कभी एक दूसरे की हमेशा टांग खींचते रहने वाले, कभी राजनीति में धुर विरोधी रहने वाले आज कदम से कदम मिलाकर चल रहे हैं। बिहार की जनता ने शायद कभी यह सोचा भी नहीं होगा कि लालू यादव और नीतीश कुमार कभी मंच साझा भी करेंगे। मगर, राजनीति में कब, कौन, कहां और कैसे बदल जाएगा, यह कह पाना बहुत मुश्किल है।
बीते सालों में, नीतीश और लालू ने एक दूसरे पर न जाने क्या-क्या बयानबाजी की होगी। वहीं, कई बार इन दोनों पर कांग्रेस ने भी वार पर वार किया, लेकिन आज सभी एक साथ मिलजुल बिहार के चुनाव अखाड़े में कूद पड़े हैं। सत्ता की भूख ऐसी होती है कि यह न अपनों को देखती है, न परायों को, न दोस्तों को और न दुश्मनों को।
आज बिहार में तीन बड़ी पार्टियां जदयू, राजद और कांग्रेस एक साथ हैं। इस गठबंधन का क्या मलतब निकाला जाए, क्या बिहार में ये सिर्फ बीजेपी को हराने के लिए एक साथ हुए हैं या फिर इनका मकसद बिहार को विकास की ओर ले जाना है। चूंकि मैं बिहार से हूं और बिहार की राजनीति को बचपन से देखता और सुनता आ रहा हूं, इसलिए मेरे ख्याल से अगर इस गठबंधन की जीत होती है, तो इससे बिहार को फायदा होने की गारंटी मैं तो नहीं दे सकता।
बिहार में जदयू न तो राजद के साथ ज्यादा दूर तक जा सकती है और न कांग्रेस के साथ। इसे मैं सिर्फ नीतीश कुमार की एक मजबूरी के रूप में देख रहा हूं, क्योंकि जीतन राम मांझी ने जदयू में ऐसा बवाल मचाया कि नीतीश के पास राजद और कांग्रेस से हाथ मिलाने के अलावा दूसरा कोई रास्ता ही नहीं बचा।
बिहार की जनता को नीतीश और कांग्रेस से उतनी आपत्ति नहीं होती, जितना नीतीश के साथ लालू से होगी, क्योंकि एक वक्त था जब लालू सरकार से तंग आकर ही बिहार की जनता ने नीतीश कुमार को वर्ष 2005 में भारी मतों से सीएम की कुर्सी पर बैठाया था और नीतीश के शानदार काम ने उन्हें वर्ष 2010 में भी सीएम बनाया।
लेकिन, नीतीश से गलती तब हो गई, जब लोकसभा चुनाव में बिहार की जनता ने उन्हें नहीं पूछा और बिहार की लगभग सभी लोकसभा सीटों का हकदार बीजेपी को बनाया। उसके बाद आनन-फानन में उन्होंने अपने पद से इस्तीफा दे दिया और अपने विश्वासपात्र जीतन राम मांझी को सीएम की कुर्सी पर बैठा दिया। लेकिन, यहीं पूरा खेल बदल गया। सीएम की कुर्सी पर बैठने के बाद मांझी ने नीतीश का पूरा खेल खराब कर दिया।
यहां तक कि नीतीश सत्ता के कितने भूखे हैं, बिहार के लोगों के सामने ये बात आ गई। मांझी ने जदयू में ऐसी फूट डाली कि नीतीश को अपनी पार्टी की साख बचाने के लिए एक ऐसी पार्टी के साथ हाथ मिलाना पड़ा जिसकी कभी कल्पना भी नहीं की जा सकती। इससे ये तो साफतौर से बता चल ही गया कि सारे एक ही थाली के चट्टे-बट्टे हैं।
खैर, नीतीश ने बिहार के लिए इन 3099 दिनों में जो किया वो बिहार के लिए सफल साबित हुआ, लेकिन अब बिहार का क्या होगा यह कह पाना जरा मुश्किल होगा। अब ये तो आने वाला वक्त ही बताएगा कि बिहार में इस गठबंधन का क्या असर पड़ने वाला है, बिहार की जनता इस गठबंधन को कितना पसंद करती है...
This Article is From Sep 28, 2015
राजनीति में कब, कौन बदल जाए, कहना मुश्किल
Pratik Shekhar
- चुनावी ब्लॉग,
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Updated:सितंबर 30, 2015 17:01 pm IST
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Published On सितंबर 28, 2015 01:05 am IST
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Last Updated On सितंबर 30, 2015 17:01 pm IST
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