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This Article is From Sep 01, 2015

आंकड़ों की बाज़ीगरी, क्या बिहार का वोटर ये समझ रहा है?

Reported By Ravish Kumar
  • चुनावी ब्लॉग,
  • Updated:
    सितंबर 21, 2015 17:51 pm IST
    • Published On सितंबर 01, 2015 21:26 pm IST
    • Last Updated On सितंबर 21, 2015 17:51 pm IST
मैं एक राष्ट्रीय रैली आयोग का प्रस्ताव करना चाहता हूं। विधि द्वारा स्थापित न होने के बाद भी मैं राष्ट्रीय रैली आयोग का अध्यक्ष बनाए जाने पर रैलियों में आने वाले लोगों की गिनती का कोई न कोई विश्वसनीय पैमाना ज़रूर बनाऊंगा। राष्ट्रीय रैली आयोग से प्रमाणित हुए बिना किसी भी रैली को सफल या असफल घोषित नहीं किया जा सकेगा। बॉक्स ऑफिस पर जैसे फिल्मों की कमाई का पता चलता है वैसे ही रैली ऑफिस से पता चलेगा कि किस रैली में किस किस की कितनी कमाई खप गई।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भागलपुर की रैली को स्वयं ही रिकॉर्डतोड़ घोषित कर दिया। उन्होंने कह दिया कि जितनी भी रैली हुई हो, उसके सारे रिकॉर्ड भागलपुर ने तोड़ डाले। उसी तरह पटना की रैली को नीतीश कुमार और लालू यादव स्वंय ही रिकॉर्डतोड़ बता कर चले गए। मीडिया में भी कोई एक लाख लिखेगा तो कोई पांच लाख। सोशल मीडिया वाले कहीं से टॉप एंगल शॉट का जुगाड़ कर रैली को फ्लॉप बताने में जुट जाते हैं। इज़ इक्वल टू की तरह मैंने एक और फॉर्मूला निकाला है। अपनी रैली हमेशा हिट होगी और विरोधी की फ्लॉप। कभी वक्त मिले तो इन रैलियों की प्रांसगिकता का अध्ययन कीजिएगा। भाड़े पर या स्वंय चल कर आए लोग शामियाने में ठेला जाने के बाद मन से सुनते हैं या वहां की गर्मी में इतने भुन जाते हैं कि सुनने लायक ही नहीं रहते। अब तो रैली उस मैदान के लिए कम होती है चैनलों के लिए ज़्यादा। राष्ट्रीय रैली आयोग का अध्यक्ष बनाये जाते ही मैं एक सर्वे कराऊंगा। पता करूंगा कि रैलियों में मतदाता स्वंय चल कर जाता है या पेमेंट के बाद जाता है। स्वंय से जाने वाला मतदाता दो तीन रैलियों में जाता है या अपनी पसंद की पार्टी की रैली में ही जाता है। पेमेंट से जाने वाला मतदाता सबकी रैलियों में जाता है तो वोट देने में किस रैली का रोल होता है। खंभे पर आराम से बैठे ये लोग कौन हैं। पहले से बिठाए गए हैं या इन्हें वाकई ज़मीन पर जगह नहीं मिली। जिस रैली में लाखों लोग आराम से ज़मीन पर आ गए उसमें क्या वाकई इन दस बीस लोगों के लिए जगह नहीं बची होगी कि इन्हें खंभे के ऊपर घोसला बनाना पड़ा।

राष्ट्रीय रैली आयोग के अभाव में मैं मान लेता हूं कि भागलपुर की रैली ने सारे रिकॉर्ड तोड़ दिये। पटना की रैली ने सारे टूटे हुए रिकॉर्ड जोड़ दिए। अब आइये इस सवाल पर कि बिहार में हो क्या रहा है। एक पक्ष कहता है कि दे दे कर निहाल किये जा रहे हैं तो दूसरा पक्ष कह रहा है कि दिये कुछ नहीं खाली कह कह के बेहाल किये जा रहे हैं।

1984 में दूरदर्शन पर एक सीरीयल आया था। ये जो है ज़िंदगी। स्वरूप संपत, राकेश बेदी, शफी इनामदार। इस सीरीयल में टीकू तलसानिया के किरदार का एक तकियाकलाम बेहद मशहूर हुआ था। हैरान परेशान टीकू कंफ्यूजियाने के बाद अक्सर कहता रहता था कि ये क्या हो रहा है। कहते कहते रोने लगता था कि ये क्या हो रहा है।

तीन बजे से पहले प्रधानंत्री रैली खत्म कर दिल्ली चले जाते हैं। तीन बजे से छह बजे के बीच नीतीश कुमार पटना से प्रेस कांफ्रेंस करते हैं। बिहार का एक वोटर अगर इस पैकेज के आधार पर फैसला करने चला तो वो मतदान केंद्र की जगह आईआईटी की कोचिंग करने चला जाएगा। दोनों नेताओं ने चुनाव को बहुत टफ कर दिया है।

भागलपुर में प्रधानमंत्री ने कहा कि गया में एक लाख 25 करोड़ का पैकेज घोषित किया, 40 हज़ार करोड़ मिलाकर एक लाख 65 हज़ार का पैकेज दिया। वैसे प्रधानमंत्री ने ये ऐलान गया में नहीं आरा में किया था। रैली में स्लिप ऑफ टंग हो जाता है। 14वें वित्त आयोग ने बिहार को पांच साल में तीन लाख 76 हज़ार करोड़ देना तय किया है। मेरा एक लाख 65 हज़ार करोड़ का पैकेज अलग है। नीतीश कुमार का 2 लाख 76 हज़ार करोड़ का पैकेज तो कुछ नहीं है। दिल्ली से जो मिलेगा उसमें से भी कम दे रहे हैं। बाकी पैसा कहां जाएंगा। एक लाख 8 हज़ार करोड़ कहां जाएगा। गज़ब।

जो पैसा अभी मिला नहीं है, जो दिया जाने वाला है, जिसके दिये जाने की कई शर्तें हैं, प्रधानमंत्री ने मान लिया कि दिया गया है और नीतीश कुमार ने उसमें से एक करोड़ आठ हज़ार का चारा खिलाने के लिए गायब कर दिया है। बिहार का मतदाता जिस दिन पैकेज की पॉलटिक्स समझ जाएगा वो अपनी जाति भूल जाएगा। पीएम पॉलिटिकल हो जाते हैं तो नीतीश कुमार टेक्निकल। कहने लगे कि नीतीश ने कहा कि दीनदयाल उपाध्याय ग्राम ज्योति योजना है। इसमें 40 फीसदी राज्य का पैसा लगेगा। प्रधानमंत्री ने खुद कहा कि केंद्र से पैसा देंगे तो वे 40 फीसदी भी दे ही दें। निभाएं अपना वचन। अल्ट्रा पावर प्रोजेक्ट के तहत प्राइवेट कंपनियों को पैसा लगाना है मगर प्रधानमंत्री उस पैसे को भी केंद्र के पैसे में जोड़ रहे हैं। तो फिर आप प्राइवेट सेक्टर का इंतज़ार ही क्यों कर रहे हैं। सरकारी खजाने से दे दीजिए। नीतीश का कहना है कि संघीय व्यवस्था में जो हमारा तय हिस्सा है वो तो मिलेगा ही। तो वैसी परिस्थिति में इस बात का उल्लेख करना कि 5 साल में पौने चार लाख करोड़ हम देंगे और उसी में उन्होंने जोड़ लिया कि 2 लाख 70 हज़ार करोड़ तो इनका ये हो गया। अब बचा 1 लाख 8 हज़ार करोड़, वो कहां जाएगा...हिसाब पूछ रहे हैं। वो चारा बन जाएगा क्या। भाई आप देश के प्रधानमंत्री हैं। ऐसी हल्की बात अगर मुल्क के प्रधानमंत्री द्वारा की जाएगी तो मुल्क का क्या होगा। ये सब नीतीश के ही बोल हैं।

प्रधानमंत्री ने 25 साल का हिसाब नीतीश कुमार से मांगा है। अगर नीतीश ने ये स्वीकार कर लिया तो उनकी हर रैली बजट सत्र में बदल जाएगी। वैसे यह किसी भी राजनीति के लिए अच्छा है। बात हो तो काम पर हो। सिर्फ गठबंधन और टिकट जात के आधार पर हो। इस बीच 18 अगस्त को एक खबर आई कि केंद्र ने बिहार के 21 पिछड़े ज़िलों के लिए टैक्स में छूट की अधिसूचना जारी की है। इसमें स्मार्ट सिटी की सूची में न आ सकने वाला बेचारा पटना भी है। बनने वाला था पेरिस बन गया पिछड़ा। बोलिये तो अइसनों कहीं होता है जी। तो हज़रात हमने गूगल किया। गूगल करते ही लघु एवं उद्योग मंत्रालय की साइट पर पहुंचे जहां कई राज्यों के पिछड़े ज़िलों की सूची मिली।

- आंध्र प्रदेश के 14, बिहार के 18, गुजरात के 11, कर्नाटक के 11, मध्यप्रदेश के 36 ज़िलों के नाम ओद्योगिक रूप से पिछड़े ज़िलों की सूची में मिले।
- 1997 से पिछड़े ज़िले घोषित किये जा रहे हैं। जिसके तहत उद्योगों को तीन साल के लिए टैक्स छूट दी जाती है।
- बिहार के कुछ ज़िलों के नाम तो 1997 से ही पिछड़े ज़िलों की सूची में चले आ रहे हैं। यानी टैक्स में रियायत देने से इलाके का औद्योगिक विकास नहीं होता होगा। रिसर्च से पता चला कि गुजरात के कई ज़िले आज भी पिछड़े ज़िलों में आते हैं जो 1997 की सूची में थे। जैसे बनासकांठा और साबरकांठा। वैसे 26 ज़िलों के विकसित गुजरात के 11 ज़िले पिछड़े ज़िले में आते हैं।

बिहार के लिए जिन 21 ज़िलों के नाम जारी हुए हैं उनमें से कई ज़िले पिछले सत्रह अठारह साल से बैकवर्ड जिलों में ही हैं। जैसे इस बार की सूची में वैशाली, समस्तीपुर, मधुबनी, दरभंगा, पूर्णिया, कटिहार, मुज़फ्फरपुर, अररिया, जहानाबाद, नालंदा और गया का भी नाम है। यही नाम 1997 में जारी हुए 123 वैकवर्ड ज़िलों की सूची में भी हैं।

1997 से ही टैक्स छूट के ज़रिये इन ज़िलों में राष्ट्रीय सम विकास योजना के तहत उद्योगों को प्रोत्साहित किया जा रहा है। लेकिन खबरों से लगा कि कोई नया फैसला हुआ है। पीटीआई की खबर में कहा गया है कि पिछड़े ज़िलों में नई कंपनी या इमारत बनाने पर 15 प्रतिशत आयकर छूट मिलेगी। प्रस्तावना लंबी हो गई है मगर एक और ग्राफिक्स का लोड ले ही लीजिए। इस शर्त के साथ कि वित्त मंत्रालय की जटिल रिपोर्ट को पढ़ने में मुझसे चूक हो सकती है। हमने 14वें वित्त आयोग की रिपोर्ट छान मारी तो पता चला कि 2015-16 के लिए केंद्र से राज्यों को दिया जाने वाला कुल ग्रांट है वो 6 लाख 68 हज़ार 146 करोड़ का है। ये आंकड़ा भारत के सभी राज्‍यों ज़िलों और सात केंद्र शासित प्रदेशों के लिए है। अगर बिहार के लिए लाखों करोड़ हैं तो बाकी को क्या मिलने वाला है।

2020 तक का कुल संभावित ग्रांट है करीब 44 लाख 86 हजार करोड़। हो सकता है कि मिल भी जाए लेकिन क्या ये तय राशि नहीं है। वैसे इस तरह से विकास के नाम पर अगर बिहार का चुनाव हुआ तो यकीनन मतदाता का हार्ट फेल कर जाएगा। पर इसे ही तो समझना है। डेराइये मत, टेराई कीजिए।

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