विदर्भ के बाद अब मराठवाड़ा के किसान सूखे की मार झेल रहे हैं
महाराष्ट्र का मराठवाड़ा इस समय भयंकर सूखे की चपेट में है। किसानों के खेत सूख चुके हैं और आलम ये हैं कि पशुओं तक को खिलाने के लिए उनके पास चारा नहीं है। किसानों की मांग है कि प्रधानमंत्री खुद आएं और इन हालातों को देखें। सरकार से नाराज़ इन किसानों में से अधिकतर अब नए कामों की तलाश में शहरों का रुख कर रहे हैं लेकिन बावजूद इसके कई ऐसे भी हैं जो इन हालातों में अपने खेतों को इस उम्मीद से जोत रहे हैं कि बारिश होगी और उनके दिन बदलेंगे।
ऐसी ही एक उम्मीद लगा कर बैठे हैं तुकाराम घमरे जिनके पास कुछ नहीं बचा है। वक्त यूं ही पत्थर बीनते गुजर जाता है, 64 साल के इस किसान के पास कहने को सिर्फ एक गाय है और वो हर दिन प्रार्थना करता है कि वो कैसे भी करके जिंदा रह जाये। इस सूखे के आलम में उम्मीद सिर्फ कुएं हैं, इस पूरे इलाके में इतने कुंएं खोदे गये हैं कि हर दिन जलस्तर नीचे जाता जा रहा है। लाखों रुपये खर्च करके पीने के लिये पानी मिलता है।
तुकाराम और उसके साथी किसान सियासत और सूखे को लेकर अंदर तक भरे हुए हैं। एक परेशान किसान ने बातों बातों में कहा 'मुझे 12 हजार में अपने बैल बेचने पड़ गए हैं। मुझे खुदकुशी कर लेने दो।' किसानों की बदहाली के बीच अब शराब भी समस्या बन गई है जो अपने पैर इस इलाके में भी पसार रही है। इस मायूसी भरे आलम में कुछ ऐसे भी है जो जोखिम उठा रहे हैं, कोशिश कर रहे हैं कि कुछ करने की जैसे गणेश पवार जो इन दिनों प्याज़ बो रहे हैं। लेकिन इस भयानक सूखे में प्याज़? गणेश का जवाब था उम्मीद पर दुनिया कायम है, हम और कर भी क्या सकते हैं।
उधर तुकाराम ने इसके पहले भी सूखे देखे हैं लेकिन उनके मुताबिक 1972 से ज्यादा सूखा तो मराठवाड़ा अब देख रहा है। तुकाराम और उनके जैसे कई किसानों की उम्मीदें अब बस प्रधानमंत्री पर ही टिकी हैं, वह चाहते हैं कि कम से कम प्रधानमंत्री तो उनके दर्द को समझे। बदतर सूखा और खराब फसल ने पूरे गांव के गांवों को शहरों की ओर ढकेल दिया है। सियासी पार्टियों की नूरा कुश्ती के बीच बदहाल किसानों की खुदकुशी बढ़ रही है। यहां हर महीने आत्महत्या के 69 मामले दर्ज हो रहे हैं। 814 बांधों में सिर्फ 7 फीसदी पानी बचा है।
किसानों का यही दर्द पहले विदर्भ इलाके में था, अब ये मराठवाड़ा तक पहुंच गया है। दोनों जगहों पर मौत को गले लगाने के कारण और तरीके एक से हैं। कर्ज के तले दबे किसानों के पास अब सिर्फ दो ही रास्ते हैं ...या तो मौत या फिर अपनी ज़मीन छोड़ शहर की ओर पलायन।
ऐसी ही एक उम्मीद लगा कर बैठे हैं तुकाराम घमरे जिनके पास कुछ नहीं बचा है। वक्त यूं ही पत्थर बीनते गुजर जाता है, 64 साल के इस किसान के पास कहने को सिर्फ एक गाय है और वो हर दिन प्रार्थना करता है कि वो कैसे भी करके जिंदा रह जाये। इस सूखे के आलम में उम्मीद सिर्फ कुएं हैं, इस पूरे इलाके में इतने कुंएं खोदे गये हैं कि हर दिन जलस्तर नीचे जाता जा रहा है। लाखों रुपये खर्च करके पीने के लिये पानी मिलता है।
तुकाराम और उसके साथी किसान सियासत और सूखे को लेकर अंदर तक भरे हुए हैं। एक परेशान किसान ने बातों बातों में कहा 'मुझे 12 हजार में अपने बैल बेचने पड़ गए हैं। मुझे खुदकुशी कर लेने दो।' किसानों की बदहाली के बीच अब शराब भी समस्या बन गई है जो अपने पैर इस इलाके में भी पसार रही है। इस मायूसी भरे आलम में कुछ ऐसे भी है जो जोखिम उठा रहे हैं, कोशिश कर रहे हैं कि कुछ करने की जैसे गणेश पवार जो इन दिनों प्याज़ बो रहे हैं। लेकिन इस भयानक सूखे में प्याज़? गणेश का जवाब था उम्मीद पर दुनिया कायम है, हम और कर भी क्या सकते हैं।
उधर तुकाराम ने इसके पहले भी सूखे देखे हैं लेकिन उनके मुताबिक 1972 से ज्यादा सूखा तो मराठवाड़ा अब देख रहा है। तुकाराम और उनके जैसे कई किसानों की उम्मीदें अब बस प्रधानमंत्री पर ही टिकी हैं, वह चाहते हैं कि कम से कम प्रधानमंत्री तो उनके दर्द को समझे। बदतर सूखा और खराब फसल ने पूरे गांव के गांवों को शहरों की ओर ढकेल दिया है। सियासी पार्टियों की नूरा कुश्ती के बीच बदहाल किसानों की खुदकुशी बढ़ रही है। यहां हर महीने आत्महत्या के 69 मामले दर्ज हो रहे हैं। 814 बांधों में सिर्फ 7 फीसदी पानी बचा है।
किसानों का यही दर्द पहले विदर्भ इलाके में था, अब ये मराठवाड़ा तक पहुंच गया है। दोनों जगहों पर मौत को गले लगाने के कारण और तरीके एक से हैं। कर्ज के तले दबे किसानों के पास अब सिर्फ दो ही रास्ते हैं ...या तो मौत या फिर अपनी ज़मीन छोड़ शहर की ओर पलायन।
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