यह ख़बर 11 जुलाई, 2014 को प्रकाशित हुई थी

प्राइम टाइम इंट्रो : प्रधानमंत्री को अपनी टीम चुनने का हक

नई दिल्ली:

नमस्कार.. मैं रवीश कुमार। किसी भी प्रधानमंत्री को अपने हिसाब से टीम बनाने की छूट होनी चाहिए। पूरी तरह से यह उनके विवेक पर निभर्र करता है कि किस व्यक्ति को वे किस काम के योग्य समझें। यहां तक किसी को भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रधान सचिव के मामले में एतराज़ नहीं होना चाहिए और विपक्ष ने अपनी प्रतिक्रिया में यह बात साफ-साफ कही भी।

अगर यह सिद्धांत रूप में सही बात है तो फिर प्रधानमंत्री को अपनी पसंद के प्रधान सचिव रखने में जो कुछ भी करना पड़े वह क्यों न करने दिया जाए? पर यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि सत्ता के शीर्ष पर बैठे ज़िम्मेदार लोग अपने हर फैसले से एक परिपाटी भी कायम करते हैं, जो सबके लिए समान रूप से लागू हो। क्या प्रधान सचिव नृपेंद्र मिश्रा के मामले में ऐसी परिपाटी बनी है?

नृपेंद्र मिश्रा की काबिलियत की दाद सब देते हैं। जिस उत्तर प्रदेश से उन्होंने आईएस की यात्रा शुरू की, वहां उनकी प्रशासनिक क्षमता की तारीफ में बोलने वाले कई लोग मिल जाएंगे। अपनी इसी साख की वजह से नृपेंद्र मिश्रा हर सरकार में ज़िम्मेदार पदों पर रहे हैं। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री कल्याण सिंह के मुख्य सचिव से लेकर केंद्रीय वित्त मंत्रालय में भी काम कर चुके हैं।

साल 2006 से लेकर 2009 तक टेलिकॉम रेगुलरेटरी अथॉरिटी ऑफ इंडिया यानी ट्राई के अध्यक्ष रहे हैं। 2 जी घोटाले के मामले में अहम गवाह भी हैं, जब ए राजा ने टेलिकॉम मंत्री रहते हुए पहले आओ,पहले पाओ की विवादित नीति शुरू की थी, तब नृपेंद्र मिश्रा ही चेयरमैन थे। ए राजा ने कहा था कि पहले आओ पहले पाओ की नीति की सलाह ट्राई ने दी थी। लेकिन नृपेंद्र मिश्रा ने कहा था कि यह गलत बात है और वे हमेशा निलामी के ज़रिये लाइसेंस दिए जाने की बात करते रहे हैं। इन्हीं के कायर्काल में थ्री जी स्पेक्ट्रम की कीमतें निर्धारित हुई थीं।

1967 बैच के आईएएस अधिकारी रहे हैं और ट्राई चेयरमैन बनने से पहले ही रिटायर हो चुके हैं। ट्राई एक नियामक संस्था है, जो टेलिकॉम कंपनियों और सरकार के बीच रेगुलेटर का काम करती है। इसका अध्यक्ष स्वतंत्र रहे और किसी प्रलोभन में न आए, इसलिए इस पद से रिटायर हुआ व्यक्ति केंद्र या राज्य सरकार में कोई पद नहीं ले सकता। लेकिन 26 मई को प्रधानमंत्री पद की शपथ लेने के दो दिन बाद 28 मई को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अध्यादेश जारी कर नृपेंद्र मिश्रा को अपना प्रधान सचिव नियुक्त कर दिया।

मिश्रा ट्राई के चेयरमैन पद से रिटायर होने के बाद कोई पद नहीं ले सकते थे। उसी नियम को बदलने के लिए पहले अध्यादेश जारी हुआ फिर आज कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने लोकसभा में एक बिल पेश किया और कहा कि यह फैसला मेरिट पर लिया गया है। नए बिल में कहा गया है कि ट्राई के पद से रिटायर होने वाला व्यक्ति अब दो साल तक सरकारी या टेलिकॉम कंपनी में कोई पद नहीं लेगा। पहले नियम था कि रिटायर होने के बाद कभी भी पद नहीं ले सकता, लेकिन अब दो साल के बाद ले सकता है। आप जानते हैं कि नृपेंद्र मिश्रा 2009 में रिटायर हुए थे। दो साल से ज्यादा बीत चुका है।

विपक्ष का कहना है कि टेलिकॉम रेगुलेटरी अथॉरिटी के चेयरमैन का पद बेहद संवेदनशील है। इसी तरह की व्यवस्था केंद्रीय सतर्कता आयोग कानून में भी है। भ्रष्टाचार पर निगरानी रखने की सबसे बड़ी एजेंसी का मुखिया भी रिटायर होने के बाद कोई सरकारी पद नहीं ले सकता है। कल कोई सरकार सीवीसी के चेयरमैन पद से रिटायर हुए व्यक्ति के लिए भी नया कानून ला सकती है और पद सौंप सकती है। इन पदों पर रहने वाले व्यक्ति को किसी भी प्रकार के प्रलोभन से दूर रखने का कवच समाप्त हो सकता है। इसलिए राज्यसभा से लेकर लोकसभा तक में विपक्ष के कई नेताओं ने सवाल किया कि एक अधिकारी के लिए अध्यादेश और फिर कानून क्यों बनाया जा रहा है?

अब मैं अपने मेहमानों से समझने का प्रयास करूंगा कि यूपीए कायर्काल में सोनिया गांधी के ऑफिस आफ प्रोफिट का विवाद हुआ था वो इसके समानांतर है या नहीं। इस विवाद का साल था 2006। इसमें कई सांसदों को ऑफिस ऑफ प्रोफिट से बचाने के लिए अध्यादेश लाया गया था। इनमें सोनिया गांधी और सोमनाथ चटर्जी भी थे। अध्यादेश में इनके द्वारा हासिल तमाम पदों को ऑफिस ऑफ प्रोफिट के दायरे से बाहर कर दिया गया। इसी तरह के मामले में जया बच्चन की सदस्यता समाप्त हो गई थी।

वहीं साल 2013 में उत्तराखंड कांग्रेस सरकार के मंत्री हरक सिंह रावत पर भी ऑफिस ऑफ प्रोफिट का मामला बना था। राज्य सरकार ने अध्यादेश के ज़रिये कई पदों को ऑफिस ऑफ प्रोफिट से बाहर कर दिया था। वहीं बीजेपी की मांग थी कि रावत की विधानसभा सदस्यता रद्द कर दी जाए।

सत्ता में आने के बाद से प्रधानमंत्री लगातार अपनी नौकरशाही को पेशेवर और बेहतर रूप देने की पहल और वकालत करते रहे हैं। उन्हें निर्भिक होकर काम करने और आइडिया साझा करने का हौसला दिलाते रहे हैं।

इसी क्रम में जब यूपीए सरकार के समय तैनात अधिकारियों को कुछ मंत्रियों ने अपने दफ्तर में नियुक्त करना चाहा, तो पीएमओ ने रोक लगा दी। इस पैमाने से काफी हड़कंप मच गया था, जब मोदी ने अपने पार्टी अध्यक्ष और गृहमंत्री राजनाथ सिंह के प्राइवेट सेक्रेट्री की फाइल रोक दी थी। इस तरह के झटके कई वरिष्ठ मंत्रियों को भी लगे, लेकिन अच्छी बात रही कि किसी भी मंत्री ने विरोध नहीं किया। सबने एक पेशेवर टीम बनाने की दिशा में सहमति जताई।

मगर अखबारों में ऐसा लिखा गया कि नृपेंद्र मिश्रा भी तो मनमोहन सिंह के कायर्काल के समय ट्राई के चेयरमैन बने थे। इसी तरह से मनमोहन सरकार के एक और अधिकारी को मोदी ने अपना निजी सचिव रख लिया। मनमोहन सरकार के कार्यकाल में नियुक्त हुए कैबिनेट सचिव अजित सेठ को छह महीने और पीएमओ में सचिव रहे आर रामानुजम को भी तीन महीने का सेवा विस्तार दिया गया। पीएमओ में एक अधिकारी की नियुक्ति के सार्वजनिक सूचना जारी होती है और अगले दिन रद्द कर दी जाती है।

मंत्रियों के मातहत काम करने वाले अधिकारियों का पैमाना क्या होगा यह पीएमओ तय करता है, मगर खुद पीएम अपने लिए गुजरात काडर से अधिकारी ले आते हैं। इस बात को ध्यान में रखना चाहिए कि प्रधानमंत्री जब अपनी टीम नहीं बना सकते, तो कौन बना सकता है?

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17 साल तक टीआरएआई का यह कानून एनडीए से लेकर यूपीए की दो सरकारों तक जारी रहा। किसी ने इस प्रावधान को बदलने की जरूरत नहीं समझी। क्या विपक्ष सही सवाल उठा रहा है कि एक अधिकारी के लिए कानून बनाया जा रहा है। ट्राई जैसी स्वायत्त संस्था से छेड़छाड़ की जा रही है, जिसकी स्वायत्त भूमिका 2 जी मामले में काफी देखी गई थी। यह बिल मोदी सरकार का सदन के भीतर शक्ति परीक्षण का पहला इम्तहान भी है। राज्य सभा में बीजेपी या एनडीए के पास बहुमत नहीं है, अभी कहना मुश्किल होगा कि सरकार नहीं जुटा पाएगी, मगर हर हाल में 14 अगस्त को इस बिल को पास कराना ही होगा।