संजीव चतुर्वेदी वापस ट्रिब्यूनल जाएं: उत्तराखंड हाईकोर्ट

भारतीय वन सेवा के चर्चित अधिकारी संजीव चतुर्वेदी की एक याचिका पर उत्तराखंड हाइकोर्ट ने पिछली 19 जून को एक ऐसा फैसला सुनाया है जो चर्चा में है.

संजीव चतुर्वेदी वापस ट्रिब्यूनल जाएं: उत्तराखंड हाईकोर्ट

संजीव चतुर्वेदी (फाइल फोटो)

खास बातें

  • उत्तराखंड हाइकोर्ट ने पिछली 19 जून को सुनाया फैसला
  • चर्चित अधिकारी संजीव चतुर्वेदी की एक याचिका पर फैसला
  • कोर्ट ने संजीव चतुर्वेदी को ट्रिब्यूनल जाने को कहा
नई दिल्ली:

कई घोटालों का पर्दाफाश करने वाले भारतीय वन सेवा के चर्चित अधिकारी संजीव चतुर्वेदी की एक याचिका पर उत्तराखंड हाइकोर्ट ने पिछली 19 जून को एक ऐसा फैसला सुनाया है जो चर्चा में है. कानून के जानकार इस फैसले में कई विरोधाभास देख रहे हैं. चीफ जस्टिस के एम जोजफ और जस्टिस आलोक सिंह की खंडपीठ ने ये तो माना कि चतुर्वेदी की हाइकोर्ट से इंसाफ मांगने की याचिका सही है लेकिन फिर उन्हें 1997 के सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले को उद्धत करते हुये वापस ट्रिब्यूनल जाने को कह दिया. दिलचस्प है कि हाइकोर्ट ने चतुर्वेदी की याचिका खारिज नहीं की और फैसले में ये भी लिखा कि अगर ट्रिब्यूनल से उन्हें राहत नहीं मिलती तो उनके लिए हाइकोर्ट के दरवाज़े खुले हैं.

जहां एक ओर कई सालों से प्रताड़ना झेल रहे वन सेवा के अधिकारी के लिए अदालत का ये फैसला एक झटका माना जा रहा है वहीं फैसले का बारीक अध्ययन करने से पता चलता है कि इसमें कई विरोधाभास है.

क्या है मामला?
संजीव चतुर्वेदी – जिन्हें भ्रष्टाचार से लड़ने में उल्लेखनीय योगदान के लिये 2015 में रमन मैग्सेसे पुरस्कार दिया गया - ने उत्तराखंड हाइकोर्ट के सामने अपनी एपीएआर (सालाना परफोर्मेंस रिपोर्ट) को ज़ीरो रेटिंग दिये जाने का सवाल उठाया था. चतुर्वेदी ने कहा था कि जिस अधिकारी (एम्स डायरेक्टर)  के खिलाफ उन्होंने एम्स में सतर्कता अधिकारी रहते जांच की और सीबीआई ने उस जांच रिपोर्ट पर कार्रवाई की सिफारिश की वही अधिकारी उनकी एपीएआर कैसे लिख सकता है? अपने पक्ष में चतुर्वेदी ने केंद्रीय सतर्कता आयोग के नियमों का हवाला दिया जिसमें कहा गया है कि वह अधिकारी किसी की परफोर्मेंस रिपोर्ट नहीं लिख सकता जिसकी जांच या शिकायत सम्बन्धित अधिकारी ने की हो.

ये भी महत्वपूर्ण है कि इससे पहले 2002 बैच के भारतीय वन सेवा के इस अफसर की सालाना परफोर्मेंस रिपोर्ट 14 साल तक आउटस्टैंडिंग रही और 2016-17 में भी उन्हें आउटस्टैंडिंग रेटिंग दी गई है. यानी केवल एक साल 2015-16 में खराब रेटिंग दी गई. ध्यान देने की बात है कि इसी साल चतुर्वेदी को रमन मैग्सेसे अवॉर्ड भी मिला. चतुर्वेद ने अदालत में कहा कि ये उनके मौलिक अधिकारों के हनन का मामला है क्योंकि एपीएआर ज़ीरो कर देने से उनका करियर खतरे में है यानी वो कभी भी नौकरी से निकाले जा सकते हैं. चतुर्वेदी ने ये भी कहा कि 2015-16 में उन्हें कोई काम ही नहीं दिया गया था जिसके खिलाफ उन्होंने ट्रिब्यूनल में अपील की थी. अगर काम ही नहीं था तो परफोरमेंस रिपोर्ट ज़ीरो किसलिये की गयी.

अदालत ने जब इस बारे में केंद्र सरकार की ओर से खड़े एडीशनल सोलिसिटर जनरल राकेश थपलियाल से सवाल किया तो उन्होंने कहा कि चतुर्वेदी को हाइकोर्ट में आने से पहले ट्रिब्यूनल (सरकारी अफसरों की प्राथमिक अदालत) में गुहार करना चाहिये. सरकार की मांग पर हाइकोर्ट ने भी सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले को उद्धत किया जिसमें कहा गया था कि याचिकाकर्ता को हाइकोर्ट में सीधे नहीं आना चाहिये.  

चतुर्वेदी ने इसके खिलाफ दलील देते हुए कहा कि यही अदालत (उत्तराखंड हाइकोर्ट) इस तरह के सैकड़ों मामलों में न केवल सुनवाई कर चुकी है बल्कि फैसले भी दिए हैं. एक मामला राज्य के प्रमोटी वन सेवा अफसर अशोक कुमार गुप्ता का है. इस अफसर ने अपनी पदोन्नति को रोकने के लिए हाइकोर्ट से गुहार लगाई ताकि वह उसी पद पर रह चुके जिस पर पिछले 6 सालों से है.

चतुर्वेदी ने अदालत से कहा कि  एएसजी राकेश थपलियाल  - जो चतुर्वेदी से पहले ट्रिब्यूनल जाने को कह रहे हैं – गुप्ता के मामले में वकील रह चुके हैं लेकिन अभी उनके केस में बिल्कुल विपरीत दलील दे रहे हैं. इस तर्क के बावजूद अदालत ने चतुर्वेदी से कहा कि वह पहले ट्रिब्यूनल जाएं और अगर वहां उन्हें राहत नहीं मिलती को हाइकोर्ट वापस आ सकते हैं. चतुर्वेदी की दलील पर कोर्ट ने कहा, “याचिकाकर्ता का केस इस बात पर नहीं माना जा सकता कि कोर्ट ने पहले इस तरह के मामलों में दखल दिया है. इस मामले में विरोधी पक्ष (रेपोन्डेंट) ने तुरंत आपत्ति की है. किसी दूसरी रिट पिटीशन पर किसी त्रुटिपूर्ण तरीके से सुनवाई हुई है तो इससे याचिकाकर्ता को ये फायदा नहीं मिल जाता कि हम सुप्रीम कोर्ट की ओर से तय किये गए नियम कायदों को न मानें.”
 
अदालत ने अपने फैसले में माना है कि याचिकाकर्ता (संजीव चतुर्वेदी) का ये कहना सही है कि केवल वैकल्पिक उपाय (ट्रिब्यूनल में जाने का विकल्प) होना अनुच्छेद 226/227 के तहत अदालत (हाइकोर्ट) को इस मामले में सुनवाई के अधिकार से वंचित नहीं करता. संविधान ने अधिकार दिये हुये हैं.  हाइकोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि अगर मौलिक अधिकार खतरे में हों तो ऐसे अदालत दखल दे सकती है लेकिन सुप्रीम कोर्ट के एल चंद्र कुमार केस में दिए फैसले का जिक्र करते हुये ये भी कहा कि ये नियम उस केस में लागू  होना ज़रूरी नहीं है जहां मामला एडमिनिस्ट्रेटिव ट्रिब्यूनल एक्ट के अंतर्गत आता हो (जैसे चतुर्वेदी के केस में है) .  

अपने फैसले में अदालत ने सुप्रीम कोर्ट के 1997 में सुनाए एक फैसले के आधार पर कहा, “याचिकाकर्ता को एडमिनिस्ट्रेटिव ट्रिब्यूनल एक्ट के तहत ट्रिब्यूनल जाना चाहिए. हम ये याचिकाकर्ता पर छोड़ते हैं कि वह अपने सारे अधिकारों का वहां इस्तेमाल करे. अगर ट्रिब्यूनल में उनकी याचिका इस आधार पर खारिज हो जाये कि उनका कानूनी अधिकार नहीं है तो हम याचिकाकर्ता के इस अदालत में वापस आने का रास्ता खुला रखते हैं .”

चतुर्वेदी के मामले में फैसला देने के बाद भी जस्टिस जोजफ की बेंच ने ही कई दूसरी याचिकायें मंज़ूर की है. इसमें से एक मामले में तो याचिकार्ता के पक्ष में फैसला भी सुनाया गया है. कानून के जानकार इसे हैरानी वाली स्थिति बता रहे हैं.

सुप्रीम कोर्ट के वकील सुदर्शन गोयल का कहना है, “इस तरह का आदेश हैरान - परेशान करने वाला है. यह अधिक महत्वपूर्ण इसलिये हो जाता है क्योंकि सरकार ने चतुर्वेदी को लंबे समय से प्रताड़ित किया है और इस मामले में संजीव चतुर्वेदी ने केंद्रीय मंत्री जे पी नड्डा को आरोपी बनाया है. यही बेंच पहले इस तरह के सैकड़ों केस सुन चुकी है और उनमें से कई में याचिकाकर्ता के पक्ष में फैसले भी दिए हैं. यहां चतुर्वेदी को कोर्ट गलत नहीं मान रही फिर भी उन्हें राहत देने के बजाय ट्रिब्यूनल जाने को कहती है. हमें पता चला है कि कुछ दिन बाद अदालत फिर से ऐसे ही मामलों को न केवल सुनवाई के लिये स्वीकार कर रही है बल्कि उन पर याचिकाकर्ता के पक्ष में फैसला भी सुना रही है."


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