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दुनिया पर आ चुका है बहुत बड़ा खतरा, ग्लेशियर पिघलने से डूब सकते हैं भारत समेत कई देशों के शहर

नब्बे के दशक में 1993 से 2024 तक समुद्र के पानी के स्तर को देखें तो पता चलता कि वो अब तक 100 मिलीमीटर यानी क़रीब 10 सेंटीमीटर बढ़ चुका है.

क्या आपको अहसास है कि हमारी दुनिया की आज की जीवनशैली के कारण इस सदी के अंत तक धरती का औसत तापमान 2.7°C बढ़ जाएगा. तापमान के इतना बढ़ने का मतलब है कि इस सदी के अंत तक धरती के ग्लेशियरों की बस एक चौथाई बर्फ़ ही बची रहेगी बाकी तीन चौथाई बर्फ़ ख़त्म हो जाएगी. इन ग्लेशियरों की सिर्फ़ उनकी कहानियां ही बचेंगी. दुनिया के कई तटीय शहर डूब जाएंगे. भारत में मुंबई, चेन्नई, विशाखापट्टम जैसे कई तटीय शहरों का बड़ा इलाका क़रीब दो फुट तक पानी में डूब जाएगा. दुनिया की प्रतिष्ठित पत्रिका साइंस में छपी एक ताज़ा रिसर्च इस ओर आगाह कर रही है. इस रिसर्च में जो नतीजा आया है, वो हमारे सामने हर रोज़ नए हादसों की शक्ल में सामने आ रहा है.

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सबसे ताज़ा उदाहरण देखना है तो स्विट्ज़रलैंड से आई ये तस्वीरें देखिए, जहां बुधवार को ऊंचे पहाड़ों से टूटे एक ग्लेशियर ने निचले इलाके में तबाही मचा दी. बर्फ़ का ये तूफ़ान सिर पर नई आफ़त की शक्ल में जब उतरना शुरू हुआ तो नीचे घाटी में बसे ब्लैटन नाम के गांव में लोगों के पास इतना समय ही नहीं था कि वो कुछ कर पाएं. जितने लोग दूर से दूर जा सकते थे वो उतने दूर निकल गए. कुछ ही पल में नीचे के कई घर और इमारतें एक बर्फ़ीले भूरे गीले कीचड़ में दब गए. नब्बे फीसदी गांव को बर्च नाम के इस ग्लेशियर ने बर्बाद कर दिया. हताहतों की बात करें तो इस घटना के बाद से 64 साल का एक व्यक्ति लापता है. स्विट्ज़रलैंड के पर्यावरण मंत्री अल्बर्ट रोस्टी ने कहा कि ये एक असाधारण घटना थी. जिन ग्रामीणों के घर बर्बाद हुए उन्हें मदद दी जाएगी. वैसे इस ग्लेशियर के टूटने को लेकर वैज्ञानिकों ने पहले ही आशंकाएं जता दी थीं, इसे देखते हुए क़रीब 300 लोगों और उनके मवेशियों को पहले ही गांव से निकाल दिया गया था.

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ग्लेशियरों के इस तरह टूटने के पीछे सबसे बड़ी वजह है धरती के औसत तापमान का बढ़ना. ये हादसा बता रहा है कि हम और आप जिस तरह की ज़िंदगी के आदी हो गए हैं, वो आने वाली पीढ़ियों के लिए बहुत ही ख़तरनाक साबित होने वाली है. हमारी हर गतिविधि इस धरती को गर्म कर रही है, उसका औसत तापमान बढ़ा रही है. जिसका असर कहीं भारी बारिश, तो कहीं सूखा, कभी ग्लेशियरों की झीलों के फटने तो कभी बड़े तूफ़ानों जैसे अतिमौसमी बदलावों की शक्ल में सामने आ रहा है. ये अतिमौसमी बदलाव यानी Extreme Events हर साल बढ़ रहे हैं. तापमान जितना बढ़ेगा ये और बढ़ेंगे. यही नहीं अगर ऐसा ही रहा तो इस सदी के जाते-जाते दुनिया का एक बड़ा हिस्सा पानी को तरस जाएगा.

प्रतिष्ठित पत्रिका साइंस में छपी रिसर्च के मुताबिक दुनिया के ग्लेशियर मौजूदा अनुमान से कहीं ज़्यादा तेज़ी से पिघल रहे हैं. इस सदी के अंत तक अगर धरती का औसत तापमान अगर 2.7°C और बढ़ा तो दुनिया में मौजूद ग्लेशियरों में सिर्फ़ 24% बर्फ़ ही बची रह जाएगी.

  • ग्लेशियरों की 76% बर्फ़ पिघल चुकी होगी. पेरिस समझौते में ये तय हुआ था कि दुनिया के तापमान को पूर्व औद्योगिक तापमान से 1.5°C से ज़्यादा नहीं बढ़ने देना है.
  • साइंस पत्रिका में छपी रिसर्च के मुताबिक अगर दुनिया का औसत तापमान 1.5°C तक ही बढ़ा तो भी ग्लेशियरों की 46% बर्फ़ पिघल जाएगी, सिर्फ़ 54% बर्फ़ ही बची रहेगी.
  • रिसर्च कहती है कि अगर औसत तापमान बढ़ना बंद हो जाए और उतना ही रहे जितना आज है तो भी दुनिया के ग्लेशियरों की बर्फ़ 2020 के स्तर से 39% कम हो जाएगी.
  • इसका साफ़ मतलब है कि जो औसत तापमान अभी है वो भी ग्लेशियरों के अस्तित्व पर बड़ा ख़तरा है.
  • इस रिसर्च के मुताबिक दुनिया का औसत तापमान 2°C बढ़ा तो स्कैंडिनेवियन देशों यानी नॉर्वे, स्वीडन और डेनमार्क के ग्लेशियरों की सारी बर्फ़ पिघल जाएगी.
  • उत्तर अमेरिका की रॉकी पहाड़ियों, यूरोप के आल्प्स और आइसलैंड के ग्लेशियरों की क़रीब 90% बर्फ़ पिघल जाएगी.
  • औसत तापमान में 2°C की बढ़ोतरी का असर दक्षिण एशिया में हिंदूकुश हिमालय पर भी भारी पड़ेगा.
  • 2020 के मुक़ाबले हिंदूकुश हिमालय के ग्लेशियरों में महज़ 25% बर्फ़ रह जाएगी.
  • यानी 75% बर्फ़ पिघल जाएगी. हिंदूकुश हिमालय से निकलने वाली नदियां जो गंगा, सिंधु और ब्रह्मपुत्र की घाटियों में बहती हैं वो क़रीब दो अरब आबादी के लिए अनाज और पानी की गारंटी हैं.
  • औसत तापमान में बढ़त अगर 1.5 डिग्री सेल्सियस पर रुक गई तो भी हिंदूकुश हिमालय के ग्लेशियरों में 40 से 45% बर्फ़ ही बच पाएगी. यानी 55 से 60% बर्फ़़ पिघल जाएगी.

इस अध्ययन से ये बात भी साफ़ हुई है कि अगर तापमान में बढ़ोतरी बंद हो जाए तो भी ग्लेशियरों के पिघलने का सिलसिला सदियों तक चलता रहेगा. इस अध्ययन में दस देशों के 21 वैज्ञानिकों ने आठ ग्लेशियर मॉडल्स से दुनिया के दो लाख से ज़्यादा ग्लेशियरों के भविष्य को जानने की कोशिश की. दुनिया में क़रीब पौने तीन लाख ग्लेशियर हैं. इस अध्ययन के एक सह लेखक और University of Innsbruck के प्रोफ़ेसर डॉ Lilian Schuster के मुताबिक ग्लेशियर क्लाइमेट चेंज के अच्छे इंडिकेटर हैं क्योंकि उनका पिघलना हमें हमारी आंखों से आबोहवा में हो रहे बदलाव को दिखाता है, लेकिन हमारे पहाड़ों में जो दिख रहा है, ग्लेशियरों की हालत उससे ज़्यादा ख़राब है. इसी अध्ययन के एक और सहलेखक और Vrije Universiteit Brussel के डॉ Harry Zekollari का कहना है कि हमारा अध्ययन ये दर्दनाक सच्चाई बता रहा है कि एक-एक डिग्री तापमान का ज़रा सा भी हिस्सा काफ़ी अहम है. हम आज क्या करते हैं, इसका असर आने वाली कई सदियों तक पड़ता रहेगा, इससे ही तय होगा कि हमारे ग्लेशियर कितने बचाए जा सकते हैं, लेकिन दुनिया के कई ग्लेशियरों को तो हम खो ही चुके हैं.

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ग्लेशियरों के पिघलने की बात हो रही है तो आपको बता दें कि एंडीज़ की पहाड़ियों पर वेनेज़ुएला का आख़िरी ग्लेशियर पूरी तरह पिघल चुका है. यानी हम उसे खो चुके हैं. इसका नाम था Humboldt glacier, इसकी बस कहानी ही बाकी है. एंडीज़ की पहाड़ियों पर इस ग्लेशियर की जगह बस एक बर्फ़ का मैदान ही बचा रह गया है. इस इलाके के पांच अन्य ग्लेशियर 2011 तक पिघल चुके थे. तो वेनेज़ुएला दुनिया का पहला ऐसा देश हो गया है, जिसके सारे ग्लेशियर ख़त्म हो चुके हैं.

इंडोनेशिया की सबसे ऊंची चोटी पुंजक जया पर मौजूद इनफिनिटी ग्लेशियर भी बस आख़िरी सांसें गिन रहा है. अगले एक दो साल में इसके भी मिट जाने के आसार दिख रहे हैं. इस तरह इंडोनेशिया का भी आख़िरी ग्लेशियर ख़त्म हो जाएगा.

कुछ देशों के ग्लेशियर तो काफ़ी पहले ही ख़त्म हो गए. जैसे यूरोपीय देश स्लोवेनिया का आख़िरी ग्लेशियर कई दशक पहले ही ग़ायब हो चुका था. सन 2000 से अब तक ग्लेशियरों की 5% बर्फ़ पिघल चुकी है. यूरोपियन स्पेस एजेंसी के इस वीडियो में आप देख सकते हैं कि किन इलाकों में कितने ग्लेशियर सन 2000 से लेकर अब तक पिघल चुके हैं. यूरोप के कई इलाकों में तो ग्लेशियरों की 30 से 40% बर्फ़ पिघल चुकी है. इसका सीधा असर हमारी साफ़ पानी की ज़रूरतों पर पड़ रहा है. 

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यही नहीं ग्लेशियरों से समुद्र का जल स्तर भी लगातार बढ़ रहा है. सन 2000 से लेकर लेकर 2023 तक ग्लेशियरों के पिघलने से समुद्र का जल स्तर 18 मिलीमीटर तक बढ़ चुका है और इसके 2040 तक 32 से 67 मिलीमीटर तक होने की आशंका है. दुनिया भर के ग्लेशियरों की क़रीब 273 गीगा टन बर्फ़ हर साल हम खो रहे हैं. अब सोचिए कि बर्फ़ की ये मात्रा कितनी होगी, जितनी बर्फ़ हम हर साल खो रहे हैं उससे धरती के हर व्यक्ति की रोज़ की पीने के पानी की ज़रूरत तीस साल तक पूरी हो सकती है. यानी हम तीस साल की ज़रूरत का साफ़ पानी एक ही साल में खो रहे हैं. ये औसत इस आधार पर निकाला गया है कि एक व्यक्ति एक दिन में तीन लीटर पानी पीए.

नब्बे के दशक में 1993 से 2024 तक समुद्र के पानी के स्तर को देखें तो पता चलता कि वो अब तक 100 मिलीमीटर यानी क़रीब 10 सेंटीमीटर बढ़ चुका है. वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम द्वारा जारी मार्च 2025 की एक ताज़ा रिपोर्ट में अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी NASA के हवाले से ये नतीजा सामने आया है. रिपोर्ट के मुताबिक 1890 से समुद्र का जल स्तर 21 से 24 सेंटीमीटर बढ़ चुका है. जो इतिहास के इससे पहले के कालखंडों से बहुत ही ज़्यादा है. 

समुद्र का जल स्तर बढ़ने का सीधा मतलब है कि समुद्र तट पर बसे कई देशों के अस्तित्व पर ख़तरा. Live Science में Union of Concerned Scientists (UCS) के हवाले से छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक मालदीव्स एक ऐसा देश है, जो सबसे ज़्यादा ख़तरे में है. मालदीव्स समुद्र की सतह से महज़ 3 फीट ऊपर है. अगर सन 2100 तक समुद्र का स्तर 45 सेंटीमीटर बढ़ा तो मालदीव्स की 77% ज़मीन पानी में डूब जाएगी. 

ऐसा ही एक देश है प्रशांत महासागर में स्थित किरीबाती, जो समुद्र से 6 फीट ऊपर है. समुद्र का स्तर अगर 3 फीट बढ़ा तो किरिबाती का दो तिहाई इलाका पानी में डूब जाएगा.  सोलोमन आइलैंड्स के पांच द्वीप तो पहले ही समुद्र में समा चुके हैं और छह अन्य भी लगातार ख़तरे में हैं. एशियाई देशों की बात करें तो बांग्लादेश, चीन और भारत पर ख़तरा ज़्यादा बड़ा है. आबादी के हिसाब से सबसे ज़्यादा असर चीन पर होगा, जहां क़रीब 4.3 करोड़ लोग ऐसे समुद्र तट पर रहते हैं जो डूबने की कगार पर हैं. बांग्लादेश में 3 करोड़ 20 लाख की आबादी ऐसे समुद्र तटीय इलाके में रहती है, जिसके 2100 तक डूब जाने की आशंका है. बांग्लादेश की राजधानी ढाका का बड़ा हिस्सा 2100 तक डूब जाएगा.

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समुद्र के बढ़ते जल स्तर से भारत के तटीय इलाकों में क़रीब 2 करोड़ 70 लाख की आबादी पर सीधा असर पड़ना तय है. अब बात करते हैं कि भारत के कौन से बड़े शहर समुद्र के बढ़ते जल स्तर से भयानक ख़तरे में हैं. IPCC की एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत के 12 बड़े तटीय शहरों के इस सदी के अंत तक समुद्र के पानी में तीन फीट तक डूबने का ख़तरा मंडरा रहा है.

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  • गुजरात का भाऊनगर 2.70 फीट पानी में डूब सकता है.
  • केरल का कोचीन 2.32 फीट पानी में डूब सकता है.
  • गोवा का मोईमुगाव - 2.06 फीट.
  • गुजरात का ओखा - 1.96 फीट.
  • ओडिशा का पारादीप - 1.93 फीट.
  • मुंबई 1.90 फीट पानी में डूब सकती है.
  • मुंबई के वर्ली, कोलाबा और नरीमन प्वॉइंट जैसे इलाकों पर सबसे ज़्यादा ख़तरा है.
  • तमिलनाडु का तटीय शहर तूतीकोरिन भी 1.90 फीट समुद्र के पानी में डूब सकता है.
  • तमिलनाडु की राजधानी चेन्नई - 1.87 फीट.
  • कर्नाटक का मंगलुरू - 1.87 फीट.
  • गुजरात का कांडला - 1.87 फीट.
  • आंध्रप्रदेश का विशाखापट्टनम - 1.77 फीट.
  • दक्षिण कोलकाता से लगा खिदिरपुर इलाका - 0.49 फीट.

वैसे एक डरावनी तस्वीर इंडोनेशिया की राजधानी जकार्ता की भी है, जहां क़रीब एक करोड़ लोग रहते हैं. तटीय शहर जकार्ता को बीबीसी ने दुनिया का सबसे तेज़ी से डूबता हुआ शहर बताया है. पर्यावरण से जुड़ी एक संस्था Earth.org के मुताबिक जकार्ता हर साल 5 से 10 सेंटीमीटर धंस रहा है या डूब रहा है. इसकी बड़ी वजह है कि यहां ज़मीन के नीचे से इतना पानी खींच लिया गया है कि नीचे पानी बचा ही नहीं और अब ज़मीन धंस रही है, जिस पर भारी निर्माण हो चुका है. समुद्र का बढ़ता जलस्तर जकार्ता की मुसीबत दोगुनी करने जा रहा है. वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम के मुताबिक जकार्ता का अधिकांश हिस्सा 2050 तक पानी के अंदर होगा.

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हालात इतने ख़राब हैं कि इंडोनेशिया अपनी राजधानी ही बदल रहा है. जकार्ता की जगह नूसनतारा को नयी राजधानी बनाया जा रहा है जो बोर्नियो के पूर्वी तट पर स्थित है. साफ़ है हमारी आज की जीवनशैली हम पर भारी पड़ने जा रही है. ऊर्जा यानी एनर्जी का अंधाधुंध इस्तेमाल हमारी दुनिया को एक ऐसे मोड़ पर ले गया है, जहां से लौटना दिन-ब-दिन मुश्किल होता जा रहा है. यानी हम अपनी बर्बादी की कहानी हर रोज़ लिख रहे हैं. यही हाल रहा तो कुछ दशक बाद हमें अनाज और पानी जैसी हमारी मूल ज़रूरतों के लिए तरसना पड़ सकता है.

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