ग्रेटर नोएडा: गांवों में स्वास्थ्य सेवाएं बदहाल, कोरोना पर कैसे होगा मुकाबला?

दादुपुर के प्राथमिक स्वास्थ्य उप केंद्र में नो तो कुर्सी, टेबल, न ही दवा, नर्स और डॉक्टर, इलाज न होने से कोरोना से संक्रमित एक व्यक्ति की मौत हुई

ग्रेटर नोएडा: गांवों में स्वास्थ्य सेवाएं बदहाल, कोरोना पर कैसे होगा मुकाबला?

प्रतीकात्मक फोटो.

नई दिल्ली:

ग्रेटर नोएडा (Greater Noida) के दादुपुर का प्राथमिक स्वास्थ्य उप केंद्र झाड़ियों के बीच बना है. इस केन्द्र के एक कमरे में ताला लगा है और बाकी के दरवाजे खुले हैं. किसी भी कमरे में  कुर्सी टेबल या फिर दवा देखने को नहीं मिलेगी. जब कुर्सी और दवा नही तो फिर नर्स और डॉक्टर कहां दिखेंगे? गांव वालों के मुताबिक यह इमारत बनी तो दस साल पहले पर स्वास्थ्य केन्द्र नहीं खुल पाया. शायद यही वजह है कि यहां बोर्ड भी नहीं लगा है.

पूर्व प्रधान प्रेम राज सिंह कहते हैं कि ''यहां कोई डॉक्टर नहीं आया, सब लोग झोला छाप  डाक्टर के भरोसे हैं.'' दस हजार की आबादी के लिए बना यह केन्द्र दस साल में खुल नहीं पाया. कोविड से गांव में चार लोगों की मौत हो गई. तबीयत खराब होने पर इलाज के लिए लोगों को आठ किलोमीटर दूर दनकौर जाना पड़ता है. 

गांव में स्वास्थ्य केन्द्र न होने की कीमत दादूपुर गांव के ही रहने वाले सन्नी के परिवार वालों को चुकाना पड़ा. सन्नी के बड़े भाई की मौत कोरोना से हो गई. सन्नी कहते हैं कि ''अगर समय पर इलाज मिलता तो शायद भाई बच जाते. यहां पर केन्द्र होता तो दवा भी मिल जाती.''  

ऐसा नहीं है कि प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र की खस्ता हालत केवल दादूपूर में ही है. जोनचाना गांव में तो आयुष्मान भारत आरोग्य केंद्र का बोर्ड भी लगा हुआ है. यह सन 1960 में बना था. पर गांव वाले कहते हैं कि यहां तो पिछले एक साल से डॉक्टर ही नहीं है. 18 दिनों से तो गेट भी नहीं खुला है. योगेन्द्र त्यागी ने बताया कि कागजों पर तो यहां डॉक्टर भी है, दवा भी दी जाती है. जीराज त्यागी बताते हैं कि यह 15 गांवों के लिए है. लोग परेशान होते हैं.  

ग्रेटर नोएडा के दो प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों का यह हाल है तो पांच हजार की आबादी वाले भट्टा परसौल के प्राथमिक स्वास्थ्य उप केंद्र की हालत कैसे बेहतर होती. साल 2011 में यह गांव तब चर्चा में आया था जब यहां जमीन अधिग्रहण के खिलाफ आंदोलन हुआ था. आसपास के पांच गांवों के लिए 2006 में यहां भी प्राथमिक स्वास्थ्य उप केंद्र बना और 2011 में कुछ महीनों के तक खुला रहा. फिर उसमें ऐसा ताला लगा कि अब तक बंद पड़ा है. 

कागजों पर गांवों की स्वास्थ्य सेवा को बेहतर करने के लिए प्राथमिक स्वास्थ केन्द्र के लिए इमारत तो बना दी गई पर यह नहीं सोचा गया कि इन केन्द्रों को चलाने को लिए डॉक्टर, नर्स और दवा का इंतजाम करना भी जरूरी है.  
सोशल वर्कर ओमकार भाटी कहते हैं कि कागजों पर ज्यादा केन्द्र चलते हैं. 

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यह बात किसी से छुपी नहीं है कि अब कोरोना शहरों से गांवों में पैर पसार चुका है और स्वास्थ्य सुविधाओं की ऐसी हालत में उसे काबू करना काफी मुश्किल है.