मेदारी है महिला एवं बाल विकास आयुक्तालय की, लेकिन इस दफ्तर में अफसरों के 67 फीसदी पद खाली पड़े हैं. यहां तक कि आयुक्त और सचिव तक का पद एक ही अधिकारी के पास है. यह जानकारी सूचना के अधिकार के तहत मिली है. महाराष्ट्र सरकार समेकित बाल विकास योजना यानी आईसीडीएस के बजट में भी 31 फीसदी की कटौती कर चुकी है. यह सब तब हो रहा है जब राज्य में हजारों बच्चों की कुपोषण से मौत हो चुकी है.
महाराष्ट्र में जून 1993 में महिला एवं बाल विकास विभाग स्वतंत्र प्रशासकीय विभाग बना. इसका मकसद था महिलाओं-बच्चों का जीवन उन्नत करना, सुरक्षा देना और विकास व समाज में उनकी भागीदारी सुनिश्चित करना. लेकिन महकमे को शासन से ही समुचित भागीदारी नहीं मिली है. विभाग में अफसरों के 67 फीसदी पद खाली हैं. आरटीआई कार्यकर्ता अनिल गलगली के मुताबिक "वर्ग एक में महिला एवं बाल विकास अधिकारी जिला परिषद के 34 में से 32 पद खाली हैं. वर्ग एक के अंतर्गत बाल विकास योजना अधिकारी नागरी योजना के 104 में से 71 पद रिक्त हैं. वहीं वर्ग दो में बाल विकास योजना अधिकारी, ग्रामीण के 554 में से 429 पद खाली हैं. ऐसे में समन्वय साधना तो दूर सारा कामकाज कागज पर ही हो रहा है."
विधान परिषद में एक सवाल के जवाब में सरकार ने खुद माना कि अप्रैल 2016 से अगस्त 2016 के बीच 6148 नवजातों की मौत हुई. इस अवधि में छह साल से कम आयु के 6380 बच्चों की मौत हुई. जबकि अप्रैल 2016 से नवंबर 2016 के बीच 881 मांओं ने दम तोड़ा. हालांकि जब महिला बाल विकास मंत्री पंकजा मुंडे से सवाल पूछे गए तो उन्होंने कहा सारी मौतें कुपोषण से नहीं हुई हैं. कुछ मौतों के लिए टीबी और अन्य रोग भी जिम्मेदार हैं.
इस सब के बावजूद सरकार ने लगातार दूसरे साल समेकित बाल विकास योजना के बजट में 31 फीसदी यानी लगभग 914 करोड़ रुपये तक की कटौती कर दी है. जबकि राज्य में लगभग छह लाख बच्चे कुपोषित हैं. यानी बजट नहीं, महकमे में अधिकारी नहीं, ऐसे में महिला-बाल विकास पर महाराष्ट्र सरकार की प्राथमिकता समझी जा सकती है. लगभग चार लाख करोड़ रुपये के कर्ज में डूबी सरकार की प्राथमिकताओं में जब मूर्तियां और पार्क बनाना हो तब ऐसी उदासीनता की वजह सियासी असंवेदनशीलता ही है, क्योंकि बच्चे वोट बैंक नहीं हैं.
महाराष्ट्र में जून 1993 में महिला एवं बाल विकास विभाग स्वतंत्र प्रशासकीय विभाग बना. इसका मकसद था महिलाओं-बच्चों का जीवन उन्नत करना, सुरक्षा देना और विकास व समाज में उनकी भागीदारी सुनिश्चित करना. लेकिन महकमे को शासन से ही समुचित भागीदारी नहीं मिली है. विभाग में अफसरों के 67 फीसदी पद खाली हैं. आरटीआई कार्यकर्ता अनिल गलगली के मुताबिक "वर्ग एक में महिला एवं बाल विकास अधिकारी जिला परिषद के 34 में से 32 पद खाली हैं. वर्ग एक के अंतर्गत बाल विकास योजना अधिकारी नागरी योजना के 104 में से 71 पद रिक्त हैं. वहीं वर्ग दो में बाल विकास योजना अधिकारी, ग्रामीण के 554 में से 429 पद खाली हैं. ऐसे में समन्वय साधना तो दूर सारा कामकाज कागज पर ही हो रहा है."
विधान परिषद में एक सवाल के जवाब में सरकार ने खुद माना कि अप्रैल 2016 से अगस्त 2016 के बीच 6148 नवजातों की मौत हुई. इस अवधि में छह साल से कम आयु के 6380 बच्चों की मौत हुई. जबकि अप्रैल 2016 से नवंबर 2016 के बीच 881 मांओं ने दम तोड़ा. हालांकि जब महिला बाल विकास मंत्री पंकजा मुंडे से सवाल पूछे गए तो उन्होंने कहा सारी मौतें कुपोषण से नहीं हुई हैं. कुछ मौतों के लिए टीबी और अन्य रोग भी जिम्मेदार हैं.
इस सब के बावजूद सरकार ने लगातार दूसरे साल समेकित बाल विकास योजना के बजट में 31 फीसदी यानी लगभग 914 करोड़ रुपये तक की कटौती कर दी है. जबकि राज्य में लगभग छह लाख बच्चे कुपोषित हैं. यानी बजट नहीं, महकमे में अधिकारी नहीं, ऐसे में महिला-बाल विकास पर महाराष्ट्र सरकार की प्राथमिकता समझी जा सकती है. लगभग चार लाख करोड़ रुपये के कर्ज में डूबी सरकार की प्राथमिकताओं में जब मूर्तियां और पार्क बनाना हो तब ऐसी उदासीनता की वजह सियासी असंवेदनशीलता ही है, क्योंकि बच्चे वोट बैंक नहीं हैं.
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