बेंगलुरु:
2008 में उत्तरी कर्नाटक के हुबली में जिस टेरर मॉड्यूल का पर्दाफाश कर सीआईडी ने एक बड़े आतंकी साज़िश के पर्दाफाश करने का दावा किया उसकी धज्जियां सत्र न्यायालय में उड़ गयीं।
हुबली के प्रथम अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश गोपालकृष्ण कोल्ली ने इस मामले में गिरफ्तार सभी 16 आरोपियों को रिहा करने का आदेश देते हुए कहा कि पुलिस की जांच निम्न स्तर की है और जैसा कि बचाव पक्ष कह रहा है ऐसा लगता है कि सबूत फ़र्ज़ी हैं।
ये फैसला 30 अप्रैल 2015 को आया लेकिन अबतक सिर्फ 4 लोग ही रिहा हो पाए हैं। क्योंकि 2008 में इनकी गिरफ्तारी के बाद देश के अलग अलग इलाक़ों में हुए आतंकी कारवाई से जुड़े मामले इन पर थोप दिए गए। और इस वजह से इन लोगों का छूटना मुश्किल हो गया है।
जो लोग रिहा किये गए हैं उनमें से एक है समीर। उसका दावा है कि सीआईडी के तब के डीआईजी अलोक कुमार उसपर लगातार दबाव बना रहे थे कि वो सरकारी गवाह बन जाये और गिरफ्तार दूसरे लोगों के खिलाफ गवाही दे। गवाही में ये बोलना था कि वो लोग विस्फोटक बनाकर बड़ी कार्रवाई करने वाले थे जब पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार किया।
मानवाधिकार संगठनों के लिए काम करने वाले वरिष्ठ वकील एस.ए.एच रिज़्वी का दावा है कि इस मामले में अदालत के आदेश की कॉपी में साफ़ लिखा है कि मामले की जांच करने वाले पुलिस अधिकारी सिद्धाप्पा ने माना है कि उसने डीआईजी अलोक कुमार के कहने पर समीर को न सिर्फ गिरफ्तार किया बल्कि उसे गैरकानूनी ढंग से पुलिस हिरासत में भी चार दिनों तक रखा।
अदालत के दस्तावेज़ों के मुताबिक जज को भी लगा कि सबूत बेबुनियाद हैं और कई जगह फ़र्ज़ी, ऐसे में अदालत ने सभी को बरी करने का आदेश दिया। जनवरी 2008 में 2 मोटरसाइकिल चोरों को पुलिस ने गिरफ्तार किया और दो दिनों के अंदर इस मामले को सीआईडी को सौंप दिया गया। ऐसे में अदालत ने जब पुलिस से पूछा कि 2 दिनों के अंदर चोरी का मामला किस आधार पर सीआईडी को सौंपा गया तो पुलिस इसका ठोस जवाब नहीं दे सकी।
अदालत ने इन आरोपियों के बग़ैर मर्ज़ी के नार्को एनालिसिस टेस्ट करवाने पर भी आपत्ति जताई। पुलिस ने इन सभी 16 आरोपियों पर आतंकवाद से लेकर देशद्रोह से जुड़ी तक़रीबन सभी धाराओं के तहत मुक़दमा दर्ज किया था। फिलहाल अलोक कुमार निलंबित हैं क्योंकि हाल ही में लॉटरी घोटाले में नाम आने के बाद सरकार ने उनके निलंबन का आदेश दिया था।
हुबली के प्रथम अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश गोपालकृष्ण कोल्ली ने इस मामले में गिरफ्तार सभी 16 आरोपियों को रिहा करने का आदेश देते हुए कहा कि पुलिस की जांच निम्न स्तर की है और जैसा कि बचाव पक्ष कह रहा है ऐसा लगता है कि सबूत फ़र्ज़ी हैं।
ये फैसला 30 अप्रैल 2015 को आया लेकिन अबतक सिर्फ 4 लोग ही रिहा हो पाए हैं। क्योंकि 2008 में इनकी गिरफ्तारी के बाद देश के अलग अलग इलाक़ों में हुए आतंकी कारवाई से जुड़े मामले इन पर थोप दिए गए। और इस वजह से इन लोगों का छूटना मुश्किल हो गया है।
जो लोग रिहा किये गए हैं उनमें से एक है समीर। उसका दावा है कि सीआईडी के तब के डीआईजी अलोक कुमार उसपर लगातार दबाव बना रहे थे कि वो सरकारी गवाह बन जाये और गिरफ्तार दूसरे लोगों के खिलाफ गवाही दे। गवाही में ये बोलना था कि वो लोग विस्फोटक बनाकर बड़ी कार्रवाई करने वाले थे जब पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार किया।
मानवाधिकार संगठनों के लिए काम करने वाले वरिष्ठ वकील एस.ए.एच रिज़्वी का दावा है कि इस मामले में अदालत के आदेश की कॉपी में साफ़ लिखा है कि मामले की जांच करने वाले पुलिस अधिकारी सिद्धाप्पा ने माना है कि उसने डीआईजी अलोक कुमार के कहने पर समीर को न सिर्फ गिरफ्तार किया बल्कि उसे गैरकानूनी ढंग से पुलिस हिरासत में भी चार दिनों तक रखा।
अदालत के दस्तावेज़ों के मुताबिक जज को भी लगा कि सबूत बेबुनियाद हैं और कई जगह फ़र्ज़ी, ऐसे में अदालत ने सभी को बरी करने का आदेश दिया। जनवरी 2008 में 2 मोटरसाइकिल चोरों को पुलिस ने गिरफ्तार किया और दो दिनों के अंदर इस मामले को सीआईडी को सौंप दिया गया। ऐसे में अदालत ने जब पुलिस से पूछा कि 2 दिनों के अंदर चोरी का मामला किस आधार पर सीआईडी को सौंपा गया तो पुलिस इसका ठोस जवाब नहीं दे सकी।
अदालत ने इन आरोपियों के बग़ैर मर्ज़ी के नार्को एनालिसिस टेस्ट करवाने पर भी आपत्ति जताई। पुलिस ने इन सभी 16 आरोपियों पर आतंकवाद से लेकर देशद्रोह से जुड़ी तक़रीबन सभी धाराओं के तहत मुक़दमा दर्ज किया था। फिलहाल अलोक कुमार निलंबित हैं क्योंकि हाल ही में लॉटरी घोटाले में नाम आने के बाद सरकार ने उनके निलंबन का आदेश दिया था।
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