Premanand Ji Maharaj Satsang: सनातन परंपरा में मानव जीवन के चार लक्ष्य बताये गये हैं, जिसे पुरुषार्थ चतुष्टय के नाम से जाना जाता है. इसमें धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष शामिल हैं. हिंदू मान्यता के अनुसार धर्म, अर्थ और काम को मोक्ष प्राप्ति का माध्यम माना जाता है. देश भर में होने वाली तमाम धार्मिक कथाओं और प्रवचन में अक्सर जिस मोक्ष की चर्चा होती है, वह आखिर किसे और क्यों चाहिए होता है? जीवन में मोक्ष प्राप्ति का सही अर्थ क्या है? वृंदावन के जाने-माने संत प्रेमानंद महराज ने मोक्ष या फिर कहें मुक्ति के जो सही मायने बताए, आइए उसे विस्तार से जानते हैं.
आत्मा कभी बंधन में नहीं बंधती
प्रेमानंद महाराज कहते हैं कि त्रिगुण माया से रचित त्रिगुण शरीरों में अहं बुद्धि के कारण हम बंध गये. वैसे हम कभी भी बंधे नहीं. गोस्वामी तुलसीदास जी की चौपाई का उदाहरण देते हुए प्रेमानंद महाराज कहते हैं कि - 'जड़ चेतनहिं ग्रंथि परि गई.जदपि मृषा छूटति कठिनई.' यानि अज्ञान के कारण जड़ और चेतन में ग्रंथि पड़ गई. लेकिन यह ग्रंथि झूठी है क्योंकि आत्मा कभी बंधन को प्राप्त नहीं हो सकती है. यद्यपि गांठ झूठी है, लेकिन फिर भी छूटने में बहुत कठिनाई है.

भ्रम का नाश होना ही मोक्ष है
प्रेमादास जी महाराज कहते हैं कि शुद्ध मैं जो है वह ब्रह्म स्वरूप है. वह अपने स्वरूप को भूलकर इन शरीरों में रहता है. मनुष्य के तीन शरीर होते हैं - स्थूल शरीर, सूक्ष्म शरीर और कारण शरीर. यदि आपसे पूछा जाए कि आप कौन हैं? तब आपका विचार इसी शरीर पर आएगा. तब व्यक्ति बतायेगा कि वह अमुक गांव में पैदा हुआ है. अमुक जाति का है, लेकिन यह समझना होगा कि यह स्थूल शरीर हमारा ढांचा है. सिर्फ इसी भ्रम का नाश हो जाना ही मोक्ष है.
आत्मा निरपेक्ष है
प्रेमानंद महाराज कहते हैं कि जो शरीर हम इंद्रियों से युक्त हो गये हैं और इंद्रियों के विलास को हम अपना मानते हैं, जैसे मैंने किसी व्यक्ति को देखा तो ज्ञानपूर्वक अनुभव करने पर पता लगता है कि नेत्र इंद्रिय ने उसे देखा. इसके लिए मन ने प्रेरणा की और मैं मन और नेत्र इंद्रिय दोनों का ही साक्षी हूं. यानि मैंने नहीं देखा. कहने का मतलब मैं ने नहीं देखा. नेत्र इंद्रिय ने उस व्यक्ति को देखा और मन ने ये संकल्प किया कि देखो वो व्यक्ति कौन है? इसमें जो मैं तत्व है, वो साक्षी है इनका. इसी से पॉवर मिल रहा है. मन, इंद्रिय आदि को जो परम प्रकाश मिल रहा है, वह आत्मा है और वह निरपेक्ष है.

अहंकार ही बंधन है
गीता के पांचवें अध्याय में लिखा है कि जो स्थित प्रज्ञ पुरुष है, वह खाता हुआ भी खाता नहीं है, पीता हुआ भी पीता नहीं है, देखता हुआ भी देखता नहीं है, चलता हुआ भी चलता नहीं है. वह सूंघता हुआ भी सूंघता नहीं है. यानि जब वह सूंघता है तो सही मायने में ज्ञानेंद्रिय सूंघ रही होती है. इसका अनुभव कौन करा रहा है, निश्चित रूप से मन. इसमें मैं तो है ही नहीं. यानि जहां व्यक्ति अहंकार रहित होकर अपने स्वरूप में स्थित हुआ तो वह मुक्त पुरुष था, मुक्त पुरुष है और मुक्त रहेगा. आदमी बंधता तभी है, जब वह कहता है कि मैंने देखा, मैने किया. यही अहंकार का बंधन है.
गुरु कृपा से मिलता है मोक्ष
तुलसीदास जी कहते हैं कि छूटति कठिनई. यानि बगैर गुरु कृपा और साधना के यह बात आपके भीतर नहीं आएगी. गुरु कृपा से साधना मिले तो व्यक्ति को खुद ही धीरे-धीरे अनुभव होने लगता है कि मैं देह नहीं हूूं. हमें समझना होगा कि यह देह हमारी सिर्फ पोशाक है. जिस प्रकार आप ने कुर्ता पहना है तो आप कुर्ता तो नहीं हैं, बल्कि कुर्ता पहनने वाले व्यक्ति हैं. ऐसे ही मैं शरीर नहीं हूं, बल्कि शरीर को स्वीकार करने वाला हूं. यदि कोई कहे कि मैं शरीर नहीं हूं और कोई व्यक्ति उसे चांटा लगा दे तो ज्ञानी व्यक्ति को दर्द तो होगा लेकिन दु:ख नहीं होगा. पीड़ा होगी और दुख नहीं होगा. ऐसा व्यक्ति जीवनमुक्त महापुरुष है.
(Disclaimer: यहां दी गई जानकारी सामान्य मान्यताओं और जानकारियों पर आधारित है. एनडीटीवी इसकी पुष्टि नहीं करता है.)
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