सुप्रीम कोर्ट ने तीन तलाक पर फैसला सुनाया.
नई दिल्ली:
देश की सर्वोच्च अदालत ने आज मुस्लिम समाज से जुड़े तीन तलाक को अवैध करार दिया और केंद्र सरकार को आदेश दिया है कि वजह जल्द ही इस मुद्दे पर कानून बनाए. इसी के साथ इस केस को लड़ने वाली तमाम महिलाओं को चेहरे पर मुस्कान है और उन्हें वह जीत और जहां मिला है जिसके लिए वह सालों से अपने घर परिवार, समाज और धर्म के ठेकेदारों से लड़कर कई बेड़ियों को तोड़कर सामने आईं हैं. ये महिलाओं जीत गईं, लेकिन आज शाहबानो की याद आना लाजमी है. शाहबानो ने भी गजब का मनोबल और साहस दिखाया था, वह कोर्ट में केस तो जीत गई थी, लेकिन हकीकत में उसे राजनीति ने हरा दिया था.
यह पूरा मामला 1978 का था. इंदौर निवासी शाहबानो को उसके पति मोहम्मद खान ने तलाक दे दिया था. पांच बच्चों की मां 62 वर्षीय शाहबानो ने गुजारा भत्ता पाने के लिए कानून की शरण ली. मामला सुप्रीम कोर्ट में पहुंचा और उस पर सुनवाई हुई. उच्चतम न्यायालय तक पहुँचते मामले को सात साल बीत चुके थे. न्यायालय ने अपराध दंड संहिता की धारा 125 के अंतर्गत निर्णय दिया जो हर किसी पर लागू होता है चाहे वो किसी भी धर्म, जाति या संप्रदाय का हो. कोर्ट ने सुनवाई के बाद अपना फैसला सुनाते हुए शाहबानो के हक में फैसला देते हुए मोहम्मद खान को गुजारा भत्ता देने का आदेश दिया.
ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने शाहबानो केस में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का पुरजोर विरोध किया. शाहबानो के कानूनी तलाक भत्ते पर देशभर में राजनीतिक बवाल मच गया. राजीव गांधी सरकार ने मुस्लिम महिलाओं को मिलने वाले मुआवजे को निरस्त करते हुए एक साल के भीतर मुस्लिम महिला (तलाक में संरक्षण का अधिकार) अधिनियम, (1986) पारित कर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलट दिया.
यह भी पढ़ें : काश! हम शाहबानो मामले में आरिफ मोहम्मद खान को सुन पाते!
ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने शाहबानो केस में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का पुरज़ोर विरोध किया था. माना जाता है कि राजीव गांधी ने ऐसा मुस्लिम धर्मगुरुओं के दबाव में आकर किया था. सरकार के शाहबानो को तलाक देने वाला पति मोहम्मद गुजारा भत्ता के दायित्व से मुक्त हो गया. ऐसे में शाहबानो जिसके भत्ते की मांग को सुप्रीम कोर्ट ने भी मंजूरी दे दी थी, उसे अपने गुजारे के लिए कुछ नहीं मिल सका.
आपको याद दिला दें आज से 32 साल पहले भी इस मसले पर सुप्रीम कोर्ट ने फ़ैसला सुनाया था और सरकार को संसद में इस फ़ैसले को बदलना पड़ा था. ये बात अलग है कि इस मामले का संबंध तलाक़ के क़ानूनी या ग़ैर-क़ानूनी पक्ष से नहीं बल्कि गुजारे भत्ते से था लेकिन यह कहा जा सकता है कि आजाद भारत में ये लड़ाई मुस्लिम महिलाओं के हक के लिए थी जो शाहबानो ने लड़ी थी.
यह पूरा मामला 1978 का था. इंदौर निवासी शाहबानो को उसके पति मोहम्मद खान ने तलाक दे दिया था. पांच बच्चों की मां 62 वर्षीय शाहबानो ने गुजारा भत्ता पाने के लिए कानून की शरण ली. मामला सुप्रीम कोर्ट में पहुंचा और उस पर सुनवाई हुई. उच्चतम न्यायालय तक पहुँचते मामले को सात साल बीत चुके थे. न्यायालय ने अपराध दंड संहिता की धारा 125 के अंतर्गत निर्णय दिया जो हर किसी पर लागू होता है चाहे वो किसी भी धर्म, जाति या संप्रदाय का हो. कोर्ट ने सुनवाई के बाद अपना फैसला सुनाते हुए शाहबानो के हक में फैसला देते हुए मोहम्मद खान को गुजारा भत्ता देने का आदेश दिया.
ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने शाहबानो केस में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का पुरजोर विरोध किया. शाहबानो के कानूनी तलाक भत्ते पर देशभर में राजनीतिक बवाल मच गया. राजीव गांधी सरकार ने मुस्लिम महिलाओं को मिलने वाले मुआवजे को निरस्त करते हुए एक साल के भीतर मुस्लिम महिला (तलाक में संरक्षण का अधिकार) अधिनियम, (1986) पारित कर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलट दिया.
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ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने शाहबानो केस में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का पुरज़ोर विरोध किया था. माना जाता है कि राजीव गांधी ने ऐसा मुस्लिम धर्मगुरुओं के दबाव में आकर किया था. सरकार के शाहबानो को तलाक देने वाला पति मोहम्मद गुजारा भत्ता के दायित्व से मुक्त हो गया. ऐसे में शाहबानो जिसके भत्ते की मांग को सुप्रीम कोर्ट ने भी मंजूरी दे दी थी, उसे अपने गुजारे के लिए कुछ नहीं मिल सका.
आपको याद दिला दें आज से 32 साल पहले भी इस मसले पर सुप्रीम कोर्ट ने फ़ैसला सुनाया था और सरकार को संसद में इस फ़ैसले को बदलना पड़ा था. ये बात अलग है कि इस मामले का संबंध तलाक़ के क़ानूनी या ग़ैर-क़ानूनी पक्ष से नहीं बल्कि गुजारे भत्ते से था लेकिन यह कहा जा सकता है कि आजाद भारत में ये लड़ाई मुस्लिम महिलाओं के हक के लिए थी जो शाहबानो ने लड़ी थी.
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