मनाली मत जइयो, गोरी राजा के राज में....पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की लोकप्रिय कविताएं

देश काल और विभिन्न परिस्थियों के हिसाब से लिखी गईं उनकी कविताएं लोग चाव से पढ़ते हैं. बीजेपी के कई नेता बहस के दौरान उनकी कविताओं के माध्यम से ही अपनी बात रखते हैं

मनाली मत जइयो, गोरी राजा के राज में....पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की लोकप्रिय कविताएं

पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ( फाइल फोटो )

नई दिल्ली:

पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी न सिर्फ राजनीति के अजातशत्रु हैं बल्कि एक कवि के रूप में भी उन्होंने अपनी छाप छोड़ी है. उनकी एक एक कविता 'काल के कपाट पर लिखता-मिटाता हूं...गीत नया गाता हूं.. हर किसी की जुबान पर चढ़ी है. देश काल और विभिन्न परिस्थियों के हिसाब से लिखी गईं उनकी कविताएं लोग चाव से पढ़ते हैं. बीजेपी के कई नेता बहस के दौरान उनकी कविताओं के माध्यम से ही अपनी बात रखते हैं. उनकी कविताओं का संग्रह 'मेरी इक्यावन कविताएं' काफी मशहूर हैं और एक कविता को तो लता मंगेसकर ने भी आवाज भी दी है. 

 
जब अटल बिहारी वाजपेयी ने अरुण जेटली और जसवंत सिंह से कहा था- अब पूछने से क्या फायदा?, दोनों चुपचाप कमरे से बाहर चले गये

पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की कुछ  मशहूर कविताएं


बाधाएँ आती हैं आएँ
घिरें प्रलय की घोर घटाएँ,
पावों के नीचे अंगारे,
सिर पर बरसें यदि ज्वालाएँ,
निज हाथों में हँसते-हँसते,
आग लगाकर जलना होगा।
क़दम मिलाकर चलना होगा।

हास्य-रूदन में, तूफ़ानों में,
अगर असंख्यक बलिदानों में,
उद्यानों में, वीरानों में,
अपमानों में, सम्मानों में,
उन्नत मस्तक, उभरा सीना,
पीड़ाओं में पलना होगा।

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कौरव कौन
कौन पांडव,
टेढ़ा सवाल है|
दोनों ओर शकुनि
का फैला
कूटजाल है|
धर्मराज ने छोड़ी नहीं
जुए की लत है|
हर पंचायत में
पांचाली
अपमानित है|
बिना कृष्ण के
आज
महाभारत होना है,
कोई राजा बने,
रंक को तो रोना है|

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मनाली मत जइयो, गोरी 
राजा के राज में। 

जइयो तो जइयो, 
उड़िके मत जइयो, 
अधर में लटकीहौ, 
वायुदूत के जहाज़ में। 

जइयो तो जइयो, 
सन्देसा न पइयो, 
टेलिफोन बिगड़े हैं, 
मिर्धा महाराज में। 

जइयो तो जइयो, 
मशाल ले के जइयो, 
बिजुरी भइ बैरिन 
अंधेरिया रात में। 

जइयो तो जइयो, 
त्रिशूल बांध जइयो, 
मिलेंगे ख़ालिस्तानी, 
राजीव के राज में। 

मनाली तो जइहो। 
सुरग सुख पइहों। 
दुख नीको लागे, मोहे 
राजा के राज में।

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क़दम मिलाकर चलना होगा।
उजियारे में, अंधकार में,
कल कहार में, बीच धार में,
घोर घृणा में, पूत प्यार में,
क्षणिक जीत में, दीर्घ हार में,
जीवन के शत-शत आकर्षक,
अरमानों को ढलना होगा।
क़दम मिलाकर चलना होगा।

सम्मुख फैला अगर ध्येय पथ,
प्रगति चिरंतन कैसा इति अब,
सुस्मित हर्षित कैसा श्रम श्लथ,
असफल, सफल समान मनोरथ,
सब कुछ देकर कुछ न मांगते,
पावस बनकर ढ़लना होगा।
क़दम मिलाकर चलना होगा।

कुछ काँटों से सज्जित जीवन,
प्रखर प्यार से वंचित यौवन,
नीरवता से मुखरित मधुबन,
परहित अर्पित अपना तन-मन,
जीवन को शत-शत आहुति में,
जलना होगा, गलना होगा।
क़दम मिलाकर चलना होगा।

आहुति बाकी यज्ञ अधूरा,
अपनों के विघ्नों ने घेरा,
अंतिम जय का वज़्र बनाने,
नव दधीचि हड्डियां गलाएँ.
आओ फिर से दिया जलाएँ।


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ख़ून क्यों सफ़ेद हो गया?
भेद में अभेद खो गया।
बँट गये शहीद, गीत कट गए,
कलेजे में कटार दड़ गई।
दूध में दरार पड़ गई।

खेतों में बारूदी गंध,
टूट गये नानक के छंद
सतलुज सहम उठी, व्यथित सी बितस्ता है।
वसंत से बहार झड़ गई
दूध में दरार पड़ गई।

अपनी ही छाया से बैर,
गले लगने लगे हैं ग़ैर,
ख़ुदकुशी का रास्ता, तुम्हें वतन का वास्ता।
बात बनाएँ, बिगड़ गई।
दूध में दरार पड़ गई।

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न मैं चुप हूँ न गाता हूँ 

सवेरा है मगर पूरब दिशा में 
घिर रहे बादल 
रूई से धुंधलके में 
मील के पत्थर पड़े घायल 
ठिठके पाँव 
ओझल गाँव 
जड़ता है न गतिमयता 

स्वयं को दूसरों की दृष्टि से 
मैं देख पाता हूं 
न मैं चुप हूँ न गाता हूँ 

समय की सदर साँसों ने 
चिनारों को झुलस डाला, 
मगर हिमपात को देती 
चुनौती एक दुर्ममाला, 

बिखरे नीड़, 
विहँसे चीड़, 
आँसू हैं न मुस्कानें, 
हिमानी झील के तट पर 
अकेला गुनगुनाता हूँ। 
न मैं चुप हूँ न गाता हूँ

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टूट सकते हैं मगर हम झुक नहीं सकते

सत्य का संघर्ष सत्ता से
न्याय लड़ता निरंकुशता से
अंधेरे ने दी चुनौती है
किरण अंतिम अस्त होती है

दीप निष्ठा का लिये निष्कंप
वज्र टूटे या उठे भूकंप
यह बराबर का नहीं है युद्ध
हम निहत्थे, शत्रु है सन्नद्ध
हर तरह के शस्त्र से है सज्ज
और पशुबल हो उठा निर्लज्ज

किन्तु फिर भी जूझने का प्रण
अंगद ने बढ़ाया चरण
प्राण-पण से करेंगे प्रतिकार
समर्पण की माँग अस्वीकार

दाँव पर सब कुछ लगा है, रुक नहीं सकते
टूट सकते हैं मगर हम झुक नहीं सकते

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ऊँचे पहाड़ पर, 
पेड़ नहीं लगते, 
पौधे नहीं उगते, 
न घास ही जमती है। 

जमती है सिर्फ बर्फ,
जो, कफ़न की तरह सफ़ेद और,
मौत की तरह ठंडी होती है।
खेलती, खिलखिलाती नदी,
जिसका रूप धारण कर,
अपने भाग्य पर बूंद-बूंद रोती है।

ऐसी ऊँचाई, 
जिसका परस 
पानी को पत्थर कर दे, 
ऐसी ऊँचाई 
जिसका दरस हीन भाव भर दे, 
अभिनंदन की अधिकारी है, 
आरोहियों के लिये आमंत्रण है, 
उस पर झंडे गाड़े जा सकते हैं,

मेरे प्रभु!
मुझे इतनी ऊँचाई कभी मत देना,
ग़ैरों को गले न लगा सकूँ,
इतनी रुखाई कभी मत देना।

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चौराहे पर लुटता चीर
प्यादे से पिट गया वजीर
चलूँ आखिरी चाल कि बाजी छोड़ विरक्ति सजाऊँ?
राह कौन सी जाऊँ मैं?

सपना जन्मा और मर गया
मधु ऋतु में ही बाग झर गया
तिनके टूटे हुये बटोरूँ या नवसृष्टि सजाऊँ मैं?
राह कौन सी जाऊँ मैं?

दो दिन मिले उधार में
घाटों के व्यापार में
क्षण-क्षण का हिसाब लूँ या निधि शेष लुटाऊँ मैं?
राह कौन सी जाऊँ मैं ?
 

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