यह ख़बर 06 अगस्त, 2014 को प्रकाशित हुई थी

प्राइम टाइम इंट्रो : बिना अंग्रेज़ी जाने क्या आई ए एस बन सकते हैं?

फाइल फोटो

नई दिल्ली:

नमस्कार मैं रवीश कुमार। बिना अंग्रेज़ी का टेस्ट दिए आप हिन्दी का पत्रकार नहीं बन सकते। सच तो यही है, लेकिन हिन्दी का यह पत्रकार प्राइम टाइम में तीसरी बार बहस करने जा रहा है कि बिना अंग्रेज़ी जाने क्या आई ए एस बन सकते हैं।

दरअसल भाषा को लेकर कोई भी बहस इसी तरह के अंतर्विरोध में फंसा देती है। आप वहीं पहुंच जाते हैं जहां इसके सवाल पर हिन्दुस्तान ने 4 नवंबर 1948 में चलना शुरू किया था। इसी दिन संविधान सभा में बहस शुरू हुई थी कि हमारी राष्ट्रभाषा क्या हो।

बात शुरू हुई कि हिन्दी हो तो बहस इसमें उलझती चली गई कि कौन सी हिन्दी हो। इमाम हुसैन कहते हैं कि गांधी और पटेल वाली हिन्दुस्तानी हो। ज्ञानी गुरुमुख सिंह मुसाफ़िर कहते हैं कि हिन्दुस्तानी हो मगर सरल हो। मैंने विधान के हिन्दी और उर्दू अनुवाद देखें हैं। हिन्दी की हामी भरने वालों से मतलब पूछा तो वे भी हिन्दी के अनुवाद का मतलब नहीं समझा सके। वक्त ने कुछ सीखा होता तो 2014 में इसी बात पर छात्र धरने पर नहीं बैठते कि स्टील प्लांट का अनुवाद लोहे का पौधा कैसे हो गया। कोई दक्षिण से हिन्दुस्तानी का समर्थन कर रहा था तो कोई उत्तर से ही हिन्दी के थोपे जाने का विरोध।

जयपाल सिंह ने आदवासियों की भाषा का भी सवाल उठा दिया तो सैयद करीमुद्दीन ने कहा कि राष्ट्रभाषा संविधान सभा नहीं, चुनी हुई संसद तय करे। किसी ने कहा कि बांग्ला को राजभाषा बनाना चाहिए।

जवाहरलाल नेहरू कहते हैं कि अगर हम भाषा बदलने के लिए तुरंत ज़ोर देंगे तो असंख्य मतभेदों में फंस जाएंगे। सेंट स्टीफेंस कालेज के राजीव रंजन गिरि ने संविधान सभा और भाषा विमर्श नाम से एक पुस्तिका लिखी है उसी से मैंने यह सब उठाया है।
कुल मिलाकर यही नतीजा निकला कि हिन्दी राजभाषा होगी और अगले पंद्रह साल तक अंग्रेज़ी सहयोगी रहेगी। लेकिन पैंसठ में हिन्दी विरोध की ज्वाला भड़की तो नेहरु ने बयान दिया कि जब तक एक आदमी भी हिन्दी के विरोध में होगा हम हिन्दी को लागू नहीं करेंगे। आज अंग्रेजी बॉस है और हिन्दी एक सहयोगी।

कई बार वर्तमान इतिहास जैसा ही होता है, मगर वर्तमान के पास होशियारी के नए मौके होते हैं इसलिए वो कुछ नया भी दिखता है। आज राज्यसभा में जब दलों के नेताओ को दो−दो मिनट बोलने के लिए कहा गया तो वैसी ही चिन्ताएं सवाल और राजनीतिक पेशबंदी दिखी।

शरद यादव कहते हैं कि अंग्रेजी हटाने की तो मांग नहीं थी। सी-सैट का पेपर क्वालिफाइंग कर दीजिए। रामगोपाल यादव कहते हैं कि सी-सैट का दूसरा पेपर ही समाप्त कर दिया जाए।

कांग्रेस नेता प्रमोद तिवारी ने कहा कि लोक सेवा आयोग की परीक्षाओं में कई वर्षों से भारतीय भाषाओं के प्रतियोगियों की संख्या घटती जा रही है। जिन भाषाओं को 95 फीसदी आबादी बोलती है उनका प्रतिशत सिर्फ 5 से 6 प्रतिशत है। बीएसपी के सतीश मिश्र ने कहा कि 24 को इम्तिहान है और सरकार एक मिड टर्म फॉर्मूला निकाल रही है। अगले साल दूसरा फॉर्मूला निकालेगी। 90 दिन बहुत होते हैं किसी सरकार को निर्णय करने के लिए।

कोई सी-सैट को हटाने की मांग कर रहा था तो कोई क्वालिफाइंग बनाने की। तृणमूल कांग्रेस के डेरेक ओ ब्रायन ने कहा कि इस मामले का राजनीतिकरण मत कीजिए और न ही छह दिनों के भीतर निपटाने का प्रयास कीजिए। डेरेक का कहना था कि मेन्स परीक्षा के लिए आठवीं अनुसूची की 22 भाषाओं में पर्चा दे सकते हैं। यही सुविधा प्रीलिम्स के लिए भी हो। सी सैट बहुत अच्छा है, लेकिन विवाद है तो सरकार भरोसा दे कि वो आगे भी इस पर विचार विमर्श करेगी और शीतकालीन सत्र तक कुछ ठोस प्रस्ताव लेकर आएगी।

अन्ना द्रमुक केवी मैत्रेयन ने कहा कि तमिल छात्रों को प्रीलिम्स परीक्षा तमिल या अंग्रेजी में देने की छूट मिले। डीएमके सांसद कनिमोई ने कहा कि चालीस प्रतिशत आबादी हिन्दी अंग्रेजी नहीं समझती। प्रीलिम्स की परीक्षा सिर्फ भाषा की जांच करती है और इसी के आधार पर भेदभाव करती है।

सीपीआई के डी राजा कहा कि 24 जुलाई के इम्तिहान के लिए ही प्रश्न पत्र 22 भाषाओं में उपलब्ध होना चाहिए। ये सब भारतीय भाषा हैं। क्षेत्रीय भाषा नहीं। हिन्दी भी प्रांतीय भाषा है। बीजेपी के वीपी सिंह बदनोरे ने कहा कि 22 भाषाओं में नेपाली भी शामिल हैं तो क्या हम नेपाल के लोगों को भी इस परीक्षा में शामिल करेंगे। राजस्थानी में ये इम्तिहान क्यों नहीं होते जिसे दस करोड़ लोग बोलते हैं। सरकार ने कहा कि सर्वदलीय बैठक बुलाएगी।

1948 में हम जो हासिल न कर सके उसे 2014 ने दूसरे तरीके से हासिल कर लिया। कम से कम भारतीय भाषाएं अपने हितों की बात कर रही हैं और आज इन सबके हित अंग्रेजी से टकरा रहे हैं। भारतीय भाषाएं बनाम हिन्दी नहीं है। बल्कि हिन्दी भी भारतीय भाषाओं के साथ अंग्रेजी से लड़ रही है। भाषाओं की ऐसी एकता आपने कब देखी।

आज सारी भाषाएं ऑस्ट्रेलिया के इन यात्रियों की तरह मिलकर मेट्रो ट्रेन को झुका रही हैं ताकि प्लेटफॉर्म और मेट्रो के बीच फंसे यात्री की टांग निकाली जा सके। एक ट्रेन को झुकाने का ऐसा मानवीय नज़ारा आपने कब देखा था। आपने कब देखा था कि तमिल, तेलुगू, बांग्ला, हिन्दी सब मिलकर अंग्रेजी की मेट्रो में फंसी भाषाओं की टांग निकाल रहे हों।

बात सिर्फ भाषा की राजनीति की नहीं है। इसकी उपयोगिता और रोजगार की संभावना की भी है। पूर्व नौकरशाह भाषा नहीं बल्कि आज की ज़रूरत के हिसाब से इस बहस को देख रहे हैं। अमरीका में भारत के राजदूत रहे नरेश चंद्रा कहते हैं कि क्लास वन अफसर को अंग्रेजी आनी चाहिए। इंग्लिश कंप्रीहैंशन के सवाल सेकेंड या थर्ड डिविजन से पास दसवीं का छात्र भी हल कर सकता है।

नागालैंड मिज़ोरम और मेघालय में तो अंग्रेजी ही आधिकारिक भाषा है। सरकार को समझाना चाहिए था कि अंग्रेजी ज़रूरी है। उम्मीदवारों को मुफ्त में अंग्रेजी की कोचिंग देनी चाहिए।

आज अंग्रेजी पटरी से लेकर गली मोहल्ले में तीन सौ से लेकर पंद्रह सौ रुपये महीने में सिखायी जाती है। चंद्रा कहते हैं कि सी सैट के ज़रिये हम ऐसे प्रशासक की तलाश कर रहे हैं जो सोच सके विश्लेषण कर सके। समाजशास्त्री दीपांकर गुप्ता कहते हैं कि आज अंग्रेजी एक और भाषा है। उनके कहने का मतलब है कि आज की अंग्रेजी को आप ब्रिटिश हुकूमत के लाट साहबों की अंग्रेजी न समझें।

टाइम्स ऑफ इंडिया की रिपोर्ट में पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एन गोपालस्वामी का बयान छपा है कि अंग्रेजी का नंबर हटा देने से उन छात्रों को मदद मिल सकती है जिनकी शिक्षा भाषाई स्कूलों में हुई है। आप चयन के बाद अंग्रेजी सीखा सकते हैं।

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सी सैट भाषा को लेकर अफसर भी एक नहीं हैं। नेता भी एक नहीं हैं। अंग्रेजी के इस युग में जहां हिन्दी वालों के बच्चे भी इंग्लिश मीडियम स्कूलों में पढ़ते हैं क्या हम वाकई इस निष्कर्ष पर पहुंच पाएंगे कि अंग्रेजी और एप्टीटूड ही बेहतर अफसर चुनने की गारंटी देता है। प्राइम टाइम...