मुंबई:
आज रिलीज़ हुई है 'ज़ंजीर', जो वर्ष 1973 में आई अमिताभ बच्चन अभिनीत 'ज़ंजीर' का रीमेक है, और इस नई फिल्म का निर्देशन किया है अपूर्व लखिया ने... रीमेक 'ज़ंजीर' में मुख्य भूमिकाएं निभाई हैं रामचरण तेजा, प्रियंका चोपड़ा, संजय दत्त, माही गिल और प्रकाश राज ने... पुरानी 'ज़ंजीर' करीब-करीब सभी ने देखी होगी, जो इंस्पेक्टर विजय की कहानी थी, जिसके माता-पिता की हत्या के पीछे एक स्मगलर तेजा, यानि अजीत का हाथ है...
बस, बचपन से ही इंस्पेक्टर विजय के दिमाग में यह भयानक हादसा घर बना लेता है और उसे तलाश रहती है अपने माता-पिता के कातिल की... बिल्कुल यही कहानी है नई 'ज़ंजीर' की... हां, किरदार बदल गए हैं... पहली बात यह है कि अगर आप इसे रीमेक की तरह देखेंगे तो यह फिल्म आपको मायूस करेगी, क्योंकि वर्ष 1973 की 'ज़ंजीर' उस गाढ़ी लकीर की तरह है, जिसे मिटाया नहीं जा सकता, लेकिन अगर आप नई 'ज़ंजीर' को आजकल के चलन में आई एक और मसाला फिल्म की तरह देखेंगे तो आप थियेटर से पैसा वसूल करके निकल आएंगे, हालांकि इस फिल्म का स्क्रीनप्ले भी कुछ ढीला है...
नई 'ज़ंजीर' में एक-दूसरे को जोड़ने वाले सीन्स और डॉयलाग्स पर ध्यान नहीं दिया गया... फिल्म देखते वक्त झटके लगते हैं, क्योंकि सीन्स कहीं से कहीं पहुंच जाते हैं... दूसरा, अमिताभ बच्चन का डॉयलाग, "यह पुलिस स्टेशन है, तुम्हारे बाप का घर नहीं..." रामचरण से नहीं बुलवाना चाहिए था, क्योंकि ओरिजनल चीज हमेशा ओरिजनल ही होती है...
वहीं, शेर खान के किरदार के साथ संजय दत्त भी न्याय नहीं कर पाए हैं, लेकिन फिर भी यही कहूंगा कि रामचरण में दम है, अगर इस फिल्म में उनकी तुलना अमिताभ बच्चन से न की जाए... प्रियंका चोपड़ा का किरदार जया बच्चन के किरदार की तरह मासूम तो नहीं, लेकिन चुलबुला ज़रूर है... नई 'ज़ंजीर' में माला के किरदार में वह ठहराव नहीं है... प्रियंका चोपड़ा को जितना मिला, उन्होंने ठीक-ठाक निभा दिया... प्रकाश राज को एक ही तरह के रोल्स करने से अब बचना चाहिए... वह एक अच्छे एक्टर हैं, लेकिन यहां उन्होंने वही किया, जो हम 'वॉन्टेड' से 'सिंघम' तक देखते आए हैं...
एक बात और... बैकग्राउंड में 'रघुपति राघव राजाराम...' का कोरस न विषय के साथ मेल खाता है, न विचारधारा के साथ... पता नहीं, अपूर्व ने इसे क्यों इस्तेमाल किया...? फिल्म का एक्शन अच्छा है... फिल्म की गति आपको पकड़े रहती है... आप स्क्रीन पर देखते रहते हैं कि कुछ चल रहा है... अगर इस फिल्म में 'वाह...' फैक्टर नहीं है, तो 'यह क्या...?' फैक्टर भी नहीं है... कुल मिलाकर यह एक एवरेज फिल्म है, और मेरी तरफ से 'ज़ंजीर' की रेटिंग है - 2.5 स्टार...
बस, बचपन से ही इंस्पेक्टर विजय के दिमाग में यह भयानक हादसा घर बना लेता है और उसे तलाश रहती है अपने माता-पिता के कातिल की... बिल्कुल यही कहानी है नई 'ज़ंजीर' की... हां, किरदार बदल गए हैं... पहली बात यह है कि अगर आप इसे रीमेक की तरह देखेंगे तो यह फिल्म आपको मायूस करेगी, क्योंकि वर्ष 1973 की 'ज़ंजीर' उस गाढ़ी लकीर की तरह है, जिसे मिटाया नहीं जा सकता, लेकिन अगर आप नई 'ज़ंजीर' को आजकल के चलन में आई एक और मसाला फिल्म की तरह देखेंगे तो आप थियेटर से पैसा वसूल करके निकल आएंगे, हालांकि इस फिल्म का स्क्रीनप्ले भी कुछ ढीला है...
नई 'ज़ंजीर' में एक-दूसरे को जोड़ने वाले सीन्स और डॉयलाग्स पर ध्यान नहीं दिया गया... फिल्म देखते वक्त झटके लगते हैं, क्योंकि सीन्स कहीं से कहीं पहुंच जाते हैं... दूसरा, अमिताभ बच्चन का डॉयलाग, "यह पुलिस स्टेशन है, तुम्हारे बाप का घर नहीं..." रामचरण से नहीं बुलवाना चाहिए था, क्योंकि ओरिजनल चीज हमेशा ओरिजनल ही होती है...
वहीं, शेर खान के किरदार के साथ संजय दत्त भी न्याय नहीं कर पाए हैं, लेकिन फिर भी यही कहूंगा कि रामचरण में दम है, अगर इस फिल्म में उनकी तुलना अमिताभ बच्चन से न की जाए... प्रियंका चोपड़ा का किरदार जया बच्चन के किरदार की तरह मासूम तो नहीं, लेकिन चुलबुला ज़रूर है... नई 'ज़ंजीर' में माला के किरदार में वह ठहराव नहीं है... प्रियंका चोपड़ा को जितना मिला, उन्होंने ठीक-ठाक निभा दिया... प्रकाश राज को एक ही तरह के रोल्स करने से अब बचना चाहिए... वह एक अच्छे एक्टर हैं, लेकिन यहां उन्होंने वही किया, जो हम 'वॉन्टेड' से 'सिंघम' तक देखते आए हैं...
एक बात और... बैकग्राउंड में 'रघुपति राघव राजाराम...' का कोरस न विषय के साथ मेल खाता है, न विचारधारा के साथ... पता नहीं, अपूर्व ने इसे क्यों इस्तेमाल किया...? फिल्म का एक्शन अच्छा है... फिल्म की गति आपको पकड़े रहती है... आप स्क्रीन पर देखते रहते हैं कि कुछ चल रहा है... अगर इस फिल्म में 'वाह...' फैक्टर नहीं है, तो 'यह क्या...?' फैक्टर भी नहीं है... कुल मिलाकर यह एक एवरेज फिल्म है, और मेरी तरफ से 'ज़ंजीर' की रेटिंग है - 2.5 स्टार...
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