आखिरकार बीते एक साल से चल रही बीजेपी और भासपा के गठबंधन की रार चुनावी मैदान में तकरार में बदल ही गई. इस तकरार से पहले लग रहा था कि राजभरों की पूर्वांचल में वोट बैंक की फुहार इस सियासी तपिश को ठंढा कर देगी और बीजेपी अपने सहयोगी को मना लेगी. लेकिन ऐसा नहीं हुआ तो इसमें क्या सिर्फ ओम प्रकाश राजभर की अकड़ थी या बीजेपी की भी मंशा, इसे बहुत शिद्दत से गठबंधन के शुरुआती दिनों के समय से समझना होगा.
2012 के विधानसभा चुनाव में बलिया, गाज़ीपुर, मऊ, आजमगढ़, वाराणसी जैसी पूर्वांचल की तकरीबन 20 सीटों पर भासपा के प्रत्याशियों को इतने वोट मिले कि इन इलाकों में उन्हें अपनी ताकत का एहसास हो गया. इन इलाकों में लगभग 18 हज़ार से 50000 तक वोट मिले पर सीट कोई भी नहीं मिल पाई. ओम प्रकाश राजभर को ये भान हुआ कि बिना किसी मज़बूत कंधे के वो सत्ता की कुंजी नहीं पा सकते. लिहाजा 2014 में उन्हें कोई मज़बूत कंधा तो नहीं मिला पर उन्हीं की तरह उसी इलाके की एक क्षेत्रीय पार्टी कौमी एकता दल का साथ ज़रूर मिला. कौमी एकता दल और भासपा के गठबंधन से बलिया से अफ़ज़ाल अंसारी और सलेमपुर से खुद ओम प्रकाश राजभर उम्मीदवार हुए. इनमें किसी को जीत तो नहीं मिली पर अफ़ज़ाल को जहां एक 1.63 लाख यानी 17.40 प्रतिशत वोट मिले वहीं ओम प्रकाश राजभर को तकरीबन 68 हज़ार वोट मिले. दूसरी कुछ सीटों पर भी ऐसा ही कुछ देखने को मिला था.
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एक छोटी पार्टी के मिलने से राजभर के वोटों की इस नई ताकत पर बीजेपी की निगाह थी. लिहाजा ओम प्रकाश राजभर से 2017 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने समझौता कर लिया और वो जितनी सीट चाहते थे उतनी तो नहीं दी फिर भी भाजपा ने 8 सीटें दी. जिनमें 4 सीटों पर इन्हें जीत मिली. इस जीत के साथ सुहेल देव भारतीय समाज पार्टी का पहली बार विधानसभा में खाता भी खुला और ओम प्रकाश काबीना मंत्री भी बने. 2017 के विधानसभा चुनाव में भासपा से समझौते का परिणाम भी दिखा कि सूबे में बीजेपी ने अब तक के क्षेत्रीय पार्टियों के क्षत्रपों सपा-बसपा का लगभग सफाया कर दिया. इस जीत में ओम प्रकाश राजभर को लगा कि पूर्वांचल सहित प्रदेश की सीटों पर भाजपा की जीत का सेहरा उन्हीं की बिरादरी की वजह से सजा है. ये बात इससे भी समझी जा सकती है कि उन्होंने नाराज़ होकर इस बार उन्हीं 39 सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े भी किये हैं जिन सीटों पर वो बीजेपी से लोकसभा का टिकट मांग रहे थे.
प्रदेश की बीजेपी सरकार में मंत्री बनने के बाद से ही ओम प्रकाश राजभर ने 2019 के लोकसभा के चुनाव के लिये तैयारी शुरू कर दी और बीजेपी से ज़्यादा से ज़्यादा सीट लेने के लिये दबाव की राजनीति शुरू की. जिससे उनके और सरकार के बीच खींचतान शुरू हो गई. इस खींचतान से भाजपा उनकी मंशा को भांप गई और उससे निपटने के लिये अपने राजभर को तैयार करने में जुट गई. बीजेपी ने वाराणसी के शिवपुर विधानसभा सीट से अनिल राजभर को टिकट दिया और चुनाव जितने के बाद प्रदेश में मंत्री बना कर ताकत भी दी. अनिल राजभर ने भी अपनी बिरादरी को भाजपा से जोड़ने के लिये भरपूर कोशिश की और ताक़त का एहसास कराने के लिये कई जिले में रैली का भी आयोजन किया. लेकिन इन सब पर ओम प्रकाश राजभर काउंटर अटैक में भारी पड़ते नज़र आये. ओम प्रकाश राजभर ने बीजेपी पर ये आरोप भी लगाया कि बीजेपी उनके साथ विश्वास घात कर रही है. एक तरफ वो बिरादरी को तोड़ने के लिए अनिल राजभर को सपोर्ट कर रही है तो दूसरी तरफ उनकी ताकत काम करने के लिये उनका कोई काम नहीं कर रही है. यहां तक कि उनके इलाके का डीएम भी उनकी कोई बात नहीं मानता है. इसके लिए अपने ही सरकार के खिलाफ ओम प्रकाश राजभर ने बाकायदा अनशन पर भी बैठने की धमकी दी थी हालंकि बाद में उन्हें मना लिया गया था.
बीजेपी और ओम प्रकाश राजभर के बीच चल रही इस नूरा कुश्ती में बीजेपी जब अपने को कमजोर समझने लगी तब उसने कूटनीति का सहारा लिया. 2019 के चुनाव में उसने एक बार फिर समझौते की बात रखी. इस बार ओम प्रकाश राजभर ने लोकसभा की 2 सीटों के साथ अपने बिरादरी के कद्दावर नेताओं को विभिन्न आयोगों में अध्यक्ष और उपाध्यक्ष बनाने की पेशकश रखी. बीजेपी ने आयोगों में उनके लोगों को अध्यक्ष और उपाध्यक्ष बनने के बात मान ली और तकरीबन 9 लोगों की पूरी लिस्ट को उन्होंने आयोग में एडजस्ट कर दिया. इसके बाद राजभर थोड़ा शांत हो गए. उनकी अपनी बिरादरी में भी बीजेपी की पैठ होने लगी. पर अभी खेल का क्लाइमेक्स बाकी था. लोकसभा के चुनाव में बीजेपी ने जितने टिकट ओम प्रकाश मांग रहे थे, उसे देने से इंकार कर दिया और एक सीट घोसी की जो उनको दे भी रही थी तो इस शर्त पर कि वो खुद इस सीट पर बीजेपी के सिम्बल से लड़ें.
बीजेपी का ओम प्रकाश राजभर को ये धीरे से मगर जोर का झटका था. इस चाल की वो उम्मीद भी नहीं लगाये थे. फिर क्या था, वो बिदक गये और फ़ौरन ये ऐलान कर दिया कि उनकी पार्टी इस चुनाव में बीजेपी से अलग होकर लड़ेगी. अपनी बिरादरी को अपनी तरफ रोकने के लिये ये ऐलान भी किया कि उनके लिये सांसद बनना महत्वपूर्ण नहीं है, महत्वापूर्ण है अपनी बिरादरी के अधिकार के लिये लड़ना. एक टैम्पो चालाक से शुरू कर मंत्री तक का सफर तय करने वाले ओम प्रकाश राजभर ने सन 2002 में अपनी पार्टी का गठन किया और अपने इसी बागी तेवर से अपनी बिरादरी को जोड़ कर पार्टी को इस हैसियत तक पहुंचाया है. अब वो एक बार फिर अपनी पार्टी के अस्तित्व के लिए बीजेपी से दो-दो हाथ करने के लिए मैदान में हैं. ऐसे में देखने वाली बात ये है कि उनकी बिरादरी बीजेपी के राजभर के साथ खड़ी होती है या उनके साथ.
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