रायपुर:
इस साल पंद्रह अगस्त को जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लाल किले से तिरंगा फहरा रहे होंगे उसी वक्त उनकी पार्टी के शासन वाली एक राज्य सरकार आदिवासियों के कानूनी अधिकार पर पाबंदी लगाने के लिए प्रस्ताव पास करा रही होगी।
छत्तीसगढ़ सरकार के आदिवासी मामलों के मंत्रालय ने एक लिखित आदेश के जरिए राज्य के जिलाधिकारियों से कहा है कि वह पंद्रह अगस्त को ग्राम सभाओं से यह सर्टिफिकेट हासिल करें कि हर जिले की सभी ग्रामसभाओं में वन अधिकार कानून के तहत लोगों के दावों का निराकरण कर दिया गया है।
इसी साल 27 जुलाई को आदिवासी मंत्रालय के अपर मुख्य सचिव एनके असवाल के हस्ताक्षर वाला सर्कुलर कहता है, ‘छत्तीसगढ़ राज्य में आगामी ग्राम-सभा दिनांक 15.08.2015 को होना प्रस्तावित है। उक्त ग्रामसभा में कलेक्टर द्वारा जिले में वन अधिकार अधिनियम के क्रियान्वयन का कार्य पूर्ण होने पर क्रमश: सभी ग्राम सभाओं से ग्राम सभावार इस आशय का प्रमाण पत्र प्राप्त कर लिया जाए कि जिले की प्रत्येक ग्राम सभा द्वारा उनके समक्ष वन अधिकार के व्यक्तिगत / सामुदायिक दावा पत्रों का समुचित रीति से अंतिम निराकरण करा लिया गया है तथा वर्तमान में कोई भी दावा पत्र विचार/ निर्णय / वितरण हेतु लंबित नहीं है। ’
गौरतलब है कि सरकार यह शिकायत करती रही है कि विकास परियोजनाओं को आगे बढ़ाने में वन अधिकार नियम के तहत ग्राम सभा की सहमति लेना काफी मुश्किल हो रहा है। केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय की ओर से पिछले दिनों इस कानून के तहत नियमों में फेरबदल की कई कोशिश की गईं लेकिन कामयाब नहीं हुईं। अब छत्तीसगढ़ सरकार के इस कदम को आदिवासियों को वन अधिकार के तहत मिले हक को छीनने की कोशिश के तौर पर देखा जा रहा है। यह गंभीर समस्या इसलिए भी है क्योंकि आदिवासी मामले मंत्रालय के आंकड़े कहते हैं कि 2006 में वन अधिकार कानून बनने के बाद करीब 60 प्रतिशत आदिवासी दावों में हक-हुकूक नहीं मिले हैं।
छत्तीसगढ़ में खनिज संपदा के भंडार हैं और राज्य में भरपूर जंगल भी हैं। ऐसे में वन अधिकार कानून की यहां सबसे अधिक अहमियत है। जानकार कह रहे हैं कि राज्य सरकार की यह कोशिश बताती है कि वह आदिवासियों के अधिकार के लिए कतई गंभीर नहीं है। छत्तीसगढ़ के वन मंत्री और आदिवासी मामलों के मंत्री से इस पर प्रतिक्रिया के लिए संपर्क नहीं हो सका।
छत्तीसगढ़ सरकार के आदिवासी मामलों के मंत्रालय ने एक लिखित आदेश के जरिए राज्य के जिलाधिकारियों से कहा है कि वह पंद्रह अगस्त को ग्राम सभाओं से यह सर्टिफिकेट हासिल करें कि हर जिले की सभी ग्रामसभाओं में वन अधिकार कानून के तहत लोगों के दावों का निराकरण कर दिया गया है।
इसी साल 27 जुलाई को आदिवासी मंत्रालय के अपर मुख्य सचिव एनके असवाल के हस्ताक्षर वाला सर्कुलर कहता है, ‘छत्तीसगढ़ राज्य में आगामी ग्राम-सभा दिनांक 15.08.2015 को होना प्रस्तावित है। उक्त ग्रामसभा में कलेक्टर द्वारा जिले में वन अधिकार अधिनियम के क्रियान्वयन का कार्य पूर्ण होने पर क्रमश: सभी ग्राम सभाओं से ग्राम सभावार इस आशय का प्रमाण पत्र प्राप्त कर लिया जाए कि जिले की प्रत्येक ग्राम सभा द्वारा उनके समक्ष वन अधिकार के व्यक्तिगत / सामुदायिक दावा पत्रों का समुचित रीति से अंतिम निराकरण करा लिया गया है तथा वर्तमान में कोई भी दावा पत्र विचार/ निर्णय / वितरण हेतु लंबित नहीं है। ’
गौरतलब है कि सरकार यह शिकायत करती रही है कि विकास परियोजनाओं को आगे बढ़ाने में वन अधिकार नियम के तहत ग्राम सभा की सहमति लेना काफी मुश्किल हो रहा है। केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय की ओर से पिछले दिनों इस कानून के तहत नियमों में फेरबदल की कई कोशिश की गईं लेकिन कामयाब नहीं हुईं। अब छत्तीसगढ़ सरकार के इस कदम को आदिवासियों को वन अधिकार के तहत मिले हक को छीनने की कोशिश के तौर पर देखा जा रहा है। यह गंभीर समस्या इसलिए भी है क्योंकि आदिवासी मामले मंत्रालय के आंकड़े कहते हैं कि 2006 में वन अधिकार कानून बनने के बाद करीब 60 प्रतिशत आदिवासी दावों में हक-हुकूक नहीं मिले हैं।
छत्तीसगढ़ में खनिज संपदा के भंडार हैं और राज्य में भरपूर जंगल भी हैं। ऐसे में वन अधिकार कानून की यहां सबसे अधिक अहमियत है। जानकार कह रहे हैं कि राज्य सरकार की यह कोशिश बताती है कि वह आदिवासियों के अधिकार के लिए कतई गंभीर नहीं है। छत्तीसगढ़ के वन मंत्री और आदिवासी मामलों के मंत्री से इस पर प्रतिक्रिया के लिए संपर्क नहीं हो सका।
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