इतिहास से खिलवाड़ क्यों कर रहे हैं पीएम मोदी?

प्रधानमंत्री मोदी ने नेहरू और भगत सिंह को लेकर कुछ ऐसा कहा जिससे पता चलता है कि पीएम के यहां भी व्हाट्सऐप यूनिवर्सिटी यानी इतिहास की गलत जानकारी को लेकर काफी निरंतरता मिलती है.

इतिहास से खिलवाड़ क्यों कर रहे हैं पीएम मोदी?

कर्नाटक में चुनावी रैली को संबोधित करते पीएम मोदी. (फाइल फोटो)

आवश्यकता है ऐसे किसी भी व्यक्ति कि जो नेहरू और भगत सिंह पर गलत-सलत जानकारी रखता हो, या ऐसी जानकारी रखता हो जिसे गलत तरीके से पेश किया जा सके. ऐसे किसी योग्य को तुरंत उन लोगों से संपर्क करना चाहिए जो प्रधानमंत्री के भाषण के लिए रिसर्च करते हैं या फिर सीधे प्रधानमंत्री से ही संपर्क करना चाहिए. जरूरी है कि योग्य व्यक्ति इतिहास के बारे में कुछ नहीं जानता हो या फिर वही जानता हो जो इतिहास में ही न हो.

व्हाट्स ऐप यूनिवर्सिटी में नेहरू और भगत सिंह स्थायी चैप्टर हैं. व्हाट्स ऐप यूनिवर्सिटी में नेहरू के बारे में इतना झूठ आता है कि आप सही करते-करते इतना थक जाएंगे कि खुद को झूठा घोषित कर देंगे. आप सही कर ही नहीं सकते, क्योंकि आप एक बार सही करेंगे मगर बार-बार गलत जानकारी आती रहेगी. लेकिन प्रधानमंत्री के भाषण में व्हाट्स ऐप यूनिवर्सिटी में चलने वाली जानकारी आ जाएगी, इसकी कल्पना आराम से की जा सकती है. कर्नाटक चुनाव में ही जिस तरह से नेहरू का जिक्र आया और उसकी आलोचना हुई, इसके बाद भी प्रधानमंत्री ने नेहरू और भगत सिंह को लेकर कुछ ऐसा कहा जिससे पता चलता है कि प्रधानमंत्री के यहां भी व्हाट्स एप यूनिवर्सिटी यानी इतिहास की गलत जानकारी को लेकर काफी निरंतरता मिलती है. आप पहले सुनिये कि कर्नाटक के बीदर में प्रधानमंत्री मोदी ने क्या. 

एक तो यह सवाल ही विचित्र है कि कांग्रेसी नेता मिलने गया या नहीं. उस दौर में सरदार पटेल भी उतने ही कांग्रेसी थे जितने नेहरू कांग्रेसी थे. क्या यह सवाल सरदार पटेल से भी है, क्या यह सवाल राजेंद्र प्रसाद से भी है, सुभाष चंद्र बोस से भी है. क्या यह सवाल हो सकता है कि नेहरू जो अपनी जिंदगी के 9 साल जेल में रहे, उनसे मिलने कौन-कौन गया. इसका जवाब देने में 10-20 पन्ना भर सकता है. पर अच्छी बात है कि प्रधानमंत्री ने यह कहा कि उन्होंने जितना इतिहास पढ़ा है. यह खुशी की बात है कि उन्होंने कुछ तो इतिहास पढ़ा है. 

प्रधानमंत्री ने नेहरू का नाम नहीं लिया मगर कांग्रेसी परिवार कहा. क्या नेहरू ने शहीद भगत सिंह, बटुकेश्वर दत्त से जेल में मुलाकात की थी. एक तो वैसे ही भारत के कॉलेजों में इतिहास से लेकर तमाम विषयों के कई हज़ार शिक्षक नहीं हैं. इसलिए ज़रूरी है कि इतिहास को लेकर प्रधानमंत्री के कुछ बयानों की चर्चा की जाए ताकि लोग उनकी बात को ही इतिहास की किताब न समझ बैठे. बहुत से बच्चे उनके फैन हैं. अगर वो इस ग़लत इतिहास को ही सही मान लें तो यह अच्छा नहीं होगा. 'Selected Works Of Nehru Volume 4' पेज 13 पर शीर्षक है भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त के भूख हड़ताल.

5 जुलाई 1929 को लिखा नेहरू का पत्र

'मैं कल सेंट्रल जेल गया था. सरदार भगत सिंह, श्री बटुकेश्वर दत्त, श्री जतिन नाथ दास और लाहौर केस के सभी आरोपियों को देखा, जो भूख हड़ताल पर बैठे थे. कई दिनों से उन्हें जबरन खिलाने का प्रयास हो रहा है. कुछ को इस तरह जबरन खिलाया जा रहा है कि उन्हें चोट पहुंच रही है. जतिन दास की स्थिति काफी नाजुक है. वे काफी कमजोर हो चुके हैं और चलफिर नहीं सकते. बोल नहीं पाते, बस बुदबुदाते हैं. उन्हें काफी दर्द है. ऐसा लगता है कि वे इस दर्द से मुक्ति के लिए प्राण त्याग देना चाहते हों. उनकी स्थिति काफी गंभीर है. मैंने शिव वर्मा, अजय कुमार घोष और एल जयदेव को भी देखा. मेरे लिए असधारण रूप से इन बहादुर नौजवानों को इस स्थिति में देखना बहुत पीड़ादायक था. मुझे उनसे मिलकर यही लगा कि वे अपनी प्रतिज्ञा पर कायम हैं. चाहे जो नतीजा हो. बल्कि वे अपने बारे में जरा भी परवाह नहीं करते हैं. सरदार भगत सिंह ने उन्हें वहां की स्थिति बताई कि कत्ल के अपराध को छोड़कर सभी राजनीतिक बंदियों से विशिष्ट व्यवहार होना चाहए. मुझे पूर्ण आशा है कि उन युवकों का महान आत्मत्याग सफल होगा.'


तो जेल में नेहरू ने भगत सिंह बटुकेश्वर दत्त और जतिन दास से मुलाकात की थी. इसके बाद भी प्रधानमंत्री ने सवालों के अंदाज में रख दिया. यह भी जोड़ दिया कि कोई सुधार करेगा तो तैयार हूं. उन्हें पता है कि ज्यादातर गोदी मीडिया कोई सुधार नहीं करेगा जो करेगा भी वो शायद बीदर की रैली में शामिल उस जनता तक शायद ही पहुंचे जिसके बीच प्रधानमंत्री ने इतिहास को लेकर ग़लतबयानी की. 

इसलिए हम उन्हें बता रहे हैं और आपको भी बता रहे हैं कि इतिहास के बारे में प्रधानमंत्री मोदी जब भी कुछ कहें, यकीन करने से पहले चेक कर लें. संदर्भों की जांच कर लें. कर्नाटक चुनाव में इससे पहले प्रधानमंत्री एक और गलती कर चुके हैं. जब उन्होंने नेहरू, फील्ड मार्शल करियप्पा और जनरल थिम्मैया का प्रसंग उठाया था. उसकी तथ्यों के आधार पर आलोचना हुई. उसके बाद भी ये गलत बयान आया है. उसमें तो सुधार नहीं किया लेकिन एक और गलती कर, झूठ बोलकर कह दिया कि आप बताएंगे तो सुधार कर देंगे.

अब यही कोई प्रधानमंत्री से पूछ देता कि आर एसएसके केशव बलिराम हेडेगवार या गोलवलकर ने भगत सिंह से मुलाकात की थी तब प्रधानमंत्री क्या जवाब देते. सवाल तो आजादी की लड़ाई में संघ की मुख्य भूमिका नजर न आने को लेकर भी उठता है. क्या इसका जवाब प्रधानमंत्री किसी रैली में देंगे या क्लासरूम में पढ़ना-पढ़ाना होगा. सरदार पटेल ने भगत सिंह से मुलाकात नहीं की तो क्या प्रधानमंत्री मोदी उसे लेकर जनता से सवाल करेंगे. 2014 के चुनावों में आपको याद होगा कि वे खुद को चौकीदार कहते थे और प्रधान सेवक कहलाना पसंद करते थे. उनके बहुत से बयानों में इसका जिक्र आया कि वे खुद को प्रधानमंत्री के रूप में नहीं, प्रधान सेवक के रूप में कहलाना चाहते हैं, देखना चाहते हैं. लेकिन जब नवंबर 2014 के महीने में प्रोफेसर सलिल मिश्रा के साथ मैं तीन मूर्ति भवन गया नेहरू और उनके दौर पर बात करने के लिए तो एक बोर्ड दिखा. जो बात प्रधानमंत्री के उम्मीदवार के तौर पर मोदी कह रहे थे वही बात नेहरू कह चुके थे.

क्या यह महज संयोग रहा होगा कि नेहरू खुद को प्रथम सेवक कहलाना चाहते थे. मोदी खुद को प्रधान सेवक कहलाना चाहते थे. कहीं प्रधानमंत्री मोदी नेहरू की इस बात से प्रभावित तो नहीं हो गए थे. व्हाट्स ऐप यूनिवर्सिटी में नेहरू को लेकर, नेहरू और अन्य नेताओं के साथ उनके संबंधों को लेकर अफवाहें फैलाई जाती हैं, मगर अब ये अफवाहें प्रधानमंत्री के भाषण का हिस्सा बनने लगी हैं. अब मैं आपको सरदार पटेल और नेहरू का स्टेटमेंट पढ़ना चाहता हूं जो उन्होंने भगत सिंह और उनके साथियों के बारे में कहा था. नेहरू ने भगत सिंह के फांसी के बाद कहा, 'हम भगत सिंह को बचा न सके हमारी इस असमर्थता पर देश दुखी होगा. पर जब शासन हमसे समझौते की बात करेगा तो हमारे और उसके बीच भगत सिंह की लाश भी पड़ी होगी'.

ये नेहरू ने भगत सिंह के बारे में कहा था. अभ्यूदय पत्रिका जिसे ब्रिटिश हुकूमत ने ज़ब्त कर ली थी, इसके 8 मई 1931 के अंक में नेहरू का भगत सिंह पर लेख छपा था. शीर्षक था 'त्यागी भगत सिंह'.

'यह क्या बात है कि यह लड़का यकायक इतना प्रसिद्ध हो गया और दूसरों के लिए रहनुमा हो गया. महात्मा गांधी, जो अहिंसा के दूत हैं, आज भगत सिंह के महान त्याग की प्रशंसा करते हैं. वैसे तो पेशावर, शोलापुर, बम्बई और अन्य स्थानों में सैकड़ों आदमियों ने अपनी जान दी है. बात यह है कि भगत सिंह का निस्वार्थ- त्याग और उसकी वीरता बहुत ऊंचे दर्जे की थी. लेकिन इस उत्तेजना और जोश के समय भगत सिंह का सम्मान करते हुए हमें यह न भूलना चाहिए कि हमने अहिंसा के मार्ग से अपने लक्ष्य की प्राप्ति का निश्चय किया है. मैं साफ कहना चाहता हूं कि मुझे ऐसे मार्ग का अवलम्बन किए जाने पर लज्जा नहीं होती है, लेकिन मैं अनुभव करता हूं कि हिंसा मार्ग का अवलम्बन करने से देश का सर्वोत्कृष्ट हित नहीं हो सकता और इससे साम्प्रदायिक होने का भी भय है. हम नहीं कह सकते कि भारत के स्वतंत्र होने के पहले हमें कितने भगत सिंहों का बलिदान करना पड़ेगा. भगत सिंह से हमें यह सबक लेना चाहिए कि हमें देश के लिए बहादुरी से मरना चाहिए.' 

नेहरू जो भगत सिंह के बलिदान को कभी कम नहीं आंकते तब भी नहीं जब वे उनके विचारों या रास्ते से अपनी दूरी भी साफ करते हैं. ठीक यही बात सरदार पटेल भी करते हैं. वे भी भगत सिंह की तारीफ करते हैं मगर उनके रास्ते से खुद को अलग करते हुए. 

भगत सिंह पर सरदार पटेल के विचार
'युवक भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु की फांसी से सारा देश विक्षुब्ध हो गया है. मैं इन वीरों की प्रथा का अनुकरण नहीं कर सकता. राजनीतिक हत्या अन्य प्रकार की हत्याओं से कम निंदनीय नहीं है, इसमें मुझे तो कोई संदेह नहीं पर सरदार भगत सिंह और उनके साथियों के देशप्रेम, साहस और आत्मबल का कायल हूं. फांसी की सज़ा रद्द करने के लिए जो प्रार्थना अखिल देश ने की थी, उनकी अवहेलना से वर्तमान शासन की ह्रदयहीनता और विदेशीयता जिस प्रकार प्रकट हुई है, वैसे पहले कभी नहीं हुई थी. पर विक्षोभ के आवेश में हमें कर्तव्य से तनिक भी विचलित न होना चाहिए, इन वीर देश भक्तों की आत्माओं को शांति मिले.'

क्या होगा अगर कोई नेता किसी रैली में प्रधानमंत्री की तरह जाकर कहने लगे कि सरदार पटेल और नेहरू का सबसे बड़ा अपराध यही था कि उन्होंने भगत सिंह और उनके साथियों के रास्ते की आलोचना की. अपना रास्ता छोड़कर उनका तरीका नहीं अपनाया. क्या इस तरह से इतिहास का हिसाब होगा, वो भी प्रधानमंत्री इस तरह से हिसाब करेंगे. क्या भगत सिंह के रास्ते से अलग करते हुए सरदार पटेल या नेहरू ने उनका अपमान किया था. मदन मोहन मालवीय ने भी भगत सिंह के लिए अपील की थी. उन्होंने भी भगत सिंह के हिंसा के रास्ते से खुद को अलग किया और युवाओं को इस रास्ते पर न जाने की सलाह दी थी. मदन मालवीय ने लिखा था कि, 'भगत सिंह आदि की फांसी एक बात अधिक स्पष्ट हो जाती है कि विदेशियों के शासन में भारत को आदर नहीं मिल सकता. भारत में ही यह संभव हो सकता है कि महात्मा गांधी जैसे अंतर्राष्टरीय प्रसिद्धि व्यक्ति के प्रार्थना करने पर भी फांसी की सज़ा नहीं घटाई गई. वायसराय ने उनकी प्रार्थना पर ध्यान नहीं दिया.'

हमने यह जानकारी चमन लाल की संपादित क्रांतिवीर भगत सिंह, अभ्युदय और भविष्य से ली है जिसे लोकभारती प्रकाशन ने छापा है. प्रधानमंत्री मोदी बंगाल के चुनाव में जाते हैं कि नेहरू पर बोस के अपमान का आरोप मढ़ देते हैं, गुजरात चुनाव में जाते हैं तो सरदार पटेल की बात करने लगते हैं, कभी नेहरू पर भगत सिंह के अपमान की बात करने लगते हैं. ये शहीदों और स्वतंत्रता संग्राम के नायकों के मान अपमान की राजनीति से कुछ हासिल नहीं होता है. न तो सरदार पटेल का मान बढ़ता है न ही नेहरू का अपमान होता है. यह बात प्रधानमंत्री को समझना चाहिए कि वे जो भी कहें कम से कम इतिहास के साथ और तथ्यों के साथ छेड़छाड़ न करें. 

यह सवाल भी व्हाट्सऐप यूनिवर्सिटी के लेवल का है. क्या सेलुलर जेल में परिवार या किसी भी सदस्य को बंदियों से मिलने दिया जाता था. नहीं दिया जाता था. अब रही बात कि प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि रेल मार्ग से उन्हें ले जाया जा रहा था तो कोई कांग्रेसी परिवार सावरकर से मिलने गया था. इस सवाल का कोई मतलब नहीं है. उस समय का कांग्रेसी परिवार कुछ और था. वो गांधी परिवार नहीं था, तो क्या यह सवाल सरदार पटेल से भी है, आचार्य कृपलानी, नेताजी बोस से भी है. किस-किस से है. सावरकर, भगत सिंह से क्यों नहीं मिलने गए या भगत सिंह सावरकर से क्यों नहीं मिलने गए, इन सवालों से इतिहास का आंकलन नहीं कर सकते. यह तरीका ठीक नहीं है.

प्रधानमंत्री को अब लगता है कि सलाहकार की नहीं, इतिहासकार की ज़रूरत है वो भी जो कम से कम पढ़ा लिखा हो. व्हाट्सऐप यूनिवर्सिटी से पढ़कर न आया हो. भारत के प्रधानमंत्री अगर इस स्तर पर आएंगे तो फिर राजनीति में क्या रह जाएगा. उनका इशारा लालू यादव और राहुल गांधी के बीच मुलाकात को लेकर था. फिर प्रधानमंत्री मोदी लालू यादव के साथ इस तस्वीर में क्या कर रहे हैं. 21 फरवरी 2015 की यह तस्वीर इटावा की है, जब मुलायम सिंह के पोते से लालू यादव की बेटी की शादी हुई थी. अपनी बेटी का तिलक लेकर लालू यादव इटावा आए थे, और प्रधानमंत्री भी उसमें शामिल हुए थे. उस वक्त भी लालू यादव सज़ायाफ्ता हो चुके थे. 2013 में उन्हें 5 साल की सज़ा हुई थी और 11 साल तक के लिए चुनाव लड़ने पर रोक लगा दी गई थी. इस अप्रैल महीने में राहुल गांधी ने अस्पताल में इलाज करा रहे लालू यादव से मुलाकात की. क्या जेल में किसी से मिलना गुनाह है, यह कहां लिखा है, तो फिर प्रधानमंत्री लालू यादव की बेटी के तिलक में क्यों गए, तब भी तो सज़ा हो चुकी थी. 

इतिहास को ऐसे मत देखिए. इसकी बहुत बारीकियां होती हैं. जो हो रहा है उस पर बात नहीं हो रही है, जो हो चुका है उस पर बात हो. राजनीति में भी हो, लेकिन झूठ के सहारे नहीं. अगर प्रधानमंत्री इतिहास को लेकर इस तरह से करेंगे तो फिर क्या बचेगा. आखिर वे ऐसा क्यों करते हैं. क्या ज़रूरत है. क्या वे नहीं जानते कि जनता पर गलत असर पड़ेगा, क्या वे गलत बोलकर झूठ बोलकर अपनी चुनावी सफलता में चार चांद लगाना चाहते हैं. ये फैसला उन्हें करना होगा, बाकी हम इतिहास सुधारने की उनकी इच्छा पूरी करते रहेंगे.


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