एमएम कलबुर्गी की गोली मारकर हत्या कर दी गई (फाइल फोटो)
मैंगलोर:
पिछले दिनों कन्नड़ विद्वान एमएम कलबुर्गी की गोली मारकर हत्या कर दी गई जिसके बाद कर्नाटक में लोगों ने विरोध प्रदर्शन किया और आरोपियों को जल्द से जल्द पकड़ने के लिए आवाज़ उठने लगी। इस हत्या के पीछे परंपरागत धार्मिक कट्टरपंथ के खिलाफ कलबुर्गी की लड़ाई को भी एक वजह बताया जा रहा है।
लेकिन कुछ का कहना है कि कलबुर्गी के मतभेदों का इस हत्या से कोई लेना देना नहीं हो सकता। ऐसा इसलिए क्योंकि धार्मिक अंधविश्ववास पर कलबुर्गी के बयानों को करीब एक साल से ज्यादा हो गया। उस वक्त हिंदुत्व संगठनों ने कलबुर्गी के खिलाफ नाराज़गी भी जताई थी। लेकिन लिंगायत समाज से ताल्लुक रखने वाले कलबुर्गी के अपने ही बिरादरी से वैचिरक मतभेद तो इससे भी पुराने हैं।
लेकिन कुछ संकेत ऐसे मिले हैं जिससे लगता है कि कलबुर्गी ने आखिरी सांस तक धार्मिक कट्टरपंथ पर बोलना बंद नहीं किया था। एनडीटीवी ने कलबुर्गी के आखिरी प्रकाशित लेख की समीक्षा की जो अगस्त के महीने में ही लिंगायत अकादमी पत्रिका बसावा पथा में छपा था। इस लेख में कलबुर्गी इस नतीजे पर पहुंचे थे कि लिंगायत ब्राह्मण हमेशा जात और वैदिक शिक्षा को अहमियत देते हैं जबकि इस समाज की स्थापना करने वाले बसावा ने एक जातिहीन समाज की कल्पना की थी।
समय समय पर कलबुर्गी, लिंगायत समाज की गतिविधियों के खिलाफ अपनी राय रख रहे थे जिसकी वजह से वह कई लोगों के निशाने पर थे। कर्नाटक कॉलेज, धरवाड़ के रिटायर्ड प्रोफेसर डॉ सिद्धलिंग पाट्टनशेट्टी ने एनडीटीवी से बातचीत में कहा 'उनके घर पर लोग पत्थर मारते थे और धमकियां देते थे। वह तीन हफ्ते तक घर से बाहर नहीं निकले थे। ऐसा लगता था जैसे वो नहीं बचेंगे। इसके बाद उनके साथी उन्हें लिंगायत के पूजा स्थल में लेकर गए जहां उनसे ज़बरदस्ती माफी मंगवाई गई।'
हालांकि कुछ समय से लिंगायत समाज पर टिप्पणी करने के बाद कलबुर्गी को स्पष्टिकरण भी देना पड़ रहा था। उनके लेख छापने वाली एक पत्रिका कन्नड़ प्रभा की देखरेख करने वाले सुजाता श्रीनिवासराजू ने एनडीटीवी से कहा 'उन्होंने मेरे दफ्तर में बैठकर लिखित स्पष्टिकरण दिया था। जिस तरह वह सफाई दे रहे थे, उससे तो यही लग रहा था कि उन्हें आने वाले खतरे का एहसास हो गया था। उन्होंने यह भी कहा था कि पिछले दो-तीन सालों से ज्यादा विवादों में घिरे रहने की वजह से उनका जीवनकाल पांच साल कम हो गया है।'
लेकिन कुछ का कहना है कि कलबुर्गी के मतभेदों का इस हत्या से कोई लेना देना नहीं हो सकता। ऐसा इसलिए क्योंकि धार्मिक अंधविश्ववास पर कलबुर्गी के बयानों को करीब एक साल से ज्यादा हो गया। उस वक्त हिंदुत्व संगठनों ने कलबुर्गी के खिलाफ नाराज़गी भी जताई थी। लेकिन लिंगायत समाज से ताल्लुक रखने वाले कलबुर्गी के अपने ही बिरादरी से वैचिरक मतभेद तो इससे भी पुराने हैं।
लेकिन कुछ संकेत ऐसे मिले हैं जिससे लगता है कि कलबुर्गी ने आखिरी सांस तक धार्मिक कट्टरपंथ पर बोलना बंद नहीं किया था। एनडीटीवी ने कलबुर्गी के आखिरी प्रकाशित लेख की समीक्षा की जो अगस्त के महीने में ही लिंगायत अकादमी पत्रिका बसावा पथा में छपा था। इस लेख में कलबुर्गी इस नतीजे पर पहुंचे थे कि लिंगायत ब्राह्मण हमेशा जात और वैदिक शिक्षा को अहमियत देते हैं जबकि इस समाज की स्थापना करने वाले बसावा ने एक जातिहीन समाज की कल्पना की थी।
समय समय पर कलबुर्गी, लिंगायत समाज की गतिविधियों के खिलाफ अपनी राय रख रहे थे जिसकी वजह से वह कई लोगों के निशाने पर थे। कर्नाटक कॉलेज, धरवाड़ के रिटायर्ड प्रोफेसर डॉ सिद्धलिंग पाट्टनशेट्टी ने एनडीटीवी से बातचीत में कहा 'उनके घर पर लोग पत्थर मारते थे और धमकियां देते थे। वह तीन हफ्ते तक घर से बाहर नहीं निकले थे। ऐसा लगता था जैसे वो नहीं बचेंगे। इसके बाद उनके साथी उन्हें लिंगायत के पूजा स्थल में लेकर गए जहां उनसे ज़बरदस्ती माफी मंगवाई गई।'
हालांकि कुछ समय से लिंगायत समाज पर टिप्पणी करने के बाद कलबुर्गी को स्पष्टिकरण भी देना पड़ रहा था। उनके लेख छापने वाली एक पत्रिका कन्नड़ प्रभा की देखरेख करने वाले सुजाता श्रीनिवासराजू ने एनडीटीवी से कहा 'उन्होंने मेरे दफ्तर में बैठकर लिखित स्पष्टिकरण दिया था। जिस तरह वह सफाई दे रहे थे, उससे तो यही लग रहा था कि उन्हें आने वाले खतरे का एहसास हो गया था। उन्होंने यह भी कहा था कि पिछले दो-तीन सालों से ज्यादा विवादों में घिरे रहने की वजह से उनका जीवनकाल पांच साल कम हो गया है।'
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