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This Article is From Oct 28, 2016

काश! हम शाहबानो मामले में आरिफ मोहम्‍मद खान को सुन पाते!

Dr Vijay Agrawal
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    नवंबर 01, 2016 17:18 pm IST
    • Published On अक्टूबर 28, 2016 16:37 pm IST
    • Last Updated On नवंबर 01, 2016 17:18 pm IST
एक सप्ताह के अंदर दो ऐसी छोटी-छोटी किन्तु बड़े प्रभाव छोड़ने वाली घटनाएं हुई हैं, जिनकी अनदेखी नहीं की जानी चाहिए. इनमें एक घटना यह है कि विधि आयोग ने देश के सभी सात राष्ट्रीय राजनीतिक तथा 49 क्षेत्रीय राजनीतिक दलों को कुछ प्रश्‍न भेजकर उनसे समान नागरिक संहिता पर उनकी राय मांगी है. दूसरी घटना है प्रधानमंत्री का सार्वजनिक रूप से दिया गया यह बयान कि सरकार मुस्लिम महिलाओं को समानता का अधिकार दिलाने के मामले में कोई कसर नहीं छोड़ेगी.

यानी कि हम इसे भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) की कॉमन सिविल कोड के बारे में दी गई राय कह सकते हैं. देखते हैं कि शेष पार्टियां इस बारे में क्या सोचती हैं. वे सोचें चाहे जो भी, लेकिन इससे कम से कम इतना तो जरूर होगा कि पिछले 70 सालों से अधर में लटके हुए इस मुद्दे पर छोटे-बड़े सभी राजनीतिक दलों का स्‍टैंड पता चल जाएगा. तब भविष्य में उनके लिए इस मामले पर 'मेनुपुलेट' करना मुश्किल हो जाएगा. तब शायद इसका कोई एक हल निकल सकेगा.

दरअसल, यदि इसका हल निकल नहीं पा रहा है तो इसके लिए धार्मिक और सामाजिक संगठन उतने जिम्मेदार नहीं हैं, जितने कि राजनीतिक दल हैं. सच तो यह है कि सन् 1985 में कांग्रेस को अभी से कई गुना बेहतर मौका मिला था जब वह इस दिशा में एक बहुत बड़ा योगदान कर सकती थी. उसे करना भी कुछ विशेष नहीं था. उसके काम को सर्वोच्च न्यायालय (शाहबानो मामले में) ने कर दिया था. उसे केवल चुप भर रहना था. और उसके पक्ष में एक बड़ी बात यह भी थी कि उस समय मुस्लिमों के एक युवा नेता, जो गृह राज्यमंत्री भी थे, न्यायालय के पक्ष में थे और उन्होंने अपने इन विचारों को लोकसभा में खुलकर रखा भी था. उनका वह ऐतिहासिक भाषण किसी उत्साही युवा नेता द्वारा भावनाओं के प्रवाह में बहकर दिया गया राजनीतिक भाषण नहीं, बल्कि तथ्यों और तर्कों पर आधारित एक बौद्धिक विमर्श अधिक था.

आरिफ मोहम्मद खान ने अपना यह भाषण एम.बनातवाला द्वारा प्रस्तुत एक गैर-सरकारी विधेयक के विरोध में 23 अगस्त 1985 को लोकसभा में दिया था. यह घटना, जिसे एक ऐतिहासिक घटना के रूप में लिया जाना चाहिए, सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के ठीक तीन महीने बाद घटी थी. मुझे लगता है कि कम से कम वर्तमान युवा पीढ़ी को तो यह भाषण अवश्‍य ही उपलब्ध कराया जाना चाहिए ताकि वह तीन बार तलाक तथा बहुविवाह जैसी परम्पराओं की सच्चाई को जान सके.

अपने इस उद्बोधन की शुरुआत आरिफ साहब ने देश के प्रथम शिक्षा मंत्री तथा इस्लामिक कानूनों के आधिकारिक विद्वान (तर्जमा उल कुरान के लेखक) मौलाना आजाद के विचारों से की थी. मौलाना आजाद ने लिखा था कि कुरान के अनुसार किसी भी हालत में तलाकशुदा औरत की उचित व्यवस्था की ही जानी चाहिए. यह निर्देश इस आधार पर दिया गया है कि पुरुष की तुलना में औरत कमजोर होती है और उसके हितों की रक्षा की जानी चाहिए. इसी मूल विचार को पकड़ते हुए आरिफ साहब ने कहा था कि हम दबे हुए लोगों को ऊपर उठाकर ही यह कह सकेंगे कि हमने इस्लामिक सिद्धांतों का पालन किया है, और उनके साथ न्याय किया है. उन्होंने कई उद्धरणों द्वारा सिद्ध किया कि दरअसल कुरान परिवार को बचाने की हरसंभव कोशिश करता है।

बहुविवाह के बारे में कुरान (24.32) में स्पष्ट निर्देश  हैं कि ‘विवाह उससे करो, जो अकेला हो.’ यह निर्देश स्त्री और पुरुष दोनों के लिए है. हां, किसी असामान्य स्थिति में इस निर्देश के बाहर जाया जा सकता है. इसके लिए वे एक घटना का हवाला भी देते हैं.

घटना कुछ यूं है कि जब मक्का ने मदीने पर हमला बोला, उस समय मोहम्मद साहब अपने 300 अनुयायियों के साथ विस्‍थापन (हिजरत) पर थे. इनमें से 73 से भी अधिक लोग मारे जा चुके थे. दरअसल, उन्होंने उस असाधारण स्थिति की बात इन लोगों के परिवारों की मदद के लिए कही थी.

आरिफ मोहम्मद ने बताया कि तीन बार तलाक की बात उतनी सही नहीं है. सच यह है कि मोहम्मद साहब के इंतकाल के कुछ सालों बाद जब तीन बार तलाक कहने को वैध बना दिया गया, तो उस समय इसको लागू करने वाले को 40 कोड़ों की सजा दी गई थी.

इन सबके साथ ही आरिफ साहब की यह बात काबिले गौर है, न केवल मुसलमानों के लिए ही, बल्कि सभी धर्मों और समुदायों के लिए कि ‘यदि तुम आगे नहीं बढ़ोगे, तो अल्लाह तुम्हें कड़ी सजा देंगे, और तुम्हारी जगह दूसरे लोगों को दे देंगे.’ (कुरान 9.39)

डॉ. विजय अग्रवाल वरिष्ठ टिप्पणीकार हैं...

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