एलआईसी में भर्तियों को लेकर सुप्रीम कोर्ट का अहम फैसला बुधवार को सामने आया है. सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि एलआईसी को बिना उचित प्रक्रिया के 11,000 कर्मचारियों को काम पर रखने का निर्देश नहीं दिया जा सकता. एलआईसी एक सार्वजनिक नियोक्ता है. सेवा में पिछले दरवाजे से प्रवेश की अनुमति देना सार्वजनिक सेवा के लिए अभिशाप है. सुप्रीम कोर्ट ने एलआईसी के पार्ट टाईम कर्मचारियों से संबंधित करीब चार दशक पुराने विवाद पर ये फैसला सुनाया है. सु्प्रीम कोर्ट का फैसला अंशकालिक कामगारों द्वारा आवेदनों के एक बैच पर आया. उन्होंने दावा किया है, कि 1985-1991 के बीच एलआईसी में काम किया था. लेकिन मानदंडों के अनुसार वो नियमित नहीं किए गए थे. कोर्ट ने कामगारों के दावों के नए सिरे से सत्यापन का निर्देश दिया.
नियुक्ति के बदले मुआवजा दिया जाए
सुप्रीम कोर्ट ने निर्देश दिया है कि जिन कामगारों के दावे वैध पाए जाएं, उन्हें नियुक्ति के बदले मुआवजा दिया जाना चाहिए और सभी दावों और मांगों का निपटान किया जाए. जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस विक्रम नाथ की बेंच ने फैसला सुनाते हुए कहा है कि उन कामगारों के दावों का सत्यापन किया जाए, जो 20 मई, 1985 और 4 मार्च, 1991 के बीच दो वर्षों की अवधि में तीन साल की अवधि में चतुर्थ श्रेणी के पदों पर कम से कम 70 दिनों या तृतीय श्रेणी के 85 दिनों के लिए कार्यरत थे.
सुप्रीम कोर्ट ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के पूर्व न्यायाधीश जस्टिस पी के एस बघेल और पूर्व जिला न्यायाधीश और यूपी उच्च न्यायिक सेवा के सदस्य राजीव शर्मा की एक समिति को सत्यापन के कार्य के लिए नियुक्त किया है. अदालत ने कहा, सभी व्यक्ति, जो मानदंड पर पात्र पाए गए, सेवा के प्रत्येक वर्ष या उसके हिस्से के लिए 50,000 रुपये की दर से मुआवजे के हकदार होंगे, मुआवजे का भुगतान बहाली के बदले में होगा.
कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि इस तरह के अवशोषण होने से पिछले दरवाजे से प्रवेश मिलेगा, जो सार्वजनिक रोजगार में समान अवसर और निष्पक्षता के सिद्धांत को नकारता है. एलआईसी एक वैधानिक निगम होने के लिए संविधान के अनुच्छेद 14 (समानता) और 16 (कोई भेदभाव नहीं) के जनादेश से बाध्य है. एक सार्वजनिक नियोक्ता के रूप में, निगम की भर्ती प्रक्रिया को निष्पक्ष और खुली प्रक्रिया के संवैधानिक मानक को पूरा करना चाहिए.
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