आज़ादी का वह दौर, जब 'लोरी' भी देशभक्ति में डूबी होती थी...

आज़ादी का वह दौर, जब 'लोरी' भी देशभक्ति में डूबी होती थी...

प्रतीकात्मक चित्र

नई दिल्ली:

भारत अपनी आज़ादी की 68वीं वर्षगांठ मना रहा है और याद कर रहा है उन संघर्षों को, जिनके बूते देश को स्वतंत्रता हासिल हुई थी। यह ऐसा मौसम है, जब गली-मोहल्लों में एक हफ्ते पहले से ही लाउडस्पीकर पर आज़ादी के गाने और सोशल मीडिया पर वीर रस से लैस पोस्ट के जरिये लोगों के अंदर देशभक्ति की हवा भर जाती है। 

ज़रा सोचिए, अगर स्वंतत्रता आंदोलन के दौर में सूचना क्रांति होती तो आज़ादी की यह लड़ाई शायद थोड़ी आसान हो सकती थी, कोई फेसबुक पर फोटो अपडेट करता, कोई ट्विटर पर अंग्रजों के खिलाफ कोई शेर लिखता, तो कहीं वाट्सऐप के ग्रुप में किसी ट्रेन को लूटने की योजना बन रही होती।

लेकिन काश, सब कुछ इतना आसान होता। उस दौर में संचार की दिक्कतें थी, संदेश पहुंचाना इतना आसान नहीं था, उस पर अंग्रेजों की पैनी नज़र और सेंसरशिप। न कुछ बोल सकते थे, न कुछ छाप सकते थे। ऐसे में अंग्रेजों से लोहा लेने में देशभक्तों ने आज़ादी के तरानों का सहारा लिया, जो कभी प्रार्थना के रूप में, कभी वीर रस के रूप में भारतीयों की नसों में उबाल लाते रहे।

भारत को जनश्रुतियों का देश कहा जाता है, हमें पढ़ने से ज्यादा सुनने में मज़ा आता है और अगर वह गाने की शक्ल में हों तो बात ही कुछ ओर होती है। ऐसी कई और प्रार्थनाएं और तराने थे, जिसने आज़ादी की लड़ाई में जान फूंक दी, लेकिन इनके रचनाकारों के नाम कभी सामने नहीं आ पाए। ख़ास बात यह थी कि इन तरानों को समझ पाना अंग्रेजों के लिए थोड़ा मुश्किल ही था, इसलिए प्रभात फेरी निकाली जाने लगी, जिसकी गूंज के साथ आज़ादी की किरण फूटने लगी...

'उठो सोने वालों, सवेरा हुआ है, वतन के फक़ीरों का फेरा हुआ है।
चलो मोह की कालिमा धो रही है, न अब कौम कोई पड़ी सो रही है।
तुम्हें किसलिए मोह घेरा हुआ है, उठो सोने वालों, सवेरा हुआ है।'

अलग-अलग तरीके से अपनी बात सब तक पहुंचाने की कोशिश हर बार रंग नहीं लाती थी। अंग्रेज़ों के उस दौर में अपनी बात कह पाना इतना आसान नहीं था। ऐसे में साहित्यकारों ने अपने तरीके से लोगों तक बात पहुंचाने का बीड़ा उठाया। उन्होंने उपमाओं में बात करना शुरू की, यह वह तरीका था, जिस पर अंग्रेज बंदिश लगाने से पहले इसलिए सोचा करते थे, क्योंकि इसमें साहित्यिक पुट हुआ करता था। रज़ा नकवी के मांझी गीत में वही बात नज़र आती है...

'बादल भी चमकते हैं मांझी, बिजली भी चमकती है मांझी,
दाएं बाएं सन्नाटा है और रात अंधेरी है मांझी,
बुझता है मन का दिया मांझी,
हां, कश्ती तेज़ चला मांझी।'

यहां तक कि उस दौर में गाई जाने वाली लोरियां भी वीर रस से भरी होती थीं। अख़्तर शीरानी की ऐसी ही एक लोरी है, जिसकी लाइनें कुछ इस तरह हैं...

वतन और क़ौम की सौ जान से ख़िदमत करेगा यह,
ख़ुदा की और खु़दा के हुक्म की ख़िदमत करेगा यह,
हर अपने और पराये से सदा उल्फत करेगा यह,
हर इक पर मेहरबां होगा, मेरा नन्हा जवां होगा…

यही नहीं, आज के उलट उस वक्त के गानों के जरिये लोगों को जेल जाने के लिए प्रेरित भी किया जाता था, जैसे...

'सुनो गोशे-दिल से ज़रा ये तराने,
अनोखे निराले हैं जंगी फसाने,
कहीं शोरे-मातम, कहीं शादियाने,
इसी तरह कटते रहेंगे ज़माने,
करो थोड़ी हिम्मत, न ढूंढो बहाने,
चलो जेल खाने... चलो जेल खाने...'

इसके अलावा श्यामलाल गुप्त 'पार्षद' का 'विजयी विश्व तिरंगा प्यारा' को भुलाया नहीं जा सकता। जलियांवाला बाग़ और भगत सिंह की फांसी से जुड़ी संवेदनाओं को भी गीतों में पिरोया गया। ऐसा ही एक यादगार शेर से जुड़ा वाक्या है, जब अशफाक आर्य समाज मन्दिर (शाहजहांपुर) में बिस्मिल के पास किसी काम से गए हुए थे और जिगर मुरादाबादी की यह गज़ल गुनगुना रहे थे…

'कौन जाने ये तमन्ना इश्क की मंजिल में है। जो तमन्ना दिल से निकली फिर जो देखा दिल में है।'

बिस्मिल यह शेर सुनकर मुस्करा दिए तो अशफाक़ ने पूछ ही लिया, 'क्यों राम भाई! मैंने मिसरा कुछ गलत कह दिया क्या?' इस पर बिस्मिल ने जवाब दिया 'नहीं मेरे कृष्ण कन्हैया! यह बात नहीं। मैं जिगर साहब की बहुत इज्जत करता हूं, मगर उन्होंने मिर्ज़ा गालिब की पुरानी जमीन पर घिसा-पिटा शेर कहकर कौन-सा बड़ा तीर मार लिया। कोई नई रंगत देते तो मैं भी इरशाद कहता।'

अशफाक़ को बिस्मिल की यह बात जंची नहीं, उन्होंने चुनौती भरे लहजे में कहा, 'तो राम भाई! अब आप ही इसमें गिरह लगाइए, मान जाऊंगा, आपकी सोच जिगर और मिर्ज़ा गालिब से भी परले दर्जे की है।' उसी वक्त पण्डित रामप्रसाद 'बिस्मिल' ने यह शेर पढ़ा…

"सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है। देखना है ज़ोर कितना बाज़ू-ए-क़ातिल में है"

यह सुनते ही अशफाक़ उछल पड़े और बिस्मिल को गले लगाकर बोले, "राम भाई! मान गए, आप तो उस्तादों के भी उस्ताद हैं।' वैसे तो अशफाक़ ने इस गज़ल को कई बार पढ़ा है लेकिन इस बात को लेकर अभी भी संशय है कि इसे लिखा किसने है? समाचार वेबसाइट बीबीसी हिंदी में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक इसे लिखने वाले बिस्मिल अज़ीमाबादी हैं और ये काज़ी अब्दुल गफ़्फ़ार की पत्रिका ‘सबाह’ में 1922 में छपी थी जिसके बाद अंग्रेज़ों ने इस पर प्रतिबंध लगा दिया था।

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खैर इस पढ़ने वाले और लिखने वाले भले ही दो अलग अलग शख़्स हो लेकिन इसके बोल आज भी रोंगटे खड़े कर देते हैं, वो भी बगैर तारीख़ या दिन देखे...