मंच पर 'मुग़ल-ए-आज़म'...एक बार फिर बिखरा अनारकली की दंतकथा का जादू
नई दिल्ली:
के. आसिफ़ की ‘मुग़ल-ए-आज़म’ को बन कर प्रदर्शित होने में एक दशक लग गया था लेकिन उसके बाद हिंदी सिनेमा में यह एक प्रतिमान की तरह स्थापित भी हुआ. इम्तियाज अली ताज़ ने एक दंतकथा को नाटक में ढाला, के. आसिफ़ ने सिनेमा में और अब एक बार फिर फ़िरोज़ अब्बास खान ने इसको नाटक के रूप में पेश कर दिया है. नाटक से सिनेमा और सिनेमा से नाटक के रूप में अनारकली की दंतकथा ने यात्रा का एक चक्र पूरा कर लिया है.
मुंबई में सफलता के झंडे गाड़ने के बाद इसका मंचन दिल्ली में हो रहा है और मंहगे टिकट के बावजूद दर्शकों का रेला उमड़ पड़ा है. ‘मुग़ल-ए-आज़म’ की कहानी मुग़ल सम्राट अक़बर और उसके बेटे सलीम के बीच संघर्ष की कहानी है. सलीम चिश्ती से मन्नत में पाए सलीम की आदतों से तंग आकर अक़बर उसे जंग में भेज देते हैं. जंग से लौटने के बाद सलीम अनारकली, जो पहले निगार है और उसे अनारकली का खिताब अकबर ने ही दिया है, के प्यार में पड़ जाता है. अक़बर इसे मंजूर नहीं करते और इससे नाराज सलीम बगावत कर देता है. इस संघर्ष का नतीजा अनारकली को भुगतना पड़ता है. नाटक में फ़िल्म के ही संवाद है. सिनेमा के क्लासिक संगीत को नाटक में भी रखा गया है, दो नए गीत जोड़े गए हैं. नाटक की लंबाई को छोटा करने के लिये बहुत सी घटनाओं को सूचनाओं में व्यक्त कर दिया गया है. नाटक देखते हुए के. आसिफ़ का ‘मुग़ल-ए-आज़म’ याद आता है लेकिन नाटक देख कर निकलने के बाद फ़िरोज़ अब्बास खान का ‘मुग़ल-ए-आज़म’ अपनी जगह पुख्ता कर चुका होता है.
फ़िरोज़ खान बताते हैं कि काफ़ी दिनों से उनके मन में था कि आखिर भारत में क्यों नहीं ब्रॉडवे की तरह का या ऑपेरा शैली का नाटक किया जा सकता है. बजट और संसाधन की कमी हमेशा सामने आती रही लेकिन ‘मुग़ल-ए-आज़म’ को नाटक के रूम में पेश करने का विचार जब एनसीपीए के सामने रखा तो वे तैयार हो गए और फ़िर सिनेमा के निर्माता शोपोरजी पोलोनजी का भी साथ मिल गया. संसाधान और बजट की समस्या दूर हो गई. फिरोज़ बताते हैं कि ‘मुग़ल-ए-आज़म’ एक पैरामीटर बन गया था भव्यता का...कुछ बड़ा कर रहे हो सोच रहे हों तो लोग कहेंगे कि ‘मुग़ल-ए-आज़म’ बना रहे हो क्या? तो आप ‘मुग़ल-ए-आज़म’ को कम स्केल में नहीं पेश कर सकते.
नाटक में भव्यता के उसी स्केल के निर्वाह की कोशिश हुई है और इसके लिये विश्वस्तरीय टेक्नीशियन, लाइट डिजाइनर, साउंड डिजाईनर, कोरियोग्राफर की टीम बनाई और पेशेवेर तरीके से मंच पर यह म्यूजिकल नाटक पेश किया गया है. यह पेशेवर रूख और तैयारी मंच पर दिखता है. वस्त्र सज्जा मनीष मल्होत्रा की है जो नाटक की ऐतिहासिकता के अनुकूल है. एक इंगेजिंग साउंड ट्रैक है, लाइव संगीत है और कथक नर्तकों की टोली है दृश्य सरंचना को गहराई देती है. मंच पर चारों ओर मेहराब हैं, उठते गिरने वाले प्राप्स हैं और पीछे एक स्क्रीन है जिस पर दृश्य उभरते रहते हैं जो मंच को रेगिस्तान, महल, क़ैदखाने, बुर्ज, बाग, जंग के मैदान, में सहजता से बदलते रहते हैं. यहां तक कि सिनमा में प्रयोग हुए शीश महल को जो दर्शकों को आज भी याद है भी बेहतरीन ग्रफिक्स प्रोजेक्शन और प्राप्स के जरिए पेश कर दिया गया है. कभी कभी लगता है कि आप थ्री डी सिनेमा देख रहे हैं लेकिन कोरियोग्राफी और संगतराश इसे नाटक बनाए रहते हैं. दिल्ली में ‘मुग़ल-ए-आज़म’ को प्रस्तुत करने के लिये नेहरू स्टेडियम के वेटलिफ़्टिंग स्टेडियम को ऑडिटोरियम बनाया गया है. और सबकुछ आसानी से हो इसके लिए तीन सौ लोग काम कर रहे हैं.
‘मुग़ल-ए-आज़म’ को पेश करने में सबसे बड़ी चुनौती है सिनेमा और नाटक के बीच तुलना की संभावना को खतम करना. यह नाटक बड़ी सहजता से सिनेमा से अपना राब्ता कायम करता है उसको ट्रीब्यूट देता है और फिर अपनी अलग पहचान भी हासिल कर लेता है. इसके लिए फ़िरोज़ खान और उनके अभिनेताओं ने तैयारी की है. पटकथा में थोड़ा बदलाव किया है और संवादों के उतार चढ़ाव की लय को बदल दिया है. सिनेमा में सूत्रधार वाइसओवर के रूप में है इस नाटक में संगतराश की भूमिका को सूत्रधार के रूप में बढ़ा दिया गया है. यह दृश्यों को जोड़ता है, उन पर टिप्पणी करता है और आगे की घटनाओं की सूचना भी देता है. शंहशाही के तौर तरीकों, सत्ता और प्रजा के संबंध, जंग के नुकसान और मोहब्बत की जरूरत की बात कहता है जिससे नाटक अपने ऐतिहासिक समय से निकल कर हमारे समय में आ जाता है.
नाटक को सिनेमा से अलग रखने के लिए अभिनेता भी सचेत हैं. सलीम की भूमिका कर रहे धनवीर सिंह कहते हैं कि उन्होंने दिलीप कुमार को देखा तो है लेकिन उससे अपने को बचाने के लिये बहुत तैयारी की है और यह तैयारी मंच पर दिखती है, अक़बर की भूमिका कर रहे निसार खान कहते हैं कि उन्होंने सिनेमा देखा ही नहीं, ताकि वे पृथ्वीराज कपूर के हैंगओवर में ना फंसे और उन्होंने शहंशाह अक़बर औऱ इंसान अक़बर के बीच जो अंतर्द्वंद्व है उसको उभारने की कोशिश की है. निसार खान ने मंच पर अक़बर के आने और जाने को एक तेवर और चाल से गढ़ा है, जो नाटक के अंत में बदल जाती है, अक़बर एक मामूली अनारकली के आगे पस्त होता है. जोधा बनी सोनल झा बेटे और बाप के बीच फ़ंसी मां के किरदार को गहराई देती है. तो अनारकली और बहार की भूमिका में अभिनेत्रियों ने अभिनय के साथ गीत भी गाया है.
नाटक की ज़बान उर्दू है और इसकी अदायगी ऐसी है जो इसे अबूझ नहीं रहने देती. फिर भी महानगरीय दर्शकों के लिए निर्देशक ने सबटाइटल रखा है लेकिन नाटक देखते हुए देखना दर्शकों के लिए श्रमसाध्य प्रक्रिया है. उर्दू के निर्वाह के लिए अभिनेताओं को प्रशिक्षित किया गया है जिससे एक भाषा अपने ताक़त के साथ मंच पर उपस्थित होती है और संवाद देर तक ज़ेहन में कौंधते रहते हैं.
मुंबई में सफलता के झंडे गाड़ने के बाद इसका मंचन दिल्ली में हो रहा है और मंहगे टिकट के बावजूद दर्शकों का रेला उमड़ पड़ा है. ‘मुग़ल-ए-आज़म’ की कहानी मुग़ल सम्राट अक़बर और उसके बेटे सलीम के बीच संघर्ष की कहानी है. सलीम चिश्ती से मन्नत में पाए सलीम की आदतों से तंग आकर अक़बर उसे जंग में भेज देते हैं. जंग से लौटने के बाद सलीम अनारकली, जो पहले निगार है और उसे अनारकली का खिताब अकबर ने ही दिया है, के प्यार में पड़ जाता है. अक़बर इसे मंजूर नहीं करते और इससे नाराज सलीम बगावत कर देता है. इस संघर्ष का नतीजा अनारकली को भुगतना पड़ता है. नाटक में फ़िल्म के ही संवाद है. सिनेमा के क्लासिक संगीत को नाटक में भी रखा गया है, दो नए गीत जोड़े गए हैं. नाटक की लंबाई को छोटा करने के लिये बहुत सी घटनाओं को सूचनाओं में व्यक्त कर दिया गया है. नाटक देखते हुए के. आसिफ़ का ‘मुग़ल-ए-आज़म’ याद आता है लेकिन नाटक देख कर निकलने के बाद फ़िरोज़ अब्बास खान का ‘मुग़ल-ए-आज़म’ अपनी जगह पुख्ता कर चुका होता है.
फ़िरोज़ खान बताते हैं कि काफ़ी दिनों से उनके मन में था कि आखिर भारत में क्यों नहीं ब्रॉडवे की तरह का या ऑपेरा शैली का नाटक किया जा सकता है. बजट और संसाधन की कमी हमेशा सामने आती रही लेकिन ‘मुग़ल-ए-आज़म’ को नाटक के रूम में पेश करने का विचार जब एनसीपीए के सामने रखा तो वे तैयार हो गए और फ़िर सिनेमा के निर्माता शोपोरजी पोलोनजी का भी साथ मिल गया. संसाधान और बजट की समस्या दूर हो गई. फिरोज़ बताते हैं कि ‘मुग़ल-ए-आज़म’ एक पैरामीटर बन गया था भव्यता का...कुछ बड़ा कर रहे हो सोच रहे हों तो लोग कहेंगे कि ‘मुग़ल-ए-आज़म’ बना रहे हो क्या? तो आप ‘मुग़ल-ए-आज़म’ को कम स्केल में नहीं पेश कर सकते.
नाटक में भव्यता के उसी स्केल के निर्वाह की कोशिश हुई है और इसके लिये विश्वस्तरीय टेक्नीशियन, लाइट डिजाइनर, साउंड डिजाईनर, कोरियोग्राफर की टीम बनाई और पेशेवेर तरीके से मंच पर यह म्यूजिकल नाटक पेश किया गया है. यह पेशेवर रूख और तैयारी मंच पर दिखता है. वस्त्र सज्जा मनीष मल्होत्रा की है जो नाटक की ऐतिहासिकता के अनुकूल है. एक इंगेजिंग साउंड ट्रैक है, लाइव संगीत है और कथक नर्तकों की टोली है दृश्य सरंचना को गहराई देती है. मंच पर चारों ओर मेहराब हैं, उठते गिरने वाले प्राप्स हैं और पीछे एक स्क्रीन है जिस पर दृश्य उभरते रहते हैं जो मंच को रेगिस्तान, महल, क़ैदखाने, बुर्ज, बाग, जंग के मैदान, में सहजता से बदलते रहते हैं. यहां तक कि सिनमा में प्रयोग हुए शीश महल को जो दर्शकों को आज भी याद है भी बेहतरीन ग्रफिक्स प्रोजेक्शन और प्राप्स के जरिए पेश कर दिया गया है. कभी कभी लगता है कि आप थ्री डी सिनेमा देख रहे हैं लेकिन कोरियोग्राफी और संगतराश इसे नाटक बनाए रहते हैं. दिल्ली में ‘मुग़ल-ए-आज़म’ को प्रस्तुत करने के लिये नेहरू स्टेडियम के वेटलिफ़्टिंग स्टेडियम को ऑडिटोरियम बनाया गया है. और सबकुछ आसानी से हो इसके लिए तीन सौ लोग काम कर रहे हैं.
‘मुग़ल-ए-आज़म’ को पेश करने में सबसे बड़ी चुनौती है सिनेमा और नाटक के बीच तुलना की संभावना को खतम करना. यह नाटक बड़ी सहजता से सिनेमा से अपना राब्ता कायम करता है उसको ट्रीब्यूट देता है और फिर अपनी अलग पहचान भी हासिल कर लेता है. इसके लिए फ़िरोज़ खान और उनके अभिनेताओं ने तैयारी की है. पटकथा में थोड़ा बदलाव किया है और संवादों के उतार चढ़ाव की लय को बदल दिया है. सिनेमा में सूत्रधार वाइसओवर के रूप में है इस नाटक में संगतराश की भूमिका को सूत्रधार के रूप में बढ़ा दिया गया है. यह दृश्यों को जोड़ता है, उन पर टिप्पणी करता है और आगे की घटनाओं की सूचना भी देता है. शंहशाही के तौर तरीकों, सत्ता और प्रजा के संबंध, जंग के नुकसान और मोहब्बत की जरूरत की बात कहता है जिससे नाटक अपने ऐतिहासिक समय से निकल कर हमारे समय में आ जाता है.
नाटक को सिनेमा से अलग रखने के लिए अभिनेता भी सचेत हैं. सलीम की भूमिका कर रहे धनवीर सिंह कहते हैं कि उन्होंने दिलीप कुमार को देखा तो है लेकिन उससे अपने को बचाने के लिये बहुत तैयारी की है और यह तैयारी मंच पर दिखती है, अक़बर की भूमिका कर रहे निसार खान कहते हैं कि उन्होंने सिनेमा देखा ही नहीं, ताकि वे पृथ्वीराज कपूर के हैंगओवर में ना फंसे और उन्होंने शहंशाह अक़बर औऱ इंसान अक़बर के बीच जो अंतर्द्वंद्व है उसको उभारने की कोशिश की है. निसार खान ने मंच पर अक़बर के आने और जाने को एक तेवर और चाल से गढ़ा है, जो नाटक के अंत में बदल जाती है, अक़बर एक मामूली अनारकली के आगे पस्त होता है. जोधा बनी सोनल झा बेटे और बाप के बीच फ़ंसी मां के किरदार को गहराई देती है. तो अनारकली और बहार की भूमिका में अभिनेत्रियों ने अभिनय के साथ गीत भी गाया है.
नाटक की ज़बान उर्दू है और इसकी अदायगी ऐसी है जो इसे अबूझ नहीं रहने देती. फिर भी महानगरीय दर्शकों के लिए निर्देशक ने सबटाइटल रखा है लेकिन नाटक देखते हुए देखना दर्शकों के लिए श्रमसाध्य प्रक्रिया है. उर्दू के निर्वाह के लिए अभिनेताओं को प्रशिक्षित किया गया है जिससे एक भाषा अपने ताक़त के साथ मंच पर उपस्थित होती है और संवाद देर तक ज़ेहन में कौंधते रहते हैं.
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