चिट फंड घोटाला पीड़ितों को राहत के लिए कोई क़ानून क्यों नहीं बना?

बंगाल बनाम दिल्ली की राजनीति में यह सवाल उठे थे कि यह कैसी सक्रियता और गंभीरता है कि सीबीआई 6 साल में जांच पूरी नहीं कर पाई और न ही मामले का ट्रायल शुरू हो पाया.

चिट फंड घोटाला पीड़ितों को राहत के लिए कोई क़ानून क्यों नहीं बना?

फाइल फोटो

गुजरात की आबादी 6 करोड़ से कुछ अधिक है. कल्पना कीजिए पूरे राज्य के लोगों को एक कंपनी ठग ले और राज्य की तमाम संस्थाएं कुछ न कर सकें. पीएसीएल कंपनी ने 5 करोड़ 85 लाख लोगों के लाखों करोड़ लूट लिए. तीन साल हो गए सुप्रीम कोर्ट के आदेश के मगर वही आदेश पूरी तरह लागू नहीं हो सका और लोगों के पैसे नहीं मिल सके. फरवरी 2019 आ गया मगर एक नया पैसा किसी को नहीं मिला. हमने प्राइम टाइम में दो दिनों तक लगातार पर्ल एग्रोटेक कोरपोरेशन लिमिटेड के पीड़ितो ग्राहकों और उनके एजेंटों की व्यथा दिखाई. 4 और 5 फरवरी को. 6 फरवरी को कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने एक प्रेस कांफ्रेंस में बताया कि सरकार ने चिटफंड कंपनियों के बारे में कुछ फैसले लिए हैं. एक कानून बनाने जा रही है.

बंगाल बनाम दिल्ली की राजनीति में यह सवाल उठे थे कि यह कैसी सक्रियता और गंभीरता है कि सीबीआई 6 साल में जांच पूरी नहीं कर पाई और न ही मामले का ट्रायल शुरू हो पाया. अब जाकर कानून के मसौदे को मंज़ूरी मिली है. सरकार को कानून बनाने की बात करने और मंज़ूरी देने में ही पांच साल लग गए. 2014 में वित्त मंत्री अरुण जेटली ने लोकसभा में एक लिखित जवाब दिया था. जेटली उस वक्त कारपोरेट मामलों के भी मंत्री थे. इस बयान की खबर 28 नवंबर 2014 को इंडिया टुडे और इकोनोमिक टाइम्स में छपी है. सरकार कंपनी कानून का उल्लंघन करने वाली 14 चिट फंड कंपनियों के खिलाफ कार्रवाई करने जा रही है. सरकार इन कंपनियों की जांच के नतीजे सीबीआई से साझा करेगी. जेटली के अनुसार कंपनी लॉ में चिट फंड कंपनियों से संबंधित कोई प्रावधान नहीं है. चिट फंड एक्ट 1982 है लेकिन इसे लागू करने की ज़िम्मेदारी राज्य सरकारों की है.

ये वही साल है जब पीएसीएल का घोटाला सामने आ गया था. नवंबर 2014 के बयान से पता चलता है कि वित्त मंत्री चिट फंड कंपनियों की लूट की समस्या से अवगत हैं और कानून की सीमाओं को भी समझ रहे हैं. 2015 के अगस्त महीने में वित्त मंत्री जेटली फिर से लोकसभा में लिखित जवाब में 2012 से 2015 के बीच चिटफंड कंपनियों द्वारा अवैध वसूली की जानकारी देते हैं. यानी चिट फंड कंपनियां अपना काम कर रही थीं. यह सब इंटरनेट सर्च से मिला है.

अगस्त 2017 में वे कहते हैं कि एक कानून लेकर आते हैं जिसके ड्राफ्ट पर जल्दी ही चर्चा होगी. फरवरी 2018 में कानून का ड्राफ्ट बनता है, अनरेगुलेटेड डिपोजिट स्कीम एंड चिट फंड बिल 2018. अब यही बिल स्टैंडिंग कमेटी से लौट कर आया तो मंत्रिमंडल ने संशोधन को मंज़ूरी दे दी है जिसकी जानकारी 6 फरवरी को कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने दी. 2014 से फरवरी 2019 आ जाता है कि चिट फंड कंपनियों पर लगाम कसने के लिए सिर्फ कानून बनाने की प्रक्रिया ही चलती है वो भी कागज पर चलती रहती है. 140 से अधिक चिट फंड कंपनियों के खिलाफ कार्रवाई का क्या स्टेटस है, किस घोटाले में कितना पैसा मिला है, इसकी जानकारी नहीं है.

पीएसील चिट फंड का घोटाला सामान्य नहीं था. इसमें 5 करोड़ 85 लाख लोग लूटे गए. सुप्रीम कोर्ट ने तो सिर्फ एक तिहाई पैसा यानी 49,100 करोड़ वापस करने की बात कही थी, वापस नहीं हो सका. इस आदेश को लागू करने के लिए सरकार को किसी कानून की ज़रूरत नहीं थी. बंगाल मामले की राजनीति हाई प्रोफाइल हो चुकी है फिर भी उस मामले में 6 साल से सीबीआई जांच ही कर रही है. सवाल है कि सरकार को किसने रोका था कि इन कंपनियों पर लगाम लगाकर निवेशकों को पैसा लौटाने में.

सच पूछिए तो अगर पीएससीएल मामले को कवर नहीं करता तो रविशंकर प्रसाद जो कह रहे हैं उसमें क्या कमी है पता भी नहीं चलता. सी बी यादव क्या कह रहे हैं उसका भी अंदाज़ा नहीं होता. कई चिट फंड कंपनियां न्यूज चैनल खोल लेती हैं. पीएसीएल और शारदा के पास भी न्यूज़ चैनल था. क्या इतना काफी नहीं है कि आम लोगों में साख बनाने के लिए. क्या ऐसा न करने पर कानून में कोई व्यवस्था है. ब्रांड अंबेसडर को दंडित किया जाएगा उस पर बहस हो सकती है लेकिन इन चिट फंड कंपनियों के कार्यक्रमों में नेता, मंत्री जाते हैं उसका क्या किया जाए. क्या उन्हें दोषी ठहराया जा सकता है. क्या हर ब्रांड को प्रचार करने के लिए कलाकार दोषी होंगे तो फिर गुटखा का प्रचार करने वाले कलाकारों का क्या किया जाए. हमने पिछले एपिसोड में बताया था कि चिट फंड कंपनियां ग्राहकों और एजेंट के नेटवर्क पर काम करती हैं. जो एजेंट होता है वो निवेशक भी होता है. अभी हाल में छत्तीसगढ़ सरकार ने एजेंटों के खिलाफ मामले वापस लिए. अब सरकार कह रही है कि एजेंट को भी पकड़ा जाएगा.

चिटफंड कंपनियां आम लोगों को लूट रही हैं. उनके जाल में फंसे लोगों को पता नहीं होता कि कंपनी नियम से बनी है या नियम तोड़ कर. पढ़े लिखे लोग झांसे में आ जाते हैं. इनकी संख्या लाखों करोड़ों में है. पिछले दिनों एक आंकड़ा आया था कि 45 साल में बेरोज़गारी सबसे अधिक है. नेशनल सैंपल सर्वे का यह आंकड़ा सबको परेशान कर रहा है. जो खंडन कर रहे हैं उन्हें दिक्कत आ रही है. जो इसका इस्तमाल कर रहे हैं उनके पास कोई नीति साफ नहीं कि इस बेरोज़गारी को कैसे दूर करेंगे. क्या आज के भारत में यह भी पता लगाना मुश्किल है कि अलग-अलग राज्यों में सरकारी विभागों में कितने पद खाली हैं. आज रांची के प्रभात खबर में एक खबर छपी है. अगर इस खबर में कोई त्रुटी नहीं है तो स्थिति भयावह है. बेरोज़गारी के लिहाज़ से ही नहीं बल्कि ये सोचिए कि जब सरकार में लोग नहीं हैं तो सरकार चल कैसे रही है. मुझे हैरानी है कि इतनी अच्छी खबर के लिए अखबार ने संवाददाता का नाम क्यों नहीं दिया है. अख़बार का अपना फैसला होगा लेकिन विशेष संवाददाता की खबर के अनुसार झारखंड सरकार के विभिन्न 2 लाख 81 हज़ार पद खाली हैं. मात्र 40.85 प्रतिशत कर्मचारियों के भरोसे सरकार का काम हो रहा है. झारखंड सरकार में 4 लाख 73 हज़ार से अधिक पद स्वीकृत हैं मगर 60 फीसदी के करीब पद खाली है. ऐसे विभाग जिनका संबंध गांव की आबादी से है, उनके यहां पद काफी खाली हैं. पंचायती राज में 6680 पद खाली हैं. साइंस एंड टेक्नोलॉजी में 2517 पद मंज़ूर हैं मगर 1943 पद खाली हैं. पेयजल विभाग में 2965 पद खाली हैं. राजस्व भू सुधार में 4201 पद खाली हैं. ग्रामीण विकास में 3295 पद खाली हैं. यहां तक कि वित्त विभाग में भी 56 प्रतिशत पद खाली हैं. यह आंकड़े बता रहे हैं कि सरकारें अपने भीतर भी बेरोज़गारी पैदा करती हैं. बल्कि कह सकते हैं कि सरकारें बेरोज़गारी पैदा करने की मशीन बन गई हैं.

ये एक राज्य का हिसाब है. भाषण में तो सब अच्छा चल रहा है मगर सड़कों पर जाकर युवाओं से पूछिए कि रोज़गार की क्या हालत है. अगर कोई सरकार इतनी ही बेहतर हो गई है तो उसके यहां के चयन आयोग एक परीक्षा तक क्यों नहीं ढंग से करा पाते हैं. हमारे सहयोगी परिमल कुमार दिल्ली में हुए यंग इंडिया नेशनल कार्डिनेशन कमेटी का मार्च कवर करने गए थे. इस मार्च में यह दावा किया गया कि राज्यों को मिलाकर देश के सरकारी संस्थानों में 70 लाख पद खाली हैं. केंद्र सरकार या उसके अधीन संस्थाओं में 24 लाख पद खाली हैं. इन पदों पर तुरंत नियुक्ति की जाए. देश भर की 20 से ज्यादा यूनिवर्सिटी के छात्र संघों और छात्रों ने इस मार्च में हिस्सा लिया. मुद्दा मुख्य रूप से बेरोज़गारी था मगर मांग थी कि सरकार जीडीपी का 10 फीसदी शिक्षा पर खर्च करे. इस मार्च में सरकारी नौकरियों से परेशान छात्रों ने भी अपना संगठन बनाकर इस मार्च में हिस्सा लिया था. झारखंड के पैरा टीचर्स, स्टाफ सलेक्शन कमीशन की परीक्षा से परेशान छात्र, रेलवे अप्रेंटिस छात्र इसमें शामिल थे. करीब 70 संगठन इस मार्च में शामिल हुए. हैदराबाद, पुणे, गुजरात, बिहार, अरुणाचल, असम और बंगाल से छात्र आए थे.

रेलवे अप्रेंटिस के छात्र कई दिनों से दिल्ली में धरना दे रहे हैं. वे पहले भी दे चुके हैं. रेलवे के सिस्टम में ट्रेनिंग लेने के बाद भी उन्हें नौकरी नहीं मिल रही है. नौकरी मिलने की पुरानी व्यवस्था बदल गई है. हाल फिलहाल में इनके लिए रेलवे की नौकरियों में 20 प्रतिशत आरक्षण दिया गया है मगर उन्हें परीक्षा देनी होगी.

बेरोज़गारों का यह मार्च अजीब अजीब परेशानियों को लेकर आया था. 6 जनवरी को यूपी में 69 हज़ार प्राथमिक शिक्षकों की परीक्षा हुई थी. इसमें बीएड, बीटीसी और शिक्षा मित्रों ने आवेदन किया था. ये लोग भी मार्च में आ गए ताकि सरकार की तरफ ध्यान जाए. इनकी मांग है कि पर्चा लीक हो गया था. ये लोग 31 दिन से इलाहाबाद में आयोग के दफ्तर के बार परीक्षा रद्द करने की मांग को लेकर धरना दे रहे हैं.

इस मार्च में एम्स के भी कुछ डॉक्टर परिमल को मिले. इनकी बात पर तो किसी का ध्यान ही नहीं है कि मेडिकल की पढ़ाई करोड़ों की होती जा रही है. जितने एम्स खुले हैं वहां 80 प्रतिशत पद खाली हैं. वहां परमानेंट भरती नहीं हो रही है. ठेके पर लोग रखे जा रहे हैं.

नेशनल सैंपल सर्वे 2017-18 का डेटा पब्लिक नहीं हुआ, उसके विरोध में राष्ट्रीय सांख्यिकी आयोग से दो सदस्यों ने इस्तीफा दे दिया. सरकार अपने ही डेटा को समस्याग्रस्त मानती है. उस रिपोर्ट को लेकर बिजनेस स्टैंडर्ड के सोमेश झा ने रिपोर्ट छापी है कि 45 साल में बेरोज़गारी इस वक्त सबसे अधिक है. सेंटर फॉर मानिटरिंग ऑफ इंडियन इकोनॉमी के महेश व्यास भी लगातार अपने रिसर्च से बता रहे हैं कि नौकरी घट रही है. बेरोजगारी बढ़ रही है. मगर प्रधानमंत्री आज लोकसभा में राष्ट्रपति के अभिभाषण पर जवाब देते हुए रोज़गार के आंकड़े देने लगे.

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36 लाख ट्रक नए खरीदे गए. अब पुराने ट्रक की जगह नए खरीदे गए या और नए ट्रक खरीदे गए. प्रधानमंत्री ने जो डेटा दिया है उसकी जांच कैसे हो. हमने ट्रांसपोर्ट सेक्टर के कुछ लोगों से बात की. हमारा सवाल है कि क्या वाकई ट्रक खरीदने से इतने रोज़गार बढ़े हैं जितने का दावा प्रधानमंत्री कर रहे हैं.