Gandhi Jayanti 2018: महात्मा गांधी की 30 जनवरी 1948 को हत्या कर दी गई थी.
नई दिल्ली:
आज महात्मा गांधी की जयंती (Gandhi Jayanti) है. 2 अक्टूबर 1869 को जन्मे गांधी आजीवन देश की स्वाधीनता के लिये लड़ते रहे और जब आजादी मिली तो साल भर के अंदर ही उनकी हत्या कर दी गई. 30 जनवरी 1948 की शाम नाथूराम गोडसे ने महात्मा गांधी के सीने में तीन गोलियां दाग दी. चंद मिनटों में गांधी जी का देहांत हो गया. नाथूराम गोडसे (Nathuram Godse) ने महात्मा गांधी (Mohandas Karamchand Gandhi) की हत्या क्यों की इस पर खूब विमर्श हुआ, तमाम लेख लिखे गए और बहस-मुबाहिसें हुईं, लेकिन 7 दशक बीतने के बाद अब भी लोग गोडसे की शख़्सियत को जानना और समझना चाहते हैं. आइये आपको बताते हैं गोडसे के जीवन से जुड़े 5 दिलचस्प किस्से.
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1. 28 साल की उम्र लिया ब्रम्हचर्य का व्रत, आजीवन निभाया
19 मई 1910 को पुणे के एक कस्बे बारामती में जन्मा नाथूराम गोडसे बचपन से ही अपने इरादों पर अटल रहने वाला शख्स था. 28 साल की उम्र में जब उसने ब्रम्हचर्य का व्रत लिया तो आजीवन उसका पालन किया. गोडसे लोगों की निगाह में पहली बार आजादी के तीन महीनों बाद आया. 1 नवंबर 1947 को गोडसे के अखबार 'हिंदू राष्ट्र' के नए कार्यालय का उद्घाटन कार्यक्रम रखा गया. इस कार्यक्रम में पुणे (तब का पूना) के तमाम प्रतिष्ठित लोगों और खासकर हिंदुवादी नेताओं को आमंत्रित किया गया था. उस शाम गोडसे ने अपने भाषण में बंटवारा का पूरा ठीकरा गांधी के सिर पर फोड़ा. इतिहासकार डोमिनिक लॉपियर और लैरी कॉलिन्स अपनी किताब 'फ्रीडम एट मिडनाइट' में लिखते हैं, ''गोडसे ने गरजकर कहा, भारत माता के दो टुकड़े कर दिये गए हैं. गिद्ध मातृभूमि की बोटियां नोच रहे हैं. कितनी देर कोई यह सहन करेगा?''
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2. जासूसी फिल्में और कथाएं पढ़ने का था शौक
नाथूराम गोडसे अपने दोस्तों से बिल्कुल अलग था. मसलन, उसके करीबी दोस्तों में से एक नारायण आप्टे के पास जब भी थोड़े पैसे आते तो वह सीधे मुंबई अपने दर्जी के पास नए कपड़े सिलाने पहुंच जाता. अच्छा खाना खाता और पूरी मौज मस्ती करता, लेकिन गोडसे को इन सब में कोई दिलचस्पी नहीं थी. बकौल, डोमिनिक लॉपियर और लैरी कॉलिन्स, 'गोडसे को पेरी मेसन की जासूसी कथाएं पढ़ने और बहादुरी के कारनामों पर आधारित फिल्में देखने का शौक था. पूना के कैपिटल सिनेमा में अक्सर वह दो रुपये का टिकट लेकर अंग्रेजी की मारपीट और जासूसी भरी फिल्में देखते हुए पाया जाता था'.
3. महात्मा गांधी ही थे नाथूराम गोडसे के पहले आदर्श
क्या आप भरोसा करेंगे कि जिस महात्मा गांधी (Mahatma Gandhi) को गोडसे ने गोली मारी, कभी वही उसके आदर्श थे. जी हां... नाथूराम गोडसे को पहली बार महात्मा गांधी के सत्याग्रह आंदोलन के सिलसिले में ही जेल जाना पड़ा था. वह उनकी हर बात मानता था और उस पर भरोसा करता था, लेकिन बाद में वह अलग हो गया और बंटवारे के बाद तो उसके मन में गांधी के प्रति कटुता और बढ़ती चली गई. 1937 में गोडसे वीर सावरकर से जुड़ा और उन्हें अपना गुरु मान लिया. इसके बाद वह सावरकर के साथ तमाम राज्यों में घूमा.
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4. बंटवारे के खिलाफ दिया था शोक दिवस का नारा
स्वाधीनता से ठीक पहले जब देश बंटवारे की तैयारी शुरू हुई तो, गोडसे और उसके साथी इसके विरोध में उतर आए. इसकी खिलाफत के लिए तमाम रणनीतियां बनाई गईं और तय किया गया कि बंटवारे के विरोध में शोक दिवस मनाया जाएगा. 3 जुलाई 1947 को गोडसे, उसके साथियों और तमाम हिंदूवादी नेताओं ने जगह-जगह, खासकर महाराष्ट्र के तमाम इलाकों में शोक दिवस मनाया. हालांकि इस विरोध के बाद उसके अखबार 'अग्रणी' को सरकार ने बंद कर दिया, लेकिन कुछ दिनों बाद ही उसने 'हिंदू राष्ट्र' के नाम से नया अखबार निकाल दिया.
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5. लोग नेता मानते थे और वह लोगों से घबराता था
गोडसे और उसके साथियों ने जैसे-जैसे बंटवारे का विरोध करना शुरू किया, वैसे-वैसे उसके चाहने वाले भी बढ़े, खासकर कट्टर हिंदूवादी नेता और वे लोग जो गांधी के विचारों से इत्तेफाक नहीं रखते थे. पूना में तो एक तरीके से लोगों ने उसे अपना नेता मान लिया था. हालांकि भले ही सैकड़ों लोग गोडसे को अपना नेता मानते हों, लेकिन वह लोगों से घबराता था और भीड़ में जाने से कतराता था. डोमिनिक लॉपियर और लैरी कॉलिन्स के मुताबिक गोडसे कहता था, ''मैं समाज में लोगों से इसलिये मिलना-जुलना नहीं चाहता, ताकि सबसे अलग रहकर अपना काम करता रहूं''.
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1. 28 साल की उम्र लिया ब्रम्हचर्य का व्रत, आजीवन निभाया
19 मई 1910 को पुणे के एक कस्बे बारामती में जन्मा नाथूराम गोडसे बचपन से ही अपने इरादों पर अटल रहने वाला शख्स था. 28 साल की उम्र में जब उसने ब्रम्हचर्य का व्रत लिया तो आजीवन उसका पालन किया. गोडसे लोगों की निगाह में पहली बार आजादी के तीन महीनों बाद आया. 1 नवंबर 1947 को गोडसे के अखबार 'हिंदू राष्ट्र' के नए कार्यालय का उद्घाटन कार्यक्रम रखा गया. इस कार्यक्रम में पुणे (तब का पूना) के तमाम प्रतिष्ठित लोगों और खासकर हिंदुवादी नेताओं को आमंत्रित किया गया था. उस शाम गोडसे ने अपने भाषण में बंटवारा का पूरा ठीकरा गांधी के सिर पर फोड़ा. इतिहासकार डोमिनिक लॉपियर और लैरी कॉलिन्स अपनी किताब 'फ्रीडम एट मिडनाइट' में लिखते हैं, ''गोडसे ने गरजकर कहा, भारत माता के दो टुकड़े कर दिये गए हैं. गिद्ध मातृभूमि की बोटियां नोच रहे हैं. कितनी देर कोई यह सहन करेगा?''
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2. जासूसी फिल्में और कथाएं पढ़ने का था शौक
नाथूराम गोडसे अपने दोस्तों से बिल्कुल अलग था. मसलन, उसके करीबी दोस्तों में से एक नारायण आप्टे के पास जब भी थोड़े पैसे आते तो वह सीधे मुंबई अपने दर्जी के पास नए कपड़े सिलाने पहुंच जाता. अच्छा खाना खाता और पूरी मौज मस्ती करता, लेकिन गोडसे को इन सब में कोई दिलचस्पी नहीं थी. बकौल, डोमिनिक लॉपियर और लैरी कॉलिन्स, 'गोडसे को पेरी मेसन की जासूसी कथाएं पढ़ने और बहादुरी के कारनामों पर आधारित फिल्में देखने का शौक था. पूना के कैपिटल सिनेमा में अक्सर वह दो रुपये का टिकट लेकर अंग्रेजी की मारपीट और जासूसी भरी फिल्में देखते हुए पाया जाता था'.
3. महात्मा गांधी ही थे नाथूराम गोडसे के पहले आदर्श
क्या आप भरोसा करेंगे कि जिस महात्मा गांधी (Mahatma Gandhi) को गोडसे ने गोली मारी, कभी वही उसके आदर्श थे. जी हां... नाथूराम गोडसे को पहली बार महात्मा गांधी के सत्याग्रह आंदोलन के सिलसिले में ही जेल जाना पड़ा था. वह उनकी हर बात मानता था और उस पर भरोसा करता था, लेकिन बाद में वह अलग हो गया और बंटवारे के बाद तो उसके मन में गांधी के प्रति कटुता और बढ़ती चली गई. 1937 में गोडसे वीर सावरकर से जुड़ा और उन्हें अपना गुरु मान लिया. इसके बाद वह सावरकर के साथ तमाम राज्यों में घूमा.
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4. बंटवारे के खिलाफ दिया था शोक दिवस का नारा
स्वाधीनता से ठीक पहले जब देश बंटवारे की तैयारी शुरू हुई तो, गोडसे और उसके साथी इसके विरोध में उतर आए. इसकी खिलाफत के लिए तमाम रणनीतियां बनाई गईं और तय किया गया कि बंटवारे के विरोध में शोक दिवस मनाया जाएगा. 3 जुलाई 1947 को गोडसे, उसके साथियों और तमाम हिंदूवादी नेताओं ने जगह-जगह, खासकर महाराष्ट्र के तमाम इलाकों में शोक दिवस मनाया. हालांकि इस विरोध के बाद उसके अखबार 'अग्रणी' को सरकार ने बंद कर दिया, लेकिन कुछ दिनों बाद ही उसने 'हिंदू राष्ट्र' के नाम से नया अखबार निकाल दिया.
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5. लोग नेता मानते थे और वह लोगों से घबराता था
गोडसे और उसके साथियों ने जैसे-जैसे बंटवारे का विरोध करना शुरू किया, वैसे-वैसे उसके चाहने वाले भी बढ़े, खासकर कट्टर हिंदूवादी नेता और वे लोग जो गांधी के विचारों से इत्तेफाक नहीं रखते थे. पूना में तो एक तरीके से लोगों ने उसे अपना नेता मान लिया था. हालांकि भले ही सैकड़ों लोग गोडसे को अपना नेता मानते हों, लेकिन वह लोगों से घबराता था और भीड़ में जाने से कतराता था. डोमिनिक लॉपियर और लैरी कॉलिन्स के मुताबिक गोडसे कहता था, ''मैं समाज में लोगों से इसलिये मिलना-जुलना नहीं चाहता, ताकि सबसे अलग रहकर अपना काम करता रहूं''.
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