आपने स्पेन की बुल रेस यानी बैलों की रेस के बारे में तो सुना ही होगा. अगर नहीं सुना तो हम आपको बता दें कि पैम्प्लोना में सैन फर्मिन उत्सव के दौरान बैलों की रेस कराए जाने की परंपरा है. इस परंपरा में लोग सफेद कपड़े और लाल स्कार्फ पहनकर शहर की घुमावदार सड़कों पर लड़ाकू सांडों के साथ दौड़ते हैं. बॉलीवुड की फिल्म 'जिंदगी ना मिलेगी दोबारा' में भी ऐसी ही एक रेस को दिखाया गया है. स्पेन की तरह ही राजस्थान के बूंदी में भी एक ऐसी ही रेस आयोजित करने की परंपरा है. ये रेस बूंदी जिले के देई कस्बे में भाईदूज के दिन होता है.
इस आयोजन की परंपरा 500 साल पुरानी है. दीपावली के दो दिन बाद भाईदूज के मौके पर बाबा घास भैरू की सवारी धूमधाम से निकाली जाती है. जिसमें बैलों को मदिरा पिलाई जाती है, पटाखों की बारिश होती है और पूरा गांव भैरू बाबा के जयकारों से गूंज उठता है.
गांव के मीणा समाज के लोग अपने बैलों की पूजा करते हैं और उन्हें सजाते हैं. बैलों के गले में घंटियां, रंग-बिरंगे कपड़े और फूलों की माला डाली जाती है. भाईदूज के दिन देई कस्बे में सुबह से ही रौनक छा जाती है. गलियों में भीड़ उमड़ पड़ती है. घरों की छतों और चबूतरों पर बच्चे, महिलाएं और बुजुर्ग सभी अपनी जगह घेर लेते हैं ताकि बाबा घास भैरू की अनोखी सवारी का दर्शन कर सकें.
पूजा के बाद बैलों को मदिरा पिलाई जाती है, जिसे स्थानीय लोग बाबा घास भैरू को चढ़ाने का प्रतीक मानते हैं. इसके बाद सवारी शुरू होती है. जैसे ही सवारी घास भैरू चौक से प्रारंभ होती है पूरा गांव उत्साह से झूम उठता है. लोग घरों की छतों से पटाखे फेंकते हैं, ढोल-नगाड़ों की थाप पर झूमते हैं और जय बाबा घास भैरू के नारे लगाते हैं. दर्जनों झुंडों में बैल आगे बढ़ते हैं. ये बैल शराब के नशे में मस्त होकर तेज़ी से दौड़ते हैं और भीड़ के बीच से गुजरते हैं. पटाखों की आवाज़ से कभी-कभी बैल उछल पड़ते हैं, जिससे भगदड़ जैसी स्थिति भी बन जाती है. कई बार लोग बैलों की रस्सियों में उलझ जाते हैं, गिर पड़ते हैं या भीड़ में धकेल दिए जाते हैं. बावजूद इसके, उत्साह और भक्ति का भाव कम नहीं होता.
इस परंपरा की चर्चा सिर्फ बूंदी तक सीमित नहीं है. सवारी देखने के लिए कोटा, टोंक, सवाईमाधोपुर, करवर और नैनवां सहित आसपास के ग्रामीण भी देई पहुंचते हैं. सड़कें लोगों से पटी रहती हैं, दुकानों पर मेले जैसा माहौल होता है और गांव का हर कोना रंगीन नज़र आता है. विदेशी पर्यटक भी इस अनोखी सवारी को देखने आते हैं.
ग्रामीण तुलसीराम पटेल के अनुसार, बाबा घास भैरू की उत्पत्ति टोंक जिले के घास गांव से मानी जाती है. वहां से बाबा की प्रतिमा देई लाई गई थी. यह प्रतिमा एक गोल पत्थर के रूप में है, जिसका वजन लगभग पांच क्विंटल या उससे अधिक बताया जाता है. प्रतिमा को लकड़ी के सिंघाड़े (आसन) पर रखा जाता है और लोहे की सांकलों से बांधा जाता है. फिर बैल जोतकर बाबा की सवारी पूरे गांव में घुमाई जाती है.
लोगों की मान्यता है कि सवारी के दौरान आज तक किसी इंसान या जानवर की मृत्यु नहीं हुई, भले ही पटाखों की आवाज़, भीड़ का शोर और बैलों की दौड़ कितनी ही खतरनाक क्यों न लगे. ग्रामीण बताते हैं कि जो भी बच्चा या बैल रस्सी के नीचे से निकलता है, वह पूरे साल सुरक्षित रहता है. यही कारण है कि कई परिवार अपने छोटे बच्चों को लेकर सवारी में शामिल होते हैं। श्रद्धालु बाबा घास भैरू को दारू की बोतल और कामी तेल का चढ़ावा चढ़ाते हैं। सवारी घास भैरू चौक से शुरू होकर बस स्टैंड, नसियां, शीतला चौक, घास का दरवाजा होते हुए वापस बाबा के स्थल पर लौटती है। पूरे रास्ते लोगों की भीड़ इतनी होती है कि कदम रखने की जगह नहीं बचती। महिलाएं छतों से पुष्प वर्षा करती हैं, बच्चे पटाखे चलाते हैं और पुरुष ढोल-नगाड़ों की ताल पर नाचते हैं। सवारी के दौरान कई बार बैल आपस में भिड़ जाते हैं, कुछ टूट जाते हैं या घायल हो जाते हैं। फिर भी ग्रामीण कहते हैं कि बाबा की कृपा से किसी को गंभीर नुकसान नहीं होता। चारभुजा नाथ मंदिर के अध्यक्ष पुरूषोतम पारीक ने बताया कि पटाखों की आवाज़ और बैलों की दौड़ से कई बार हादसे भी हो जाते हैं। कुछ लोग रस्सियों में उलझकर गिर जाते हैं या जल जाते हैं। फिर भी ग्रामीणों की आस्था अडिग रहती है।
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