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This Article is From Jun 06, 2014

कूड़े के लिए किराए का बचपन

कूड़े के लिए किराए का बचपन
नई दिल्ली:

सड़कों पर कूड़ा उठाते बच्चों को देखकर पहली नजर में बाल मजदूरी का ख्याल आता है, लेकिन असल में कहानी बंधुआ मजदूरी से जुड़ी है। दरअसल, ये बच्चे परिवार से दूर ठेकेदारों के जरिये राजधानी में दाखिल होते हैं और बच्चों को लेकर काम करने वाले संगठनों का इशारा मानव तस्करी की ओर भी है। ऐसे बच्चों को महीने के हिसाब से तनख्वाह मिलती है और घर परिवार से दूर ये एक झुंड में किराए के कमरे में रह रहे हैं। कमरे का किराया भी ठेकेदार देते हैं। किसी ठेकेदार के पास 20− 25 बच्चे हैं तो किसी के पास 10−15।

हाथ में बोरी और कूड़े में काम की चीजें तलाशती नजर। ना गंदगी और बदबू से परेशानी और न ही झुलसाते सूरज की फिक्र। सड़कों पर कूड़ा चुनते ऐसे बच्चे आपको कहीं भी दिख जाएंगे, जो उनके लिए दिहाड़ी है। इन्हें देखकर पहली नजर में बाल मजदूरी का भ्रम जरूर  होता है, लेकिन धंधे की तह में जाएंगे तो बंधुआ मजदूरी की कहानी सामने आती है।

दरअसल 5 से 13 साल तक की उम्र के इन बच्चों को ठेकेदार बिहार, यूपी, पश्चिम बंगाल और असम से दिल्ली सप्लाई करते हैं। इनमें इनके गरीब और मजबूर मां−बाप की मंजूरी भी शामिल होती है। दिल्ली आते ही ये मासूम पैसे कमाने की मशीन बन जाते हैं और पैसे भी रोजाना नहीं मिलते कूड़े के वजन और उम्र के मुताबिक हिसाब महीने भर का होता है। बच्चों को दिल्ली लाने वाले ठेकेदारों का ठिकाना भी झुग्गियों में ही होता है। जिनको हामी भरने में थोड़ा भी परहेज नहीं कि उनके पास ऐसे बच्चे हैं।

सेव द चिल्ड्रेन के 2010 के सर्वे पर अगर गौर करें तो इसके मुताबिक, दिल्ली के हर 5 स्ट्रीट चिल्ड्रेन में एक बच्चा कूड़े के कारोबार में है। पूर्वी दिल्ली, उत्तर पूर्वी दिल्ली और पश्चिमी दिल्ली में हालात ज्यादा खराब हैं, जहां हर चार स्ट्रीट चिल्ड्रेन में एक बच्चा इस कारोबार से जुड़ा है। ऐसे तो दिल्ली में स्ट्रीट चिल्ड्रन की संख्या करीब 51 हजार है और कूड़े के कारोबार में करीब 10 हजार बच्चे शामिल हैं। राजधानी में कूड़े और कबाड़ का यह कारोबार करोड़ों का है, जिससे करीब डेढ़ लाख लोगों की रोजी-रोटी चलती है। बच्चों के लिए काम करने वाले बचपन बचाओ सरीखे संगठनों को इसकी खबर तो है ही, लेकिन उनकी मानें तो इस धंधे से मानव तस्करी और दूसरे कई तरह के गिरोह भी जुड़े हैं।

आंकड़े बताते हैं कि हर घंटे 7 बच्चे लापता होते हैं, जिनमें से तीन कभी नहीं मिलते और सालभर में यह आंकड़ा 50 हजार को पार कर जाता है। उधर, नेशनल कमीशन फॉर प्रोटेक्शन ऑफ चाइल्ड राइट्स की मानें तो उनके हाथ में अधिकार नहीं फिर भी ऐसे बच्चों को लेकर उन्होंने राज्य सरकारों को अपना सुझाव भेजा है। साथ ही स्ट्रीट टू स्कूल नाम से एक मुहिम भी चलाई है। डॉक्टरों की मानें तो गंदगी में रोजी रोटी तलाशते देश के भविष्य का वतर्मान भी खतरे में है। उन्हें खाने-पीने से लेकर ब्लड संक्रमण की बीमारी का भी खतरा रहता है।

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