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This Article is From Aug 22, 2018

कहानी उस अंग्रेज़ की, जिसने भारत में देशी रियासतों के विलय का किया था विरोध

जिस समय महाराजा यादवेंद्र सिंह इस ऊहापोह से गुज़र रहे थे, ठीक उसी वक्त एक अंग्रेज़ पटियाला से करीब 6,000 मील दूर लंदन में देशी रियासतों के पक्ष में दलीलें पेश कर रहा था.

कहानी उस अंग्रेज़ की, जिसने भारत में देशी रियासतों के विलय का किया था विरोध
सर कानरैड कॉरफील्ड रियासतों के पक्ष में दलील देने के लिए लंदन गए थे.
नई दिल्ली: देश को वह सुबह मिलने वाली थी, जिसका इंतज़ार सदियों से था और जिसके लिए हज़ारों क्रांतिकारियों ने प्राणों की आहुति दी थी. हर तरफ जश्न का माहौल था, लेकिन कुछ चेहरों पर उदासी तारी थी और वे थे 565 देशी रियासतों के प्रमुख. कांग्रेस शुरू से इस पक्ष में थी कि देशी रिसायतों को खत्म कर दिया जाए और पार्टी ने बाकायदा अपने अधिवेशन में इसकी घोषणा भी कर दी थी. ऐसे में रजवाड़ों को अपनी आज़ादी छिनती हुई प्रतीत हो रही थी. दिल्ली से करीब 250 किलोमीटर दूर पटियाला के उस शानदार कक्ष में सब कुछ था, ऐशो-आराम का हर सामान, लेकिन पटियाला के आठवें महाराजा यादवेंद्र सिंह को कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा था. माथे पर चिंता की लकीरें थीं, और यह लाज़िमी भी था, क्योंकि वह नरेंद्र मंडल के अध्यक्ष थे. नरेंद्र मंडल वह संस्था थी, जो देशी रियासतों की नुमाइंदगी करती थी.

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जिस समय महाराजा यादवेंद्र सिंह इस ऊहापोह से गुज़र रहे थे, ठीक उसी वक्त एक अंग्रेज़ पटियाला से करीब 6,000 मील दूर लंदन में देशी रियासतों के पक्ष में दलीलें पेश कर रहा था. उसका तर्क था कि भारतीय रजवाड़ों ने अपने अधिकार ब्रिटिश सम्राट को सौंपे थे. ऐसे में स्वतंत्रता के बाद रजवाड़ों को उनके अधिकार वापस दे दिए जाने चाहिए. और हां, वह अंग्रेज़ वायसराय की अनुमति के बगैर ही लंदन में मौजूद था. इस अंग्रेज़ का नाम था सर कॉनरैड कॉरफील्ड. सर कॉनरैड एक कद्दावर पादरी के बेटे थे और वायसराय के राजनीतिक सचिव. उनकी जिम्मेदारी वायसराय की हैसियत से रजवाड़ों द्वारा ब्रिटिश सम्राट को सौंपी सत्ता को संभालने की थी.

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विख्यात इतिहासकार डोमिनिक लॉपियर और लैरी कॉलिन्स अपनी किताब 'फ्रीडम एट मिडनाइट' में लिखते हैं कि सर कॉनरैड कॉरफील्ड ने अपना अधिकांश जीवन रजवाड़ों की सेवा में बिताया था. उन्हें रजवाड़ों के दुश्मन नेहरू और कांग्रेस से उतनी ही नफरत थी, जितनी नेताओं को रजवाड़ों से. कॉरफील्ड को नेहरू और वायसराय की बढ़ती मित्रता पर शक हुआ और वह इस उद्देश्य के साथ लंदन गए कि माउंटबैटन रजवाड़ों के साथ जिन शर्तों पर विलय का सौदा पटा रहे हैं, वह उनसे बेहतर शर्तें मनवा सकें. कॉरफील्ड ने लंदन में भारतीय मामलों के सचिव लॉर्ड लिस्टोवेल के सामने पुरज़ोर दलील रखी. पहले तो रजवाड़ों को उनके अधिकार वापस देने की पैरवी की और फिर बात न बनने पर कहा कि रजवाड़ों को यह छूट हो कि वे भारत या पाकिस्तान में से किसी एक को चुन सकें.

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लेकिन उस दिन सर कॉनरैड कॉरफील्ड को निराश होकर लौटना पड़ा. उन्होंने तमाम दलीलें रखीं, रजवाड़ों की पैरवी की, लेकिन लॉर्ड लिस्टोवेल का तर्क था कि इस कदम से भारत के तमाम टुकड़े हो जाएंगे और शायद नेहरू ने इसकी कल्पना भी नहीं की थी. लिस्टोवेल ने कहा, 'प्रतीक्षा के सिवा कोई चारा नहीं है... ईश्वर जो करेगा, अच्छा ही करेगा... देखते हैं, इतिहास कैसे बनता है...' खैर, इसके बाद जो हुआ, वह सभी जानते हैं. देशी रियासतों का भारत में विलय हुआ. हैदराबाद, जूनागढ़ या कश्मीर जैसी कुछ रियासतें काफी दिनों तक अड़ी रहीं, लेकिन परिणति उनकी भी विलय ही रही.

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