संतोष का बिलखता परिवार
वाराणसी:
एक बहन ने अपने भाई के इलाज के लिए जमीन आसमान एक कर दिया। उसके भाई संतोष की किडनी खराब थी। डॉक्टरों ने किडनी ट्रांसप्लांट की सलाह दी। छोटी बहन की किडनी मैच कर गई। इस बीच पैसा आड़े आ रहा था, जिसकी कमी प्रधानमंत्री राहत कोष ने पूरी कर दी। बावजूद इसके बहन अपने भाई को नहीं बचा सकी। क्योंकि पीजीआई लखनऊ में इस तरह मरीजों के संख्या उनकी क्षमता से ज़्यादा है। जिसकी वजह से उसे लम्बी डेट मिल रही थी। इस डेट का इंतज़ार संतोष और उसकी बहन तो कर रही थी पर मौत को इंतज़ार मंजूर नहीं था। वो बड़ी बेसब्र निकली और उनकी ज़िन्दगी से उनके भाई संतोष को हमेशा के लिए छीन कर ले गई।
भाई के जाने का ये सदमा बहन रेखा पर ऐसा पड़ा है कि वो उसके गम में कभी बेहोश होती है, तो कभी उठ कर उसके लिए खाना बनाने कि जिद करने लगती है। फिर अचानक उसे लोरी भी सुनाने लगती है। सारा घर अब उसे संभाल रहा है। उन्हें लगता है कि उनके भाई को बीमारी से कहीं ज्यादा सिस्टम ने मारा है इसलिए वो चाहती है कि ये सिस्टम ठीक हो।
संतोष की बहन रीता बताती हैं कि आज निराशा इस बात की है कि मेरे घर का चिराग चला गया वो पांच बहनों, दो भाइयों का भार लेकर चलता था। इस घर का आर्थिक सहारा था और उसमें जीने की बहुत इच्छा थी और इस सिस्टम ने उसे मार डाला। इस सिस्टम को बदलना चाहिए क्योंकि जैसे आज हम रो रहे हैं वैसे कोई और न रोये।
इस खबर के बाद मीडिया का जमावड़ा जब उसके घर पहुंचता है तो रेखा कुछ यूं डांटते हुए सभी को भगाती है। वह कहती है कि आप लोग चले जाइये, आप लोगों ने मेरे भैया के लिए कुछ नहीं किया।
संतोष की बहन रीता कहती है कि मैं लगातार आठ महीने से दौड़ रही हूं। लखनऊ से बनारस, बनारस से लखनऊ, पीएमओ आफिस बनारस वहां से पीजीआई फिर वहां से मेडिकल कालेज लखनऊ। मेडिकल कालेज लखनऊ तो दो महीने से दौड़ रही थी पर एसजीपीजीआई और पीएमओ आफिस तो आठ महीने से दौड़ रही थी। वहां पर सिर्फ आश्वाशन ही मिल रहा था कि रीता जी यहां चली जाइए, वहां चली जाइए, उस नेता से मिल लीजिए लेकिन कुछ नहीं हुआ।
इन आठ महीनों में संतोष की बहनों ने अपने भाई के इलाज के लिए हर कोशिश की। मां बाप का साया पहले ही उठ चुका है। लिहाजा संतोष आस-पड़ोस के बच्चों को पढ़ाकर घर का गुजारा चलाता था। वहीं, भाई जब बीमार पड़ गया तो बहनों ने इलाज के पैसे के लिए मकान गिरवी रख दिया। जब ट्रांसप्लांट की बात आई तो पीएमओ आफिस में गुहार लगाईं, वहां सुनवाई भी हुई और 2 लाख 17 हज़ार की मदद भी मिली। जो एसजीपीजीआई में जमा हो गया। लेकिन वहां उसे ट्रांसप्लांट के लिए तारीख नहीं मिली।
एसजीपीजीआई ने कहा कि डेट इतनी जल्दी नहीं मिल पाएगी और डेट लेनी है तो साल डेढ़ साल बाद नंबर मिल सकता है और अगर प्रॉब्लम होती है तो डेली डायलिसिस कराओ। पर बड़ा सवाल ये है कि जिसके पास धन नहीं वो हर रोज कैसे डायलिसिस करा सकता है क्योंकि एक डायलिसिस में चार से पांच हज़ार रुपये खर्च होते हैं।
लिहाजा घर भी गिरवी रख कर सभी भाई बहन हिम्मत कर रहे थे। पर जब डेट नहीं मिली और किडनी इंतज़ार नहीं कर सकी तो संतोष हमेशा के लिये अपने भाई बहनों से दूर चला गया। आज उसके भाई बहन ये कह रहे हैं कि प्रधानमंत्री ने उसे पैसा तो दिला दिया पर डेट नहीं दिला पाए।
हालांकि संतोष और उसकी बहनों को तो डाक्टरों की दी डेट का इंतज़ार था पर मौत बहुत बेसब्र थी, उसने इंतज़ार नहीं किया। संतोष की मौत कई सवाल खड़े कर रहे है। क्या इस देश में गरीबों के इलाज का सुध लेने वाला कोई नहीं, क्या आजादी के इतने साल बाद भी हम इस तरह कि व्यवस्था नहीं कर पाए हैं कि किडनी ट्रांसप्लांट जैसे गंभीर इलाज के लिए हर जिले में एक मुकम्मल व्यवस्था हो सके, क्या हम इस देश में इस तरह कि बीमारियों के लिये लंबी लाइन को खत्म कर सकेंगे। इसका जवाब देश के नेताओं को ज़रूर देना पड़ेगा।
भाई के जाने का ये सदमा बहन रेखा पर ऐसा पड़ा है कि वो उसके गम में कभी बेहोश होती है, तो कभी उठ कर उसके लिए खाना बनाने कि जिद करने लगती है। फिर अचानक उसे लोरी भी सुनाने लगती है। सारा घर अब उसे संभाल रहा है। उन्हें लगता है कि उनके भाई को बीमारी से कहीं ज्यादा सिस्टम ने मारा है इसलिए वो चाहती है कि ये सिस्टम ठीक हो।
संतोष की बहन रीता बताती हैं कि आज निराशा इस बात की है कि मेरे घर का चिराग चला गया वो पांच बहनों, दो भाइयों का भार लेकर चलता था। इस घर का आर्थिक सहारा था और उसमें जीने की बहुत इच्छा थी और इस सिस्टम ने उसे मार डाला। इस सिस्टम को बदलना चाहिए क्योंकि जैसे आज हम रो रहे हैं वैसे कोई और न रोये।
इस खबर के बाद मीडिया का जमावड़ा जब उसके घर पहुंचता है तो रेखा कुछ यूं डांटते हुए सभी को भगाती है। वह कहती है कि आप लोग चले जाइये, आप लोगों ने मेरे भैया के लिए कुछ नहीं किया।
संतोष की बहन रीता कहती है कि मैं लगातार आठ महीने से दौड़ रही हूं। लखनऊ से बनारस, बनारस से लखनऊ, पीएमओ आफिस बनारस वहां से पीजीआई फिर वहां से मेडिकल कालेज लखनऊ। मेडिकल कालेज लखनऊ तो दो महीने से दौड़ रही थी पर एसजीपीजीआई और पीएमओ आफिस तो आठ महीने से दौड़ रही थी। वहां पर सिर्फ आश्वाशन ही मिल रहा था कि रीता जी यहां चली जाइए, वहां चली जाइए, उस नेता से मिल लीजिए लेकिन कुछ नहीं हुआ।
इन आठ महीनों में संतोष की बहनों ने अपने भाई के इलाज के लिए हर कोशिश की। मां बाप का साया पहले ही उठ चुका है। लिहाजा संतोष आस-पड़ोस के बच्चों को पढ़ाकर घर का गुजारा चलाता था। वहीं, भाई जब बीमार पड़ गया तो बहनों ने इलाज के पैसे के लिए मकान गिरवी रख दिया। जब ट्रांसप्लांट की बात आई तो पीएमओ आफिस में गुहार लगाईं, वहां सुनवाई भी हुई और 2 लाख 17 हज़ार की मदद भी मिली। जो एसजीपीजीआई में जमा हो गया। लेकिन वहां उसे ट्रांसप्लांट के लिए तारीख नहीं मिली।
एसजीपीजीआई ने कहा कि डेट इतनी जल्दी नहीं मिल पाएगी और डेट लेनी है तो साल डेढ़ साल बाद नंबर मिल सकता है और अगर प्रॉब्लम होती है तो डेली डायलिसिस कराओ। पर बड़ा सवाल ये है कि जिसके पास धन नहीं वो हर रोज कैसे डायलिसिस करा सकता है क्योंकि एक डायलिसिस में चार से पांच हज़ार रुपये खर्च होते हैं।
लिहाजा घर भी गिरवी रख कर सभी भाई बहन हिम्मत कर रहे थे। पर जब डेट नहीं मिली और किडनी इंतज़ार नहीं कर सकी तो संतोष हमेशा के लिये अपने भाई बहनों से दूर चला गया। आज उसके भाई बहन ये कह रहे हैं कि प्रधानमंत्री ने उसे पैसा तो दिला दिया पर डेट नहीं दिला पाए।
हालांकि संतोष और उसकी बहनों को तो डाक्टरों की दी डेट का इंतज़ार था पर मौत बहुत बेसब्र थी, उसने इंतज़ार नहीं किया। संतोष की मौत कई सवाल खड़े कर रहे है। क्या इस देश में गरीबों के इलाज का सुध लेने वाला कोई नहीं, क्या आजादी के इतने साल बाद भी हम इस तरह कि व्यवस्था नहीं कर पाए हैं कि किडनी ट्रांसप्लांट जैसे गंभीर इलाज के लिए हर जिले में एक मुकम्मल व्यवस्था हो सके, क्या हम इस देश में इस तरह कि बीमारियों के लिये लंबी लाइन को खत्म कर सकेंगे। इसका जवाब देश के नेताओं को ज़रूर देना पड़ेगा।
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