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1995 में संसद ने दिल्ली रेंट कंट्रोल ऐक्ट पास किया। राष्ट्रपति की मंजूरी भी मिल गई, लेकिन सरकार लागू नहीं कर पाई क्योंकि कारोबारी और किराएदार इसके खिलाफ थे। नतीजा 1955 का कानून चलता रहा और औने−पौने किराए बने रहे, लेकिन कारोबारियों पर 1995 के पास कानून की
अब सरकार ने इसे भी हटाने का फैसला किया है। बहाना नया कानून बनाने का है। जाहिर है ये कारोबारियों को लुभाने की और बीजेपी के वोट बैंक में सेंध लगाने की भी कोशिश है।
गुरुवार को कैबिनेट ने दिल्ली रेंट कंट्रोल एक्ट को खत्म करने पर कैबिनेट ने अपनी सहमति जता दी है। बीजेपी दिल्ली रेंट कंट्रोल एक्ट का लगातार विरोध करती रही है, जाहिर है कि ये बीजेपी के वोट बैंक में सेंध लगाने की कोशिश है।
कैबिनेट का फैसला दिल्ली में उन कारोबारियों के लिये किसी खुशखबरी से कम नहीं है जो किराये की दुकानों से कारोबार चला रहे हैं। 1995 में बना दिल्ली रेंट कंट्रोल ऐक्ट तभी से ठंडे बस्ते में पड़ा था जबकि इसे संसद ने पास कर दिया था और राष्ट्रपति
ने भी इसे मंजूरी दे दी थी, लेकिन विरोध की वजह से सरकार अधिसूचना जारी नहीं कर सकी।
शहरी विकास मंत्रालय के सूत्रों ने एनडीटीवी को बताया कि मंत्री कमलनाथ मानते थे कि 1995 का कानून पुराना है और इस दौरान आर्थिक और सामाजिक बदलाव आए हैं। उनको देखते हुए नए कानून की जरूरत है।
मंत्रालय चाहता है कि नया कानून मकान मालिक और किरायेदार दोनों के लिए फायदे का होना चाहिए। मंत्रालय का मानना है कि 1958 के पुराने कानून की वजह से संपत्तियों की हालत बहुत खराब हो चुकी है क्योंकि न मकान मालिक इनकी मरम्मत करवाता है और न ही किरायेदार।
नवंबर में होने वाले विधानसभा चुनावों से ठीक पहले दिल्ली रेंट कंट्रोल ऐक्ट को खत्म करके सरकार ने उन हजारों किरायेदारों को राहत पहुंचाने की कोशिश की है जिनको हमेशा किराया बढ़ने का डर खाता रहता था। चुनावों से पहले हजारों लोगों को राहत चुनाव में कुछ भी गुल खिला सकती है।
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