संसद का शीतकालीन सत्र तय समय से एक दिन पहले अनिश्चित काल के लिए स्थगित हो गया. इसके साथ ही राज्यसभा के 12 सांसदों के निलंबन भी समाप्त हुआ. सत्र हंगामेदार रहा. सांसदों से आत्मनिरीक्षण की अपील की गई और संसद में आशा के अनुरूप कामकाज न होने पर निराशा व्यक्त की गई. इस सत्र के दौरान राज्यसभा की उत्पादकता महज़ 47.9 % रही. 45.4 घंटों में से केवल 21.7 घंटे महत्वपूर्ण विधेयकों पर चर्चा में बीते. शीतकालीन सत्र के दौरान विपक्ष से बातचीत की कोई पहल सरकार की तरफ से नहीं हुई. जब बात ही नहीं हुई तो सरकार से यह पूछना भी निरर्थक होगा की आखिर संसद को चलाने की ज़िम्मेदारी किसकी थी? खैर, इस सवाल से बड़ा मसला यह है कि सरकार विपक्ष की बातों को अनसुना कर झूठी कहानी को आगे बढ़ाती रही. मेरी राय इस मामले में स्पष्ट है. सरकार अपनी नाकामियों को छुपाने के लिए जनता के मुद्दों पर चर्चा से बचती रही और उसके अड़ियल रवैये से नुक़सान जनता का ही हुआ.
संवाद और विवाद पार्लियामेंट की आत्मा है, तो फिर सरकार पार्लियामेंट में बैठने वालों से दूरी क्यों बनाती रही? संसदीय इतिहास में ऐसे कई मौके आए जब सत्तारूढ़ दल ने विपक्ष के प्रति सॉफ्ट रुख अपनाया. आज जो सत्ता में कायम हैं उन्हीं के दिग्गज नेताओं, स्व. जेटली जी और सुषमा जी ने संसद में गतिरोध पर इन्हीं शब्दों के माध्यम से मीडिया के बीच अपनी बात रखी थी. बहुत पुरानी नहीं, जनवरी 2018 की बात है. तब प्रधानमंत्री जी ने शीतकालीन सत्र के पहले दिन संवाददाताओं को संबोधित करते हुए कहा था, "संवाद के लिए सदन से बड़ा मंच कोई नहीं हो सकता. डिबेट, डिस्प्यूट और डायलॉग संसद की आत्मा हैं." आज वो नियम और परंपरा कहां गायब हो गई हैं? कौन तोड़ रहा है उन नियमों को? कहीं ये भी एक जुमला तो नहीं? सरकार विपक्षी सांसदों से संवाद कायम करने से क्यों बच रही है?
यहां उस घटना का ज़िक्र करना जरूरी है जब संसद के 254वें सत्र के अंतिम दिन (11 अगस्त 2021) सरकार ने बीमा क्षेत्र के निजीकरण से संबंधित जनरल इंश्योरेंस बिल राज्यसभा में पेश किया. इस अति महत्वपूर्ण बिल को जिस तरह से राज्यसभा में लाया गया वह संसद के निर्धारित नियमों का सरासर उल्लंघन था. हम इस बिल पर चर्चा करना चाहते थे. हमारी मांग थी कि इस बिल को सदन द्वारा बनाई जाने वाली चयन समिति के समक्ष भेजा जाए. लेकिन ऐसा कुछ होता न देख और सरकार की मंसा को भांपकर, विपक्षी सांसदों सहित मैंने उन हजारों कामगारों के लिए आवाज उठाई जिन्होंने अपना रोजगार खोने की चिंता जताई थी. हमने अलोकतांत्रिक तरीके से राष्ट्रीय संपत्ति के निजीकरण के खिलाफ और बिना चर्चा विधेयक पारित किए जाने के खिलाफ उठाई. सरकार ने पहले भी अगले चार सौ सालों तक अन्नदाताओं को प्रभावित करने वाले विधेयक को महज चार घंटे की चर्चा में पारित करा दिया और आखिरकार चुनावी समीकरण को देखते हुए 700 अन्नदाताओं की मौत के बाद इन काले कानूनों को वापस लेना ही पड़ा!
यहीं ठहर जाते तो ठीक था मगर जैसी हमारी आशंका थी, सदन में बिना किसी चर्चा के कई विधेयकों को पारित कराया गया और सदन को अनिश्चित काल के लिए स्थगित कर दिया गया. पूरे मानसून सत्र के दौरान सरकार पेगासस, कृषि कानून और किसानों के आंदोलन जैसे कई प्रमुख मुद्दों पर चर्चा से बचती रही. जनहित से जुड़े अहम मुद्दों को लगातार उपेक्षित और खारिज करती रही. बिना किसी चर्चा या जांच के विधेयकों को पारित कराने का सिलसिला जारी रहा. विपक्ष ने इन मुद्दों पर सरकार के साथ लगातार बातचीत करने की कोशिश की. लेकिन चुनावी मौसम को छोड़कर, यह सरकार आम जनता से जुड़े मुद्दों को कायदे से नज़रअंदाज़ करने में बेहद काबिल है.
जब संसद का 255वां सत्र शुरू हुआ तो देश की जनता के लिए आवाज उठाने वाले 12 सांसदों को सजा दी गई. हमें पहले दिन निलंबित कर दिया गया. पूरे शीतकालीन सत्र के लिए निलंबित कर दिया गया. यह निर्धारित नियमों के खिलाफ, अलोकतांत्रिक और असंसदीय है. सरकार ने राज्य सभा की प्रक्रिया और कार्य संचालन के लिए निर्धारित नियम 256 का खुले तौर पर दुरुपयोग किया है. नियम के अनुसार, किसी सांसद का निलंबन 'लगातार और जानबूझकर बाधा डालने' के कारण होना चाहिए और यह निलंबन उस सत्र से अधिक अवधि के लिए नहीं हो सकता है.
राज्यसभा के रूल बुक के नियम 256(1) में कहा गया है कि "यदि सभापति आवश्यक समझें तो वह उस सदस्य का नाम ले सकते हैं जो सभापीठ के अधिकार की अपेक्षा करे या जो बार-बार और जान बूझकर राज्य सभा के कार्य में बाधा डालकर राज्यसभा के नियमों का दुरूपयोग करे." लेकिन सभापति जी ने इस नियम 256(1) के तहत सदस्यों के नाम कभी नहीं पुकारे. जबकि निलंबित सदस्यों का नाम लेना इस नियम के अनुसार जरूरी था. इस तरह नियम 256 के तहत पारित निलंबन प्रस्ताव ही इस नियम के विरुद्ध है.
इस नियम के उप-खंड 2 में कहा गया है, “यदि किसी सदस्य का सभापति द्वारा इस तरह नाम लिया जाये तो वह एक प्रस्ताव उपस्थित किये जाने पर, किसी संशोधन, स्थुगन अथवा वाद-विवाद की अनुमति न देकर, तुरन्त इस प्रस्ताव पर मत लेगा कि सदस्य को (उसका नाम लेकर) राज्यसभा की सेवा से ऐसी अवधि तक निलम्बित किया जाये जो सत्र के अवशिष्ट भाग से अधिक नहीं होगी. परन्तु राज्यसभा किसी भी समय, प्रस्ताव किये जाने पर, संकल्प कर सकेगी कि ऐसा निलम्बन समाप्त किया जाये.“
इसका सीधा मतलब यह है कि संसद के किसी भी पूर्व घटनाक्रम का संज्ञान अगले सत्र में नहीं लिया जा सकता है. अब जबकि संसद के 254वें सत्र का समापन हो चुका है, तब 255वें सत्र में 12 सांसदों के खिलाफ उन घटनाओं के आधार पर निलंबन जैसी कार्रवाई का निर्णय कैसे लिया जा सकता है?
इन दो बिंदुओं पर ध्यान दिया जाए तो संसद के 255वें सत्र में सांसदों का निलंबन अलोकतांत्रिक, अन्यायपूर्ण और द्वेषपूर्ण राजनीती से प्रेरित है. सरकार कहती रही है कि संसदीय रिकॉर्ड हमारे 'दुर्व्यवहार' का सबूत देते हैं, लेकिन रिकॉर्ड स्पष्ट रूप से एक विरोधाभासी तस्वीर पेश करते हैं. इस संदर्भ में पिछले सत्र के रिकॉर्ड की जांच की जा सकती है. उक्त तिथि के लिए राज्यसभा की असंशोधित वाद-विवाद में सभापति द्वारा पूरी कार्यवाही के दौरान 'व्यवधान' करने के लिए मेरे नाम का उल्लेख नहीं किया गया. वास्तव में, संसद के बुलेटिन में सभापति महोदय द्वारा उन सांसदों के नाम बताने की परंपरा रही जो सदन की मर्यादा के अनुरूप व्यवहार नहीं कर रहे होते हैं. लेकिन उस सत्र के दौरान केवल एक बार मेरा नाम सूचीबद्ध किया गया जिस दिन सरकार ने बीमा विधेयक को पारित करने में जल्दबाजी की थी. संसदीय रिकॉर्ड को देखते हुए इस बात के पुख्ता सबूत हैं कि सदन में सरकार का व्यवहार अन्यायपूर्ण और अनुचित है.
एक संसद सदस्य के रूप में यह सुनिश्चित करना मेरा संवैधानिक कर्तव्य है कि संसद में पेश किए गए विधेयकों पर बहस और चर्चा हो. मैं केवल एक ईमानदार विपक्षी सांसद के रूप में अपने कर्तव्य का निर्वहन कर रही थी और मेरा आचरण हमेशा उस शपथ के अनुसार ही रहा है जो मैंने संसद सदस्य के रूप में ली थी. इसलिए पिछले सत्र से संबंधित निलंबन प्रस्ताव नए और महत्वपूर्ण संसद सत्र में पेश करना बेहद निराशाजनक और अलोकतांत्रिक है. पिछले सत्र की पूरी कार्यवाही और मेरे द्वारा दिए गए स्पष्टीकरण पर विचार नहीं किया गया. एक और बात जो कहना जरूरी समझती हूं कि किसी सांसद को लगभग पूरे सत्र, जिसमें महत्वपूर्ण विधेयक सूचीबद्ध हैं, के लिए निलंबित करना संसदीय कार्यप्रणाली और परम्पराओं का प्रत्यक्ष उल्लंघन है.
12 सांसदों का अलोकतांत्रिक निलंबन हमारे समक्ष एक बड़ा सवाल खड़ा करता है. कैसे कोई भी सरकार अपने लाभ के लिए निर्धारित नियमों और प्रक्रियाओं का दुरुपयोग कर सकती है और विपक्ष की आवाज को दबा सकती है? असहमति कोई नई अवधारणा नहीं है, यह हमेशा लोकतंत्र का हिस्सा रही है. यह हमारे लोकाचार और संस्कृति का भी हिस्सा रही है. यह सरकार आलोचना और असहमति से डरती है. नित नए झूठ का पुलिंदा लेकर आती है, विपक्ष की आवाज को दबाकर आम लोगों को भ्रमित करने की कोशिश करती है. संसदीय परंपराओं में सुधार लाने की आवश्यकता है. इसके लिए सबसे ज्यादा जरूरी है विपक्ष को अपनी बात रखने के लिए अधिक समय और स्थान देना. यूके की संसद हाउस ऑफ कॉमन्स में विपक्षी दलों द्वारा चुने गए मुद्दों पर चर्चा के लिए अपोजिशन डेज अलॉट किये जाते हैं. भारतीय संसद में भी इस तरह की व्यवस्था की जानी चाहिए ताकि विपक्ष की आवाज सुनी जा सके.
हमने भारत के संविधान के प्रति सच्ची आस्था और निष्ठा रखने, भारत की संप्रभुता और अखंडता को बनाए रखने और अपने कर्तव्यों का ईमानदारी से निर्वहन करने की शपथ ली है. यह निलंबन न तो हमारी आवाज को दबाएगा और न ही हमें जनहित से जुड़े मुद्दों को उठाने से रोक सकेगा. इतिहास उन लोगों के प्रति दयालु रहा है जिन्होंने सत्तावादी शासन के खिलाफ आवाज उठाई है और आज हम गांधी प्रतिमा के नीचे विरोध में बैठे हैं. मुझे यकीन है कि इतिहास हमें और अधिक अच्छी बातों के लिए याद रखेगा.
(प्रियंका चतुर्वेदी राज्यसभा सदस्य व शिवसेना की उपनेता हैं.)
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