पिछले कुछ दिनों में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर काफी कुछ हुआ है. मध्य एशिया में स्थिति फिर से बिगड़ने लगी है. अमेरिका के राष्ट्रपति ईरान के साथ हुए परमाणु समझौते से अलग कर लिया है. मलेशिया के चुनावी नतीजों से भी दुनिया हैरान है. इस वक्त जब दुनिया जवान दिख रही है, नेताओं की मार्केटिंग यंग लीडर के रूप में हो रही है, 92 साल के महाथिर मोहम्मद ने प्रधानमंत्री के रूप में शपथ ले ली है.
महाथिर मोहम्मद दुनिया के सबसे अधिक उम्र के प्रधानमंत्री है. इससे पहले भी महाथिर मोहम्मद 22 सालों तक प्रधानमंत्री रह चुके हैं. सत्ता के हस्तांतरण में देरी होने से विजयी गठबंधन का धीरज जवाब दे रहा था और आशंकाएं बढ़ रही थीं. मलेशिया के राजा से कहा जाने लगा कि जल्दी ही नई सरकार का शपथ हो वर्ना इसका मतलब यह होगा कि मलेशिया में न सरकार है, न कानून है न संविधान है. इसके बाद राजा का बयान आया कि वे जनता की इच्छा का सम्मान करते हैं. उनसे पहले नजीब की सरकार पर भ्रष्टाचार के आरोप थे, मानवाधिकार के उल्लंघन के आरोप थे, और जीएसटी के कारण वहां बढ़ती महंगाई से जनता परेशान हो गई है. जीएसटी के कारण आबादी का सारा हिस्सा टैक्स के दायरे में आ गया जिसके कारण लोगों की अपेक्षा भी बढ़ गई कि जब टैक्स दे रहे हैं तब सुविधाएं क्यों नहीं मिल रही हैं. मलेशिया में जीएसटी 1 अप्रैल 2015 को लागू हुआ था. एक जीएसटी की एक ही दर है, 6 प्रतिशत. भारत की तरह चार दरें नहीं हैं. सत्ता में आने वाले गठबंधन ने कहा है कि 100 दिन के भीतर जीएसटी हटा देंगे. जीएसटी के लिहाज़ से यह बड़ी घटना होगी, जिसे टैक्स रिफॉर्म के सबसे बड़े फार्मूले के तौर पर दुनिया के सामने पेश किया जा रहा है.
दूसरी तरफ भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने चार साल के कार्यकाल में तीसरी बार नेपाल के दौरे पर हैं. महीना भर पहले नेपाल के प्रधानमंत्री के पी शर्मा ओली भी दिल्ली आए थे. नेपाल में वाम दलों के गठबंधन की सरकार है. भारत और नेपाल दोनों को लग रहा है कि उनके संबंधों में कुछ कमी आ गई है जिसे ठीक किया जाना चाहिए.
एक पक्ष कहता है कि चीन के बढ़ते प्रभाव के कारण भारत अपने रिश्तों को फिर से नई रणनीति के तहत मज़बूत करना चाहता है. यह तर्क बार-बार दिया जाता है मगर ऐसे तथ्य अनदेखा कर दिए जाते हैं कि भारत और नेपाल के बीच सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक संबंध कितने गहरे हैं. प्रधानमंत्री मोदी जनकपुर के जानकी मंदिर गए. उसके बाद वे मुक्तिनाथ भी जाएंगे. यहां पर पिछले साल चीन के प्रभाव की खबर आई थी. नेपाल के प्रधानमंत्री ओली देवी देवताओं में यकीन नहीं करते हैं. कहते हैं उनके लिए कार्ल मार्क्स ही सबकुछ हैं. प्रधानमंत्री मोदी जिस इलाके में जा रहे हैं वो मधेसियों का इलाका है. नेपाल में सात प्रांत हैं. वहां प्रांतों के नंबर होते हैं. जनकपुर प्रांत नंबर दो में हैं और यही एक मात्र प्रांत है जिसका मुख्यमंत्री मधेसी पार्टी का है. मधेसी पार्टियां प्रधानमंत्री ओली को संदेह की निगाह से देखती हैं. भारत के सामने चुनौती है कि वह मधेस मूल के लोगों में विश्वास भी जगाए कि वह उनके लिए खड़ा रहेगा और नेपाल के साथ अपने संबंधों को बेहतर भी करे. इसके लिए जनकपुर से अयोध्या के बीच बस चलाई जाएगी.
भारत के नज़रिए से नेपाल को देखा जा रहा है तो नेपाल भी अपने नज़रिए से भारत को देख रहा है. इंडियन एक्सप्रेस में दि काठमांडू पोस्ट के प्रमुख संपादक अखिलेश उपाध्याय का एक लेख छपा है. इस लेख को पढ़ते हुए यही लग रहा है कि नेपाल की कूटनीति यह है कि अगर भारत उसे गंभीरता से लेगा तो वह भी भारत को गंभीरता से लेगा. नेपाल के कई बड़े प्रोजेक्ट चीन की मदद से चल रहे हैं. भारत के भी चल रहे हैं मगर क्या भारत नेपाल में चीन की तरह निवेश कर पाएगा और समय पर अपने प्रोजेक्ट को पूरा कर पाएगा.
अखिलेश उपाध्याय के लेख का सार यह है कि नेपाल के प्रधानमंत्री ओली भी काफी लोकप्रिय हैं, उनके पास प्रधानमंत्री मोदी की तरह भाषण कला है, ओली बड़े बड़े वादे करना पसंद करते हैं, संसद में उनके पास प्रचंड बहुमत है. वे समृद्धि के नारे पर चुनाव जीत कर आए हैं. नेपाल कोलकाता पोर्ट के ज़रिए अपनी ज़रूरत की चीज़ों का आयात करता है. वह चाहता है कि काठमांडू रक्सौल रेलमार्ग पर तेज़ी से काम हो. खेती में भी भारत मदद करे. उसकी उत्पादकता बढ़ाए साथ ही भारत से होने वाला 200 अरब रुपये के खाद्यान्न का आयात बिल कुछ कम हो. भारत और नेपाल के प्रधानमंत्री 900 मेगावाट के हाइट्रोपावर प्रोजेक्ट की आधारशिला रखेंगे. अभी देखना बाकी है कि क्या आज के दौर में सांस्कृति और धार्मिक संबंधों के सहारे कूटनीति में बदलाव हो सकता है, कूटनीतिक संबंधों को तय करने में पहले की तुलना में इस वक्त इनकी कितनी भूमिका है.
अब चलते हैं ईरान की तरफ. 2015 में अमेरिका, जर्मनी, रूस, फ्रांस, चीन और ब्रिटेन ने मिलकर ईरान के साथ एक समझौता किया जिसे Joint Comprehensive Plan of Action (JCPOA), कहते हैं. इस समझौते के तहत ईरान ने यह बात मानी कि वह परमाणु हथियारों का निर्माण नहीं करेगा. यूरेनियम का संवर्धन नहीं करेगा. अमेरिका के राष्ट्रपति ट्रंप ने खुद को इस डील से अलग कर लिया है. अमेरिकी चुनावों में ट्रंप ने इस डील की आलोचना भी की थी और वादा भी किया था कि राष्ट्रपति बनने पर इससे अलग हो जाएंगे. वे इससे पहले पर्यावरण पर हुए पेरिस डील से भी अमेरिका को अलग कर चुके हैं और अब ईरान के साथ हुए छह देशों के न्यूक्लियर डील से अलग कर लिया है.
ट्रंप मानते हैं कि ईरान अभी भी यूरेनियम का संवर्धन कर रहा है यानी परमाणु हथियार बनाने की क्षमता उसकी जारी है. ट्रंप दावा करते हैं कि उनके पास इसके तथ्य हैं. शायद उनका आधार इज़राइल के प्रधानमंत्री बेन्यामिन नेतन्याहू का दावा है जिसमें वे कहते हैं कि मोसाद के एजेंट ने ईरान के परमाणु प्रोजेक्ट से संबंधित ऐसी बहुत सी जानकारियां हासिल की हैं. जबकि इस डील के बाकी देश इज़राइल और अमेरिका के दावे को नहीं मानते हैं. ट्रंप ने कहा कि अगर हमने इसे नहीं रोका तो दुनिया के आतंकी संगठन भी ईरान से परमाणु हथियार हासिल कर लेंगे. ट्रंप दावा करते हैं कि इस डील की समय सीमा तय है जिसके बाद ईरान अपने परमाणु कार्यक्रम पर लौट आएगा. पूर्व राष्ट्रपति ओबामा के समय यह डील हुई थी, ओबामा ने कहा है कि JCPOA की शर्तें भले ही समय के साथ खत्म हो जाएंगी, मगर ऐसा होने में 15 से 25 साल तक लग जाएंगे. इसलिए ज़्यादा चिंता करने की ज़रूरत नहीं है. इस डील को ख़त्म करने में ट्रंप ने जितने भी दावे किए हैं उसका अमेरिकी अखबारों में तुरकी वा तुरकी खंडन किया जा रहा है. तथ्यों की गहन जांच हो रही है, अमेरिका का मीडिया हैरान है कि कैसे बिना तथ्यों को दिए या जो तथ्य दिए जा रहे हैं उनमें कई त्रुटियां हैं, इसके आधार पर ट्रंप इतना बड़ा फैसला कर सकते हैं.
अमेरिका कह रहा है कि ईरान के साथ जो कंपनियां कारोबार करेंगी उन पर जुर्माना लगेगा. आलोचक देश कहते हैं कि ऐसा होने पर ईरान वापस परमाणु कार्यक्रम पर लौट आएगा. ट्रंप समर्थक कहते हैं कि उनके कदम को लेकर हंगामा ज़्यादा होता है, होता कुछ नहीं है. पेरिस डील के समय भी यही सब कहा गया लेकिन हुआ कुछ नहीं. एक तर्क यह भी है कि ट्रंप अमेरिका के भीतर अपनी गिरती लोकप्रियता को विदेश नीति के ज़रिए चमकाने का प्रयास कर रहे हैं. अमेरिका के ईरान के साथ हुए करार तोड़ देने से भारत पर क्या असर पड़ेगा. भारत में भी इस घटना को लेकर चिन्ता ज़ाहिर की जा रही है.
भारत इराक और सऊदी अरब के बाद ईरान से भी तेल का आयात करता है. इसी फरवरी ईरान के राष्ट्रपति हसन रूहानी भारत आए थे, उन्होंने कहा था कि अगर भारत ईरान से तेल का आयात बढ़ाता है तो वह तेल के लाने ले जाने की कीमतों में छूट दे देंगे. इससे भारत को तेल खरीदना सस्ता पड़ता. अमेरिकी प्रतिबंध के कारण अगर भारत ईरान से तेल नहीं ले पाया तो उसके लिए तेल का आयात बिल काफी बड़ा हो जाएगा. इसका असर रुपये की कीमत पर भी पड़ेगा. पिछले सप्ताह की अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में कच्चे तेल की कीमत 76 डॉलर प्रति बैरल से ज़्यादा हो गई है. ईरान और अमेरिका के बीच संबंधों में बहुत जल्दी सुधार होने के आसार नहीं हैं. इस जनवरी से लेकर अभी तक डॉलर के मुकाबले रुपये की कीमत में 5.8 प्रतिशत की गिरावट आई है. डॉलर के मुबाकले रुपया 65 रुपये से गिकर 67 रुपया 32 पैसा हो गया है. दुनिया की सबसे खराब प्रदर्शन करने वाली तीन मुद्राओं में भारतीय रुपया भी है. रूस का रूबल और ब्राज़िल का रीयाल भी खराब प्रदर्शन कर रहा है. रुपया कमज़ोर होता है तो निर्यातक खुश होते हैं मगर आयातक परेशान हो जाते हैं. हमने यह जानकारी इंडियन एक्सप्रेस और हिन्दू अखबार पढ़कर लिखी है.
ईरान अगर युद्ध के हालात में उलझता है तो भारत पर क्या असर पड़ेगा. क्या भारत अमेरिका के दबाव की परवाह न करते हुए ईरान से अपने संबंधों और प्रोजेक्ट को आगे बढ़ाता रहेगा, कहीं ऐसा तो नहीं कि मध्य पूर्व में बड़े स्तर पर युद्ध के हालात पैदा हो रहे हैं. मध्यम श्रेणी के हमले तो हो ही जाते हैं. इज़राइल ने सीरीया में ईरान के ठिकानों पर बड़ा हमला किया है. एक तरफ अमेरिका इज़राइल और सऊदी अरब एक हो गए हैं तो दूसरी तरफ रूस ईरान और सीरिया. क्या यहां से मध्य पूर्व में एक बड़े युद्ध की कोई परिस्थिति पैदा हो सकती है.
This Article is From May 11, 2018
दुनियाभर में बड़े उलट फेर, क्या बने रहेंगे भारत-ईरान संबंध?
Ravish Kumar
- ब्लॉग,
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Updated:मई 11, 2018 23:26 pm IST
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Published On मई 11, 2018 23:26 pm IST
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Last Updated On मई 11, 2018 23:26 pm IST
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