यह ख़बर 08 दिसंबर, 2014 को प्रकाशित हुई थी

मणि-वार्ता : पाकिस्तान के साथ बातचीत की ज़रूरत है, तत्काल...

मणिशंकर अय्यर कांग्रेस की ओर से राज्यसभा सदस्य हैं...

अगर भारत और पाकिस्तान के आपसी संबंधों को बेहतर बनाने की कोशिश सच्ची और गंभीर है तो हुर्रियत के अलावा, भारत के नजरिये से कम से कम चार ऐसे मूलभूत मसले हैं, जिनके हल की जरूरत है।

पहला, कश्मीर मुद्दे का समाधान तलाशना। दोनों सरकारें उन उपलब्धियों को नकारने के मूड में दिख रही हैं, जो जनवरी, 2004 में अटल बिहारी वाजपेयी के इस्लामाबाद दौरे में इस्लामाबाद घोषणापत्र जारी होने, तथा उसी साल सतिंदर लांबा और तारिक अज़ीज के बीच बैक-डोर पॉलिसी के तहत बातचीत शुरू होने के बाद के तीन सालों में हासिल हुईं। दस्तावेज बताते हैं कि वार्ताकारों ने इस बात पर सहमति जताई थी कि जम्मू-कश्मीर के मसले के अंतिम हल में सीमा और आम लोगों की अदला-बदली से परहेज़ रखना होगा, और हमें लाइन ऑफ कंट्रोल के आर-पार मित्रों और संबंधियों की आवाजाही बढ़ाने पर ध्यान देना होगा। कारोबार और सांस्कृतिक संबंधों को कश्मीर के दोनों हिस्सों में बढ़ाने पर भी सहमति जताई गई थी, और एक संयुक्त प्रबंधन के जरिये लाइन ऑफ कंट्रोल के आर-पार रह रहे लोगों के लिए सीमा रेखा को अप्रासंगिक बनाने की बात भी शामिल थी।

यह सही है कि बैक-डोर पॉलिसी के तहत हासिल की गई इस सहमति को दोनों में से किसी भी सरकार के समक्ष पुष्टि के लिए नहीं लाया गया, लेकिन चूंकि वार्ताकार अपनी-अपनी सरकारों के प्रतिनिधि के तौर पर बात कर रहे थे, ऐसे में यह तो कहा ही जा सकता है कि बातचीत से सरकार के प्रस्तावों के बारे में कुछ अंदाजा तो लगता ही है।

दूसरा मसला, लाइन ऑफ कंट्रोल (और कई बार अंतरराष्ट्रीय सीमा रेखा पर) पर गोलीबारी से जुड़ा है, जो कई बार बर्बर जान पड़ता है, जिसमें न केवल सेना के जवानों की मौत होती है, बल्कि सीमा के आसपास रहने वाले आम नागरिक भी इसकी चपेट में आ जाते हैं। उनकी संपत्ति का भी नुकसान होता है, और कई बार उन्हें विस्थापित भी होना पड़ता है। ऐसी निंदनीय घटनाओं से सीमा के दोनों ओर तनाव बढ़ता है, जिसे मीडिया हवा देता है। हकीकत यह है कि वार्ता और सीमा पर गोलीबारी की घटनाओं में 'विपरीत' संबंध है। वर्ष 2004 से 2008 के बीच सीमापार से गोलीबारी की घटनाओं और उससे होने वाली मौतों के मामलों में कमी देखने को मिली, जब उसी दौरान दोनों मुल्कों के बीच बातचीत जारी थी। 26/11 की वारदात के बाद बातचीत की प्रक्रिया बंद होने के साथ ही सीमापार से गोलीबारी के मामलों की गिनती और गंभीरता बढ़ गई। सो, अगर उद्देश्य गैरज़रूरी जानी नुकसान को रोकना, संपत्ति की बर्बादी को रोकना, और सीमा से सटे लोगों का विस्थापन रोकना है, तो हमें समझना होगा कि बातचीत की प्रक्रिया शुरू होने से तनाव कम होता है। इससे दूसरी तमाम अफसोसनाक घटनाओं को भी रोका जा सकेगा, लेकिन अगर हम बातचीत नहीं करेंगे तो आम लोगों का जीवन दांव पर लगा रहेगा।

तीसरा मसला, पाकिस्तान द्वारा इस्लामाबाद घोषणापत्र (2004) में किए गए सीमापार से आतंकवाद रोकने और ऐसी घटनाओं के दोषियों को दंडित करने के वादों से जुड़ा है। सवाल उठता है कि पाकिस्तान ने सीमापार से आतंकवाद रोकने और ऐसी जघन्य वारदात को अंजाम देने वालों को सजा देने के लिए क्या कार्रवाई की है। हालांकि पाकिस्तान को कठघरे में खड़ा करना, बातचीत की प्रक्रिया को शुरू करने के लिहाज से उचित नहीं है, हालांकि निसंदेह पाकिस्तान खुद ही इसके लिए जिम्मेदार है। भारत इस मामले में पाकिस्तान को उसकी प्रतिबद्धता की याद बातचीत के जरिये ही दिला सकता है। पाकिस्तान की सरज़मीन से आतंकवाद का खत्म होना बातचीत शुरू करने की शर्त होनी चाहिए या फिर बातचीत का मसला होना चाहिए...? यही नहीं, भारत के कई हिस्सों में भारतीयों द्वारा भी आतंकवादी वारदातों को अंजाम दिया जाता है, इसलिए क्या भारत को पाकिस्तान के प्रति सहानुभूति का भाव रखना चाहिए, क्योंकि वह दुनिया का सबसे ज्यादा आतंकवाद प्रभावित देश है। आतंकवाद की वजह से, और पाकिस्तानी जमीन पर, खासकर उत्तर-पश्चिमी पाकिस्तान में आतंकवाद के खिलाफ पाक-अमेरिकी युद्ध के चलते अब तक 40 हजार पाकिस्तानियों की मौत हो चुकी है। क्या भारत को यह ध्यान नहीं देना चाहिए कि आतंकवादियों ने पाकिस्तान के सरकारी प्रतिष्ठानों को खूब निशाना बनाया है, जिनमें लाहौर स्थित आईएसआई का मुख्यालय, रावलपिंडी में सेना मुख्यालय और कराची के बाहरी हिस्से में स्थित मेहरान नौसेना केंद्र शामिल रहे हैं। क्या भारत और पाकिस्तान आपस में, और सार्क के फ्रेमवर्क में भी आपसी संबंधों को बेहतर नहीं बना सकते, ताकि आतंकवाद से निपटने के लिए दोनों देश एक बेहतर मंच बना सकें।

चौथा मसला, एक उलझाने वाला सवाल है कि पाकिस्तान में बातचीत किससे करें। भारत में लगातार यह तर्क दिया जाता है कि पाकिस्तान में लोकतंत्र बेहद कमजोर है, हालांकि ऐसा है नहीं, लेकिन सरकार, सेना, खुफिया समुदाय, शक्तिशाली धार्मिक गुरु और बंदूक लिए जेहादी, इनमें से पाकिस्तान में फैसला कौन लेता है...? हमें किनसे बात करनी चाहिए...? उनसे बातचीत करने का क्या फायदा, जिनके हाथ में वास्तव में ताकत नहीं हैं...? हमें यह तो मानना ही होगा कि पाकिस्तान एक संप्रभु देश है, इसलिए सरकार के अलावा किसी और से बातचीत संभव नहीं है, और साथ ही यह भी ध्यान रखना होगा कि भारत सरकारी चैनलों से ही बातचीत करता रहा है - और अक्सर उनमें कामयाबी भी मिली है।

दूसरे साझीदारों को बातचीत में शामिल करना जमीनी सच्चाई को पहचान लेना भले ही हो सकता है, लेकिन यह एक चुनी हुई सरकार के भारत से बातचीत नहीं करने का आधार नहीं हो सकता। उदाहरण के लिए, क्या भारत सरकार पाकिस्तानी वार्ताकारों को इस बात के लिए इजाजत दे सकती है कि वे सीधे भारतीय सेना प्रमुख से बातचीत कर लें, क्योंकि भारतीय सशस्त्र सेना ही सियाचिन को छोड़ने को लेकर अनिच्छुक है। पाकिस्तान की चुनी हुई सरकार को सभी घरेलू संगठनों का ध्यान रखना होगा, और ऐसा ही भारत को भी करना होगा। लेकिन लोकतांत्रिक तरीके से चुनी गई सरकार को बिना सत्ता वाले साझीदारों के हाथों का खिलौना ठहराना, पाकिस्तान के लोकतंत्र को कमतर करके देखना है, जिसे भारत हमेशा भारत-पाकिस्तान के आपसी संबंधों को बेहतर बनाने के लिए बेहद अहम मानता रहा है।

इस तरह, तमाम पक्षों को देखते हुए भविष्य के लिए दो विकल्प नजर आते हैं। पहला, हमें पाकिस्तान की उपेक्षा (चाहे सौम्य हो, या हिकारत भरी) करनी चाहिए। भारत में बौद्धिक चिंतकों का एक तबका (शायद पाकिस्तान में भी) यह मानता है कि किसी भी अहम मुद्दे पर कोई प्रगति नहीं हो सकती है, इसलिए बुद्धिमानी पाकिस्तान की उपेक्षा करने में है और हमें विदेश नीति के दूसरे आयाम को प्राथमिकता देनी चाहिए। लेकिन इस विकल्प को अपनाने का अर्थ यह मान लेना होगा कि पाकिस्तान के साथ सभी मुद्दों को दरकिनार कर देना होगा। लेकिन क्या भारत लाइन ऑफ कंट्रोल पर गोलीबारी की उपेक्षा कर सकता है...? क्या पाकिस्तान सिंधु नदी में पानी की कमी की उपेक्षा कर सकता है...? क्या भारत सीमापार से घुसपैठ की उपेक्षा कर सकता है...? क्या पाकिस्तान सीमापार से होती तस्करी की तरफ से आंखें मूंद सकता है...? क्या भारत सीमापार से आने वाले आतंकवादियों की उपेक्षा कर सकता है...? क्या पाकिस्तान बिना अंतिम समझौते के कश्मीर पर अपना दावा छोड़ सकता है...? क्या पाकिस्तान सियाचिन, सरक्रीक और वुलर-तुलबुल पर अपने दावों को अनिश्चिय में छोड़ सकता है...? क्या हम पाकिस्तान के रास्ते अफगानिस्तान तक पहुंचने वाले ट्रांजिट रूट को छोड़ सकते हैं...? क्या दोनों में से कोई भी देश एक-दूसरे के साथ कारोबार के अवसरों को गंवा सकता है...? क्या दुनिया मामले को इस तरह जाने देगी...? क्या हमारी परमाणु क्षमताओं से दुनिया भर में चिंता नहीं बढ़ेगी...? इसलिए, नहीं, परस्पर उपेक्षा विकल्प नहीं है। यह ज़्यादा से ज़्यादा एक सनक हो सकती है। हम चाहें या न चाहें, पाकिस्तान हमें चोट देता रहेगा, और हम भी पाकिस्तान के साथ यही करेंगे, सिर्फ राजनीतिक तौर पर ही नहीं, सीमा के दोनों तरफ के रोजमर्रा के जीवन में भी, चाहे बंटे हुए परिवारों का मसला हो, बॉलीवुड को लेकर साझे प्यार का।

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ऐसे में अगर, परस्पर उपेक्षा और परस्पर सहमति की संभावनाएं खारिज हो जाती हैं तो आगे बढ़ने का रास्ता क्या बचता है...? मौजूदा समय में केवल एक विकल्प है। वह है भारत और पाकिस्तान के बीच बातचीत, जो अभी ठंडे बस्ते में चली गई है, लेकिन बातचीत के टेबल पर लौटने के बारे में बातचीत शुरू होनी चाहिए। ऐसी कोशिश राजनयिक स्तर पर भी की जा सकती है, या फिर ढके-छिपे बैक-डोर चैनल के जरिये भी, ताकि जब तनाव कम हो और आपसी संबंध सुधारने की दिशा में कोशिश शुरू हो तो बातचीत शुरू हो सके। इसे आप निर्बाध और बाधित नहीं होने वाली प्रक्रिया के तौर भी देख सकते हैं।

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