यह ख़बर 17 जून, 2014 को प्रकाशित हुई थी

प्राइम टाइम इंट्रो : राज्यपालों के मुद्दे पर चर्चा सरगर्म

नई दिल्ली:

नमस्कार मैं रवीश कुमार! संवैधानिक और लोकतांत्रिक संस्थाओं के संदर्भ में ऐसी घटनाएं होती रहनी चाहिए, जिससे हम उसकी विकास यात्रा, भूमिका, गरिमा और स्वतंत्रता को लेकर गंभीर हो सके और लगे कि लोकतंत्र में वोटर होना ही एकमात्र नागरिक दायित्व नहीं है। संवैधानिक संस्थाओं के प्रति समझ भी हमारी सामान्य राजनीतिक चेतना का हिस्सा होना चाहिए।

हो सकता है कि आपमें से कई राज्यपाल की संस्था की बारे में सोचते ही न हो और सोचते भी हो तो अखबारों में छपे उन सीमित संद्रर्भों में कि राज्यपाल ने किसी डाक टिकट का विमोचन किया है या वाइस चांसलरों से मुलाकात की है या विधानसभा द्वारा पारित किसी बिल पर दस्तखत कर दिया है। विवाद तो इस पर भी होना चाहिए कि किसे राज्यपाल बनाया जाए, मगर आज हंगामा हटाने के तरीके को लेकर है।

आज जानते हैं कि अचानक से वही गुमनाम परंतु विश्वसनीय सूत्र पत्रकारों से सरगोशियां करने लगे कि कई राज्यपालों से कह दिया गया है कि आप इस्तीफा दे दें। सूत्रों ने केंद्रीय गृह सचिव को इन राज्यपालों को फोन करते सुन लिया। दरअसल ऐसी खबरें सूत्रों से ही आती हैं। साल चाहे 1960 का हो या 2014 का। पहले ब्रेकिंग न्यूज के तहत कई राज्यपालों के इस्तीफा देने की खबर चली। फिर इनमें से कइयों के खंडन आ गए।

उत्तर प्रदेश के राज्यपाल बी एल जोशी के इस्तीफे की खबर सही निकली। जे बी पटनायक और हंसराज भारद्वाज ने खंडन कर दिया। शीला दीक्षित के बारे में खबर उड़ी कि उन्होंने इस्तीफा देने से मना कर दिया है, लेकिन औपचारिक बयान यही आया कि आई डोंट नो।

मगर उनके बेटे संदीप दीक्षित से हमारे सहयोगी संदीप फूकन ने सवाल किया कि खबर है कि गृह सचिव ने कई राज्यपालों को इस्तीफे के लिए फोन किया है तो आई डोंट नो कहने की बजाय संदीप दीक्षित कहते हैं कि यह दुर्भाग्यपूर्ण है। गृह सचिव कौन होता है? राज्यपाल संवैधानिक पद है। मेरी राय में गृह मंत्री या प्रधानमंत्री को फोन करना चाहिए था। कोई सिस्टम होना चाहिए। कल को डीएसपी फोन करने लगेगा कि आप इस्तीफा दें।

अब कांग्रेस से सवाल पूछता कि आपने अपने समय में क्या सिस्टम बनाया, मगर उनका कोई प्रवक्ता शो में आने को राज़ी ही नहीं हुआ। वैसे बीजेपी के नेता भी औपचारिक रूप से नहीं बता रहे कि ऐसा हुआ या नहीं। रविशंकर प्रसाद से संवाददाता पूछते रहे मगर उन्होंने कहा कि आज वह आईटी मंत्री के रूप में अपनी प्राथमिकता बता रहे हैं। लेकिन यह खबर भी साथ ही साथ फ्लैश होती रही कि किन किन बीजेपी नेताओं के नाम राज्यपाल की सूची में आ गए हैं।

क्या भारतीय राजनीति में संस्थाओं के सवाल को हमेशा इस आधार पर समझा जाएगा कि जो कांग्रेस ने किया, वही बीजेपी को भी करना चाहिए। वैसे इस मामले में जनता पार्टी की सरकार से लेकर कांग्रेस, वीपी सिंह और एनडीए सरकार सबका रिकॉर्ड एक जैसा ही है। अगर आप संविधान की किसी किताब के आस पास हैं तो राज्यपाल की नियुक्ति या हटाने के संदर्भ में आर्टिकल 153 से लेकर आर्टिकल 156 तक पढ़ सकते हैं।

मैं यहां 2010 के सुप्रीम कोर्ट की राय का जिक्र करना चाहता हूं, जिसे बीजेपी नेता दिवंगत बीपी सिंघल साहब ने यूपीए सरकार के आते ही चार राज्यपालों के हटाने के तरीके का विरोध करते हुए दायर किया था। उनका कहना था कि राज्यपाल को हटाने के मामले में राष्ट्रपति का अधिकार अंतिम और बेरोकटोक नहीं होना चाहिए। इस फैसले में राज्यपाल को लेकर कई प्रसंग हैं।

- राज्यपाल राष्ट्रपति की कृपा रहने के दौरान अपने पद पर बना रह सकता है।
- राष्ट्रपति किसी भी समय वजह बताए बिना या कारण बताने का मौका दिए बिना राज्यपाल को पद से हटा सकता है।
- लेकिन राष्ट्रपति कि इस शक्ति का मनमाने ढंग स्वेच्छाचारिता या अविवेकपूर्ण तरीके से इस्तेमाल नहीं किया जा सकता।

लेकिन यूपीए सरकार के अटार्नी जनरल ने कहा था कि लोकतंत्र में राजनीतिक पार्टी किसी खास विचारधारा के आधार पर चुनाव जीतकर सत्ता में आती है और उसे लगता है कि राज्यपाल उसकी विचारधारा या नीतियों के प्रति अनुकूल सोच नहीं रखते हैं तो वह उन्हें हटा सकने की स्थिति में होनी चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने इस तर्क को खारिज कर दिया कि राज्यपाल का काम सरकार की नीतियों को लागू करना नहीं है। बल्कि 2010 के फैसले में अदालत राष्ट्रपति की कृपा प्लेज़र ऑफ प्रेसिडेंट के उद्गम का पता लगाते हुए कहती है, जिसका सार रूप यह है कि यह प्रावधान इंग्लैंड के सामंती दौर की देन है। लोकतंत्र में जहां कानून का राज चलता है, वहां कृपा का सिद्धांत सामंती ढांचे से अलग होता है। लोकतंत्र में किसी मनमानी की जगह नहीं है।

रामेश्वर प्रसाद बनाम यूनियन ऑफ इंडिया 2006 मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि राज्यपाल को केंद्र सरकार से स्वतंत्र होना चाहिए। 2010 के फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा है कि राज्यपाल केंद्र सरकार का कमर्चारी भी नहीं है, न ही सत्तारूढ़ दल का एजेंट है। वह भले राजनीतिक पृष्ठभूमि से आ सकता है, मगर राज्यपाल बनने के बाद उसकी निष्ठा संविधान के प्रति होती है। यह बात भी खारिज योग्य है कि अगर केंद्र सरकार को भरोसा न रहे तो राज्यपाल को हटाया जा सकता है।

इस फैसले में संवैधानिक पीठ ने एक अमरीकी जज जस्टिस होम्स के उद्धरण को कोट किया है, 'संविधान के प्रावधान गणित का फार्मूला नहीं है। वे आर्गेनिक हैं। जीवंत संस्थाएं हैं। हम इसके महत्व को महज शब्द या शब्दकोष से नहीं समझ सकते, इसे समझने के लिए इनके उद्गम और विकास मार्ग को भी देखना चाहिए।

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यह भी होता रहा है कि कोई सीबीआई के निदेशक पद से रिटायर होते ही अगले महीने राज्यपाल बन जाता है। अतीत में हटाने के तरीके भी विवादास्पद रहे हैं और खुद राज्यपालों के कई फैसले भी राजनीतिक रहे हैं। पर्याप्त आधिकारिक और औपचारिक सूचनाओं के अभाव के बावजूद क्या हम इस सवाल से टकरा सकते हैं कि इक्कीसवीं सदी के लोकतंत्र में क्या राज्यपाल की संस्था के साथ वैसे ही बर्ताव होना चाहिए, जैसा बीसवीं सदी के आधे हिस्से में होता रहा है। क्या राज्यपाल को हटाने का कारण नहीं बताना चाहिए। दुरुपयोग के इतिहास से सबक लेते हुए राष्ट्रपति की कृपा के प्रावधान को ही हटा देने पर विचार करने का साहस क्यों नहीं दिखाते हम?