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This Article is From Dec 19, 2014

नक्सलवाद से जंग : राजनांदगांव ने खोला उम्मीद का दरवाज़ा

नक्सलवाद से जंग : राजनांदगांव ने खोला उम्मीद का दरवाज़ा
राजनांदगांव के पुलिस अधीक्षक संजीव शुक्ला
राजनांदगांव (छत्तीसगढ़):

छत्तीसगढ़ के बस्तर में भले ही पिछले दिनों जबरन और फर्ज़ी आत्मसमर्पणों को लेकर सवाल खड़े हुए हैं, लेकिन रायपुर से करीब 100 किलोमीटर दूर राज्य के नक्सल प्रभावित राजनांदगांव में उम्मीद की एक किरण जगी है। जहां एक ओर बस्तर का विवाद सुर्खियों में रहा वहीं राजनांदगांव में मिली कामयाबी का मीडिया में नहीं आई।

हालांकि राजनांदगांव की तुलना बस्तर के जंगलों से तो नहीं की जा सकती, लेकिन ये ज़िला भी एक ओर छत्तीसगढ़ के ही बालोद और कांकेर से लगता है तो दूसरी ओर मध्य प्रदेश के बालाघाट और महाराष्ट्र के गढ़चिरौली से। इसी वजह से ये नक्सलियों का कमांड एरिया रहा है यानी गतिविधियों का केंद्र।

लेकिन पिछले कुछ सालों में राजनांदगांव में माओवादी गतिविधियां कम हुई है और नक्सलियों का नेटवर्क कमज़ोर हुआ है। राजनांदगांव के पुलिस अधीक्षक संजीव शुक्ला कहते हैं, 'पांच साल पहले हमारे कई पुलिस वाले और आम लोग नक्सली हिंसा का शिकार हो जाते थे, लेकिन अब हमने हालात पर काबू पा लिया है'।

आंकड़ों पर गौर करें तो जहां 2009 नक्सलियों ने कुल 41 नागरिकों और पुलिस वालों को मारा वहीं 2013 और 2014 में केवल एक व्यक्ति ही नक्सली हिंसा का शिकार हुआ। इस बीच 31 नक्सलियों के सरेंडर हुए। इन सभी नक्सलियों के खिलाफ मामले थे। इसलिए इनका नाम सरकार की पुनर्वास नीति के तहत राज्य सरकार को भेज दिए गए हैं।

नक्सवाद से लड़ने में बड़ी कामयाबी मिली पुलिस के जागरूकता अभियान से। शुक्ला बताते हैं, 'हमने गुड्सा उसेंडी उर्फ सुखदेव जैसे माओवादियों के पोस्टर गांवों में और जंगलों में लगाए और लोगों को बताया कि बड़े माओवादी आंध्र प्रदेश में जाकर सरेंडर कर रहे हैं। इससे नक्सलियों के चंगुल में फंसे आदिवासियों को वापस लाने में कामयाबी मिली'।

इसके अलावा पिछले तीन सालों में पुलिस ने गांव वालों को रोज़गार देने और टूटी पुलिया बनाने, बांध बनाने और सड़क बनाने के काम में लगाया। एक पुलिस अधिकारी ने कहा 'जब लोगों ने पास के एक गांव में सिंचाई के लिए बांध बनवावे की मांग की और इसके लिए धरना देना शुरू किया तो हमने उन्हें प्रोत्साहित किया ताकि विकास के लिए जनता का दबाव बने और माओवादी हमारी मदद को रोक न सकें'।

इन छोटे-छोटे कदमों से माओवादियों के कई समर्पित काडर वापस मुख्य धारा में आ रहे हैं। वे अब पुलिस के साथ मिलकर नक्सलियों के खिलाफ जंग में मदद कर रहे हैं। एक पुलिस अफसर ने कहा कि, 'नक्सली हमारी कामयाबी से इतने तिलमिला गए कि उन्होंने यहां के आदिवासी काडर को बाहर भेजना शुरू कर दिया ताकि वे समर्पण न करें, लेकिन बाहरी काडर की मदद से वे ज्यादा दिन तक नहीं चल सके और फिर उन्हें राजनांदगांव के लोकल काडर को वापस बुलाना पड़ा, लेकिन पिछले तीन सालों से वे हमारे ज़िले से कोई नई भरती नहीं कर पा रहे'।

लेकिन सरकार के सामने उन्हें बसाने और एक स्थाई रोज़गार देने की कड़ी चुनौती है। पत्रकार गिरजाशंकर कहते हैं, 'सरकार को ये साफ करना होगा कि वह माओवादियों की सुरक्षा और पुनर्वास के लिए क्या कर रही है, वरना ये कामयाबी कुछ दिनों की चांदनी साबित होगी। नक्सलवाद को हराने का ये बड़ा मौका है जिसे गंवाना नहीं चाहिए'।

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