मणिशंकर अय्यर कांग्रेस की ओर से राज्यसभा सदस्य हैं...
एक वक्त था, जब रोम के बादशाह नीरो ने हुक्म दिया था, "उन्हें भोजन दो, उन्हें मनोरंजन दो..." और उस वक्त के बाद से सभी सत्तावादी जनाकांक्षाओं के आधार पर समर्थन मांगते समय नाटकीयता का भी इस्तेमाल करते रहे हैं, लेकिन ऐसा उस तरह भारत में कोई नहीं कर पाया, जैसा नरेंद्र मोदी ने अपनी हवा में उड़ती लाल पगड़ी, लहराती बांहों, घुमावदार बातों के अलावा अपने भाषण को बड़ी-बड़ी स्क्रीनों के जरिये दूर-दूर तक पहुंचाकर किया।
लेकिन उसमें सारपूर्ण क्या था...? स्वतंत्रता दिवस पर दिया गया उनका भाषण पुरानी बोतल में पुरानी शराब की तरह था, जिस पर सिर्फ लेबल नया लगा दिया गया। उनके द्वारा सार्वजनिक मंच से जनता के सामने शौचालयों की बात करने को लेकर काफी कुछ कहा जा रहा है। लेकिन पिछले साल इसी मंच से उनके पूर्ववर्ती डॉ मनमोहन सिंह द्वारा 'टोटल सैनिटेशन प्रोग्राम' की एवज में घोषित किए गए कार्यक्रम 'निर्मल भारत अभियान' में उन्होंने नया क्या जोड़ा? कुछ नहीं... दरअसल, सफाई पर ध्यान देना हमेशा से हमारे प्रबुद्ध नेताओं की प्राथमिकता रहा है, जिनमें महात्मा गांधी भी शामिल थे, जिन्होंने दक्षिण अफ्रीका में न सिर्फ खुद झाड़ू उठाया, बल्कि कस्तूरबा से भी अपना मैला खुद साफ करने के लिए कहा। उनका कहना था, "सफाई रखना परमात्मा की भक्ति समान है...", लेकिन ऐसा उन्होंने लालकिले की प्राचीर पर चढ़कर नहीं कहा था, बल्कि उन्होंने अंदरूनी विनम्रता दर्शाते हुए, आडम्बररहित तरीके से स्वयं से और अपने परिवार से शुरुआत कर एक व्यक्तिगत उदाहरण प्रस्तुत किया। निश्चित रूप से उनके संपूर्ण 'सकारात्मक कार्यक्रम' की रूपरेखा निजी तथा सामाजिक स्वच्छता के आसपास घूमती है।
हमें मोदी द्वारा शौचालयों का महत्व समझाए जाने की नहीं, इस बात की ज़रूरत थी कि वह आकर संपूर्ण स्वच्छता की दिशा में की गई प्रगति के बारे में बताएं, और यह बताएं कि दशकों पुराने निर्मल ग्राम अभियान के रास्ते में क्या रुकावटें आ रही हैं। यदि मोदी ने अपने स्वभाव के मुताबिक नए-नए नारे गढ़ने के स्थान पर थोड़ा भी अध्ययन किया होता, तो उन्हें पता चल गया होता कि एमपीलैड फंड से शौचालयों का निर्माण करना, जैसा मैं उस वक्त भी कर रहा था, जब मोदी खाकी निकर पहनकर प्रचार और प्रवचन देने में जुटे थे, समस्या नहीं है, क्योंकि ऐसा करना आसान है, लेकिन समस्या उनके रखरखाव को सुनिश्चित करने में आती है। ऐसे सार्वजनिक शौचालय जिस वक्त बनाए जाते हैं, उस वक्त तो ऐसा लगता है, जैसे ताजमहल बना दिया गया, लेकिन एक ही हफ्ते में वह इस्तेमाल के लायक भी नहीं रहते, क्योंकि रखरखाव की कोई उचित व्यवस्था नहीं होती। और यदि मोदी के पास हालिया सर्वेक्षणों को पढ़ने के लिए ज़रा भी वक्त तथा इच्छा होती, तो वह जान जाते कि भले ही सार्वजनिक शौचालयों के स्थान पर घरों में निजी शौचालय बनाकर दे दिए जाएं, हमारे यहां उन्हें लगातार इस्तेमाल करने के लिए प्रेरित करने की व्यवस्था का अभाव है।
सो, जब समाज को प्रेरित करना ही सबसे बड़ी चुनौती दिख रहा हो, सबसे आसान और प्रभावी राह है कि पंच और सरपंच ग्रामसभाओं के जरिये सफाई का महत्व समझाएं। लेकिन यदि मोदी के स्वतंत्रता दिवस भाषण के हिसाब से चलें, तो साफ है कि उन्होंने अपने 'गुजराती भाई' मोहनदास कर्मचंद गांधी की भी नहीं सुनी, जो कहते थे कि पंचायत राज के बिना भारत प्रगति नहीं कर सकता। ज़ाहिर है, कोई सत्तावादी आसानी से शक्तियों के बंटवारे के लिए कैसे तैयार हो सकता है? ऐसा भी नहीं है कि हमें इस बात की आशंका नहीं थी। जहां तक पंचायत राज का सवाल है, मोदी का गुजरात सबसे खराब प्रदर्शन करने वाले राज्यों में से एक है। और यह एक बार फिर सिद्ध हो गया, जब उन्होंने 'सांसद आदर्श ग्राम योजना' का निरर्थक प्रस्ताव रखा, जिसे सांसदों को अपने एमपीलैड फंड से चलाना है। सबसे पहले तो यह सोचिए, 700 'सांसद आदर्श' गांव उन भीषण समस्याओं को हल करने की दिशा में क्या सहायता करेंगे, जिनका सामना सात लाख गांव कर रहे हैं। इसके बाद, सोचने के लिए ज़्यादा महत्वपूर्ण बात यह है कि 'सांसद कार्यक्रम' क्यों, 'पंचायत आदर्श ग्राम योजना' क्यों नहीं? पंचायतों के जरिये इस योजना को लागू करने पर इसे देश के प्रत्येक गांव तक तुरन्त पहुंचाया जा सकता था, बशर्ते आवश्यक प्रक्रियाएं, पैसा और पदाधिकारियों को उचित अधिकार देकर संविधान के तहत गांवों को प्रभावी ढंग से शक्तिशाली बनाया जाए। आह! मोदी के 'नए भारत' में लोगों का सशक्तिकरण नहीं होने वाला, बल्कि ऐसा लगता है, सब कुछ मोदी को 'संत' का दर्जा दिलाए जाने की तरफ बढ़ रहा है।
बिल्कुल यही बात मोदी की उन उपदेशात्मक, परन्तु अर्थहीन टिप्पणियों पर भी लागू होती है, जिनमें उन्होंने बलात्कार तथा महिलाओं का यौन उत्पीड़न रोकने के लिए माता-पिताओं से पुत्र-पुत्रियों पर एक-सी पाबंदियां लगाने के लिए कहा। उनकी बात उस वक्त कहीं ज़्यादा प्रभावी ढंग से सुनाई देती, यदि वह निहालचंद मेघवाल को अपने मंत्रिमंडल से निष्कासित कर देते, सार्वजनिक स्थानों पर महिलाओं की सुरक्षा के लिए अधिक कारगर कानून एवं व्यवस्था बनाने तथा अपराधियों के विरुद्ध समय पर कड़ी न्यायिक कार्रवाई करने के लिए अधिक व्यावहारिक कदम (16 साल के अपराधियों को फांसी देने के अलावा) उठाते। परन्तु यदि व्यवहार में लाए जा सकने लायक कोई रोड-मैप तैयार हो तो उन्हें मोदी कौन कहे। वह सिर्फ उपदेश देते हैं, करते कुछ नहीं। गांधी ने कहा भी, और नैतिक शुद्धता का ऊंचा उदाहरण भी प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा और किया, लेकिन मोदी बार-बार सिर्फ बोलते हैं, और बचकाने नारे देते रहते हैं।
नरेंद्र मोदी के इन्हीं बचकाने नारों की कड़ी में 'मेक इन इंडिया' ताजातरीन है। 'स्वावलम्बन' और 'स्वदेशी' भी 'मेक इन इंडिया' नहीं है तो और क्या है? और अगर मोदी अपनी गलत-सलत अंग्रेज़ी में विदेशियों को निर्माण क्षेत्र में निवेश के लिए आमंत्रित करने की कोशिश कर रहे थे, तो उसमें भी नया क्या है? पीवी नरसिम्हा राव तथा उनके वित्तमंत्री मनमोहन सिंह के काल में आर्थिक सुधारों के शुरू होने के समय से ही हम भी व्यापक तरीके से विदेशी निवेशकों को लुभाते आ रहे हैं। मोटे तौर पर सफलता भले ही हमसे दूर रही हो, लेकिन हमारे शेयर बाज़ारों में धन का शानदार प्रवाह, खासतौर से बदनाम मॉरीशस रूट के जरिये, कई गुना बढ़ा। सुधारों के बावजूद यदि निर्माण क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश निराशाजनक रहा है, तो उसका कारण यह नहीं है कि यूपीए सरकार नारे गढ़ने में नाकाम रही, बल्कि यह है कि विदेशी निवेश को नियंत्रित करने वाले नियमों औऱ विनियमों को खोलने के रास्ते में राजनैतिक, सामाजिक और आर्थिक अड़चनें - वास्तविक अड़चनें - हैं। यदि मोदी में इन सभी नियमों को खत्म कर देने की हिम्मत (या बेवकूफी) होती, तो उन्हें विदेशी पूंजी को आकर्षित करने के लिए खोखले नारों की ज़रूरत ही न पड़ती। लेकिन चूंकि वह जानते हैं कि उनकी भगवा ब्रिगेड ही उन्हें कोई क्रांतिकारी कदम नहीं उठाने देगी, इसलिए नीतियों में किसी अर्थपूर्ण परिवर्तन के स्थान पर विदेशी निवेशकों को मोदी की ओर से सिर्फ एक और नारा हासिल हुआ। और इसमें हैरानी की कोई बात नहीं कि स्वतंत्रता दिवस की पूर्व संध्या पर 'द न्यूयार्क टाइम्स' ने मोदी को 'शून्य' (Cipher) की संज्ञा दे डाली।
'शून्य' एक बार फिर सिद्ध हुआ, उनके एक और नारे से - सांप्रदायिकता पर 10 साल के स्थगन का आह्वान। यह सवाल उठाने से मैं परहेज़ करूंगा, क्योंकि इसे कई लोग उठा चुके हैं कि सिर्फ 10 साल क्यों, हमेशा के लिए क्यों नहीं? इससे कहीं बेहतर यह होता कि कि मोदी उनकी नज़रों के सामने गुजरात में हुए मुस्लिमों के नरसंहार के लिए माफी मांग लेते, और सभी भागवतों, तोगड़ियाओं और कोडनानियों की सार्वजनिक रूप से नकेल कसते, जिनसे वह घिरे रहते हैं, और जिनकी राजनीति के जरिये ही वह रेसकोर्स रोड तक पहुंच पाए हैं। क्या वह उन्हें नकार सकते हैं? क्या वह उन्हें नकारना चाहते हैं? उत्तर प्रदेश में होने वाले चुनाव से पहले क्या वह यह वादा करने के लिए तैयार हैं कि चुनाव-पूर्व सांप्रदायिक हिंसा में शामिल होने वाले हर 'निकर-वाले' को वह संघ परिवार से बाहर निकाल देंगे? नहीं, क्योंकि यदि उन्होंने ऐसा किया, तो संघ परिवार सबसे पहले उन्हें बाहर फेंक देगा। मोदी शेक्सपियर के उपन्यास के चरित्र लेडी मैकबेथ की तरह हैं - "मेरे हाथ खून से रंगे हैं, और किसी भी तरह का इत्र इनमें से वह गंध नहीं निकाल सकता..." (Here’s the smell of the blood still: all the perfumes of Arabia will not sweeten this little hand).
अंत में बात करते हैं योजना आयोग की। इसे खत्म कर देने को लेकर बहस हो सकती है, लेकिन मोदी ने वैसा नहीं किया। नेहरू युग की सबसे शानदार परम्पराओं में से एक को खत्म कर देने की उनकी कोशिश के अड़ियलपने के अलावा हमें कुछ हासिल नहीं हुआ। यह बिल्कुल वैसा ही है, जैसा दिल्ली के सुल्तान किया करते थे। वे पिछली सभी मूर्तियां तुड़वा दिया करते थे, लेकिन इस तोड़फोड़ की कोई सफाई कभी नहीं दे पाए। योजना आयोग को खत्म कर देना, विस्तार से यह बताए बिना कि उसके स्थान पर क्या आने वाला है, वैसा ही है, जैसे कोई बच्चा जानबूझकर अपने खिलौने सिर्फ इस वजह से तोड़ डाले, क्योंकि ऐसा करने में उसे मज़ा आता है।
हमें ज़रूरत है कि लालकिले की प्राचीर पर वयस्कों जैसा व्यवहार लौटकर आए। हमें ज़रूरत है एक जवाहरलाल नेहरू की, जिन्होंने देश की 'सौभाग्य से भेंट' की घोषणा की थी। हमें ज़रूरत है एक लालबहादुर शास्त्री की, जो 'जय जवान जय किसान' का नारा दे रहे हों। हमें ज़रूरत है एक इंदिरा गांधी की, निन्होंने पड़ोसी पूर्वी पाकिस्तान में जारी नरसंहार के खिलाफ सारे देश को एकजुट किया। हमें ज़रूरत है एक राजीव गांधी की, जो असम समझौते की घोषणा करे, पंजाब समझौते को आगे बढ़ाए, मिजो समझौते की भविष्यवाणी करे। हमें ज़रूरत है एक नरसिम्हा राव की, जो देश को समृद्धि के पथ पर अग्रसर करने के लिए रोडमैप प्रस्तुत करे। हमें अटल बिहारी वाजपेयी के विनम्र हास्य की भी ज़रूरत है, हमें डॉ मनमोहन सिंह की साम्य वाणी की भी ज़रूरत है। आह! आने वाले पांच सालों में (बीते हुए 70 दिनों को छोड़कर) इनमें से किसी की भी आशा रखना चांद पाने की ख्वाहिश करने जैसा है।
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