यह ख़बर 12 नवंबर, 2014 को प्रकाशित हुई थी

मणि-वार्ता : शक्तियों का केंद्रीकरण करने वाले नरेंद्र मोदी...

मणिशंकर अय्यर कांग्रेस की ओर से राज्यसभा सदस्य हैं...

गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी के 12 सालों के कार्यकाल के दौरान पंचायती राज दरअसल मोदी राज के सामने ठहरा रहा। सैद्धांतिक तौर पर यही वह पहलू था, जिसके चलते राज्य की विकास दर महाराष्ट्र, तमिलनाडु और यहां तक कि बिहार से भी बदतर रही। हालांकि गुजरात दूसरे कई राज्यों के मुकाबले बेहतर स्थिति में था, लेकिन मानव विकास सूचकांक में कोई सुधार नहीं हो रहा था। मानव विकास सूचकांक की सूची में भारत के 30 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में गुजरात कभी 15वें स्थान से ऊपर नहीं उठ सका।

पंचायती राज संस्थानों के अवमूल्यन की सबसे बड़ी वजह यह रही कि नरेंद्र मोदी सारी सत्ता खुद तक केंद्रित रखने वाले नेता के तौर पर उभरे और उन्होंने सत्ता को विकेंद्रित नहीं होने दिया। हालांकि पंचायती राज के तीन महानायक - गांधीजी, बलवंत राय मेहता और अशोक मेहता - गुजरात के ही थे, लेकिन इन महान नायकों की मज़बूत नींव पर मोदी कोई ठोस काम करने में नाकाम रहे।

दूसरी ओर केरल और कर्नाटक ही नहीं, बल्कि महाराष्ट्र, हरियाणा, राजस्थान के अलावा त्रिपुरा, सिक्किम और हिमाचल प्रदेश ने भी गुजरात को काफी अंतर से पछाड़ दिया, और लोगों की भागीदारी वाले लोकतंत्र का रास्ता अपनाया। मोदी उस वक्त अपने आर्थिक एजेंडे, जिसमें गरीब और आम आदमी के विकास की बात भी शामिल है, को बढ़ाने में व्यस्त थे (मुझे इस पर भी कोई अचरज नहीं होता कि उन्होंने केंद्रीय पंचायती राज मंत्री के तौर पर मेरे गुजरात दौरे के अनुरोध को लगातार ठुकराया - उन्हें इस बात का डर था कि उनके नजरिये का सच सबके सामने आ जाएगा...)

बहरहाल, इस मसले पर मोदी को ज्ञानप्राप्ति की प्रतीक्षा किए बिना ही, कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया के नेतृत्व में कांग्रेस सरकार ने एक बड़ा कदम उठाया, ताकि कर्नाटक को पंचायती राज के मामले में देश का अव्वल राज्य बनाया जा सके, और केरल और महाराष्ट्र को पीछे छोड़ा जा सके, जो बीते लगभग 15 सालों में उससे आगे निकल गए थे।

कर्नाटक पंचायत राज एक्ट में संशोधन के लिए पूर्व विधानसभा अध्यक्ष केआर रमेश कुमार की अध्यक्षता में बनी कमेटी ने पिछले सप्ताह राज्य सरकार को अपनी रिपोर्ट सौंप दी। 'कर्नाटक में ग्राम स्वराज का रास्ता' शीर्षक वाली इस रिपोर्ट में संशोधन के कई अहम प्रस्ताव शामिल है, जो पिछले 20 साल के जमीनी अनुभवों के आधार पर तैयार किए गए हैं। इन्हें आप बीते 30 सालों का अनुभव भी कह सकते हैं, क्योंकि दरअसल '80 के दशक में ही तत्कालीन मुख्यमंत्री रामकृष्ण हेगड़े और उनके अविस्मरणीय पंचायती राज मंत्री अब्दुल नजीर साहिब ने इस दिशा में अहम शुरुआत की थी।

संशोधन के प्रस्ताव में पंचायतों से ग्रामसभाओं को सभी शक्तियों के हस्तांतरण, उसकी निगरानी और उसके नियंत्रण का अधिकार देना शामिल है। प्रस्ताव में वार्ड स्तर पर सलाह-मशविरे से लेकर पंचायत स्तर पर तक इस विकेंद्रीकरण को मज़बूत करने का भाव शामिल है। मतलब, एक ही प्रस्ताव से पंचायती राज की सबसे बड़ी पहेली का प्रभावी हल मिल गया है - सहायक कर्मचारियों के बीच प्रभावी आपसी सामंजस्य की जरूरत है, खासकर बड़ी पंचायतों में। छोटी पंचायतों में लोगों की भागीदारी कहीं ज्यादा प्रभावी ढंग से संभव है।

नए प्रस्ताव के मुताबिक, पंचायतों के दायित्वों और जिम्मेदारियों को स्पष्ट रूप से परिभाषित करते हुए उन्हें कानूनी रूप से अधिक सशक्त बनाया गया, और 'उपयोगिता प्रमाणपत्र' जारी करने का अधिकार ग्राम सभाओं को दिया गया। इससे किसी भी कांट्रैक्टर का भुगतान तब तक मंजूर नहीं किया जाएगा, जब तक ग्राम सभा एकमत होकर यह फैसला न कर ले कि काम संतोषजनक रहा है। इससे समुदाय तो संतुष्ट होगा ही, भ्रष्टाचार और धांधलियों की गुंजाइश भी बेहद कम हो जाएगी।

इसके अलावा प्रस्ताव में जिला पंचायत सेवा स्थापित करने की बात भी कही गई है। इसकी निगरानी पंचायत सेवा प्राधिकार के जिम्मे होगी, ताकि पंचायत के हर स्तर पर नौकरशाही, एकाउंट्स और तकनीकी स्तर पर पर्याप्त संख्या में कर्मचारी सुनिश्चित किए जा सकें। इसे पंचायत समिति के मुखियाओं और अन्य पंचों के अनुभव और प्रशिक्षण से भी पूरा किया जा सकता है।

अगर कर्नाटक सरकार, इंस्टीच्यूट ऑफ पब्लिक एकाउंट्स ऑफ इंडिया के प्रति 10 पंचायतों में एक चार्टर्ड एकाउंटेंट को नाममात्र के शुल्क में प्रशिक्षित करने के प्रस्ताव को स्वीकार कर लेती है तो आधुनिक, कंप्यूटरीकृत और ऑनलाइन प्रशासन की मांग को भी पूरा करना संभव होगा, जिससे स्थानीय प्रशासन की जबावदेही बढ़ेगी और स्थानीय लोगों की समस्याओं का हल भी जल्दी निकलेगा।

पंचायती राज में सरपंच राज जैसी सूरत पैदा न हो, इसके लिए यह ज़रूरी होगा कि पंचायत का कोई भी काम कमेटी के तहत होगा और कोई भी फैसला पंचायत के सभी सदस्यों की मौजूदगी में होगा। पंचायती चुनाव में पैसे और बाहुबल के जोर को खत्म करने के लिए कमेटी ने चुनाव के लिए राज्य द्वारा भुगतान देने की अनुशंसा की है। किसी तरह की प्राइवेट और पार्टी फंडिंग की अनुमति भी नहीं होगी। राज्य चुनाव आयोग को यह अधिकार होगा कि वह चुनाव से संबंधित सारे फैसले ले सके, जिसमें राजनीतिक दखल के बिना पंचायतों के परिसीमन से लेकर उम्मीदवारों को अयोग्य ठहराने तक के फैसले शामिल होंगे।

लेकिन इस रिपोर्ट की सबसे महत्वपूर्ण अनुशंसा पंचायतों की ताकत और अधिकार के दायरे से संबंधित है। संविधान की धारा 243 जी के संदर्भ का हवाला देते हुए रिपोर्ट में विकेंद्रीकरण की प्रक्रिया और उसके कंटेंट पर जोर देते हुए कहा गया है कि पंचायत स्थानीय स्वराज की संस्था है। इस रिपोर्ट की संलग्नक सूची में विस्तृत एक्टिविटी मैप में उन 29 विषयों को सूचीबद्ध किया गया है, जो ग्यारहवीं अनुसूची में दर्ज हैं, जिनके मुताबिक तीन एफ - फंक्शन (कार्य), फाइनेंस (वित्त) और फंक्शनरीज़ (कार्यकारिणी) में विकेंद्रीकरण की विधि का जिक्र है। इससे पंचायतों को प्रभावी तौर पर सशक्त बनाना संभव होगा। पंचायतें आर्थिक विकास और सामाजिक न्याय की अपनी योजना और कार्यक्रमों को नया रूप दे पाएंगी, निगरानी कर पाएंगी और लागू कर पाएंगी।

इसके अलावा यह प्रस्ताव भी है कि राज्य वित्त आयोग की अनुशंसाओं को उसी तरह से स्वीकार्य और लागू किया जाना चाहिए, जिस तरह केंद्रीय वित्त आयोग की अनुशंसाओं का होता है।

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इन क्रांतिकारी प्रस्तावों को लागू करने के लिए कर्नाटक को केंद्र सरकार से मंजूरी लेने की जरूरत नहीं है। वे तमाम मुद्दों पर बेंगलुरू में ही फैसला कर सकते हैं, विधानसभा के समर्थन से। अगर राज्य सरकार ने तुरंत फैसला किया तो अप्रैल, 2015 में होने वाले पंचायती चुनाव में उसकी भारी जीत सुनिश्चित हो जाएगी। शायद यह पंचायत-विरोधी मोदी सरकार के लिए सबक होगा कि वे सब लोगों को कुछ समय के लिए मूर्ख बना सकते हैं या फिर कुछ लोगों को हमेशा के लिए मूर्ख बना सकते हैं, लेकिन सब लोगों को हमेशा मूर्ख नहीं बनाया जा सकता।

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