नौकरी के लिए इतना संघर्ष क्यों?

कई बार जवानों और किसानों की हालत देखकर लगता है कि हम सब ज़िद पर अड़े हैं कि इनकी तरफ देखना ही नहीं है. अनाज और आदमी दोनों छितराए हुए हैं. न तो दाम मिल रहा है न काम मिल रहा है.

नौकरी के लिए इतना संघर्ष क्यों?

कई बार जवानों और किसानों की हालत देखकर लगता है कि हम सब ज़िद पर अड़े हैं कि इनकी तरफ देखना ही नहीं है. समस्या इतनी बड़ी है कि समाधान के नाम पर पुड़िया पेश कर दी जाती है जो मीडिया में हेडलाइन बनकर गायब हो जाती है. अनाज और आदमी दोनों छितराए हुए हैं. न तो दाम मिल रहा है न काम मिल रहा है. सत्ता पक्ष और विपक्ष के लिए ये मुद्दे एक दूसरे की निंदा करने भर के लिए हैं मगर कोई भी ठोस प्रस्ताव जनता के बीच नहीं रखता है कि वाकई क्या करने वाला है, जो कर रहा है वो क्यों चूक जा रहा है. कई बार लगता है कि हमारे राजनेता, हमारे अर्थशास्त्री, सिस्टम में बैठे लोगों ने ज़िद कर ली है कि इन बुनियादी सवालों पर बात नहीं करना है, मीडिया को हर रात कोई न कोई थीम मिल जाता है, सब कुछ इसी थीम की तलाश के लिए हो रहा है. इसके बाद भी भारत के भीतर से तस्वीरें उथला कर सतह पर आ जा रही हैं.

आप रेलवे स्टेशन पर छितराए इन नौजवानों को देखिए. इनकी गहरी नींद से किसी नेता को डर जाना चाहिए कि जागने के बाद क्या करेंगे. पर नेताओं को इन नौजवानों ने भरोसा दे दिया है कि वे मुर्दा जवानी को ढो रहे हैं. उन्हें बस भर्ती परीक्षा का एलान सुना दिया जाए फिर उसके बाद तीन-तीन साल रिज़ल्ट के इंतजार में ही गुज़ार देंगे. 18 जून की रात इलाहाबाद स्टेशन पर ये नौजवान सो रहे हैं, क्योंकि अगली सुबह सिपाही की परीक्षा देनी है. इन नौजवानों के पास आज के भातर में भी इलाहाबाद शहर में ठहरने की हैसियत नहीं है. प्लेटफॉर्म पर रात गुज़ारने वाले इन नौजवानों में से एक है जो जाग रहा है. वो अगली सुबह की परीक्षा के लिए हर पल तैयारी करते हुए जाग रहा है ताकि इस बार सिपाही बन जाए. नौकरी मिल जाए.

हमारे नेता लगातार ऐसे नौजवानों की रतजगी का मज़ाक उड़ा रहे हैं. ये लड़की यहां सो रही है, ताकि सुबह जाग कर सवालों को हल करने की स्थिति में रहे. आप जानते हैं कि यूपी पुलिस भर्ती बोर्ड ने 18 और 19 जून को 40 हज़ार से अधिक सिपाहियों के लिए 860 केंद्रों पर परीक्षा आयोजित की थी. जिसके लिए 22 लाख उम्मीदवारों ने फॉर्म भरे थे. इस दौरान युवाओं की ऐसी भीड़ चारों तरफ से निकली जिसकी तरफ किसी की नज़र नहीं गई. फुटपाथ और प्लेटफॉर्म पर राष्ट्रीय परिधान बनियान पहने ये नौजवान स्टेशन के बाहर सो चुके हैं. इलाहाबाद स्टेशन के प्लेटफॉर्म का ये हाल था जैसे छठ या होली के मौके पर लाखों की भीड़ पहुंच गई हो.

प्राइम टाइम के एक दर्शक ने विभूति एक्सप्रेस के एसी कोच का हाल भेजा है. बी-1 कोच में ये नौजवान बोरे में आलू की तरह ठूंसा कर बैठे पटना जा रहे हैं. बेरोज़गार नौजवानों की गरिमा की किसे परवहान है. आप कहेंगे कि ये तो कई साल से यही होता है. क्या यह अगले कई साल तक यही कहते रहेंगे या फिर इसका समाधान कभी न कभी खोजेंगे. जब हमने प्राइम टाइम के दर्शक से कहा कि एक वीडियो भी भेजिए तो उन्होंने ये भेजा है. 

हमने ये तस्वीरें इसलिए दिखाईं ताकि आपको उस भारत का अंदाज़ा हो जो रोज़ एक अदद नौकरी की तलाश में फुटपाथों पर सो रहा है. ताकि हमारे नेता इस समस्या के बारे में आपके बीच आकर बोलें. राजस्थान पत्रिका की एक ख़बर देख रहा था कि महिला व बाल विकास विभाग में सुपरवाइज़र के 180 पदों के लिए करीब चार लाख आवेदन आ चुके हैं. एक सीट पर 2214 दावेदार हैं. इतना टफ कंपटीशन है. नौकरी है नहीं. हालत यह है कि साल भर के भीतर परीक्षाओं को कराकर नियुक्ति पत्र दे देना चुनौती बन गई है. बल्कि बहाना भी. अब देखिए रेलवे की परीक्षा कब होगी किसी को पता नहीं. ढाई करोड़ आवेदन एक लाख पदों के लिए आए हैं. फिलहाल एक तस्वीर देखिए जिसे हमारे सहयोगी अमितेश ने ली है.

आदमी कब इंसान हो जाता है, कब सामान हो जाता है, यह इस पर निर्भर करता है कि उसकी जेब में कितने रुपये हैं. यही जवान सिपाही बनकर हमारी रक्षा करेंगे मगर उसके पहले ये किस अमानवीय प्रक्रिया से गुज़र रहे हैं आप देख सकते हैं. मालगाड़ी के पिछले डिब्बे पर लदाये फदाये चले जा रहे हैं. मुगलसराय की तरफ जा रही इस मालगाड़ी के दृश्य को याद रखिएगा. अच्छी बात है कि इन नौजवानों की राजनीतिक चेतना शून्य है वरना हमारे नेताओं को थरथरी हो जाती. भारत के युवा मुर्दा शांति से भरे नौजवान हैं जिन्हें बस एक नौकरी का विज्ञापन दिख जाना चाहिए. खंडहर में बदल चुके कॉलेज नहीं दिखते हैं, कॉलेज के भीतर घटिया टीचर नहीं दिखते हैं. हमें और आपको भी कुछ नहीं दिखता है. 

हमने राम मनोहर लोहिया अवध यूनिवर्सिटी के बीए बीएससी, बी कॉम और पोस्ट ग्रेजुएट के रिज़ल्ट के बारे में बताया था. वहां फेल होने वालों की बारात निकली है. विश्वविद्यालय ने इस साल परीक्षा के दौरान नकल रोकने के लिए कैमरे लगा दिए. नकल तो रूक गई मगर फेल होने वाले और इम्तहान छोड़ने वालों की संख्या बता रही है कि ये यूनिवर्सिटी किसी काम की नहीं है. यहां पढ़ने वाले और नाम लिखा कर नहीं पढ़ने वाले छात्रों को पता है कि कहां प्रोफेसर आते हैं, कहां पढ़ाते हैं और कहां सिर्फ नाम लिखाया जाता है, परीक्षा पास कराया जाता है और पढ़ाई नहीं होती है. सिर्फ अवध यूनिवर्सिटी की बात नहीं है, हमने प्राइम टाइम में छपरा के जेपी यूनिवर्सिटी और मुज़फ्फरपुर के डॉ. अंबेडकर बिहार यूनिवर्सिटी का भी हाल बताया था.

हमने प्राइम टाइम में बताया था कि अवध यूनिवर्सिटी में छह लाख के करीब छात्र परीक्षा में शामिल हुए थे और इनमें से अस्सी फीसदी छात्र फेल हो गए. यानी 4 लाख 80 हज़ार के करीब फेल हो गए. यूनिवर्सिटी ने 19 जून को एक प्रेस रिलीज जारी कर आंकड़ों को ऐसे पेश किया है कि सब कुछ अच्छा अच्छा दिखे. इस रिलीज में लिखा है कि परीक्षा पर प्रश्न चिन्ह लगाया जा रहा है. हमने यहां की पढ़ाई पर प्रश्न चिन्ह लगाया था कि पढ़ाई की क्या क्वालिटी है कि नकल रोकने पर फेल होने वाले की संख्या लाखों में पहुंच जाती है. कुल मिलाकर आंकड़ों की बाज़ीगारी की गई है. सरकार द्वारा अनुदान प्राप्त कॉलेजों के पास प्रतिशत और खुद से चलने वाले कॉलेजों के पास प्रतिशत में अंतर बताया गया है.

हमने ओवरऑल जोड़कर बताया था कि 2017-18 में बीए बीएससी, बी कॉम के तीनों साल के और पोस्ट ग्रेजुएट स्तर के सवा छह लाख छात्रों ने परीक्षा दी थी. 80 प्रतिशत फेल हो गए तो इस हिसाब से फेल होने वाले छात्रों की संख्या करीब 4 लाख 80,000 के करीब छात्र फेल हैं. बीएससी थर्ड ईयर के 80 प्रतिशत से अधिक छात्र फेल हैं. बीएससी प्रथम वर्ष में 56 प्रतिशत छात्र फेल हो गए हैं. सुल्तानपुर के गनपत सहाय पोस्ट ग्रेजुएट महाविद्यालय के गणित में फाइनल ईयर में करीब 300 छात्र थे लेकिन इनमें से मात्र 20-25 छात्र पास हुए हैं. 275 के करीब फेल हो गए हैं. 

19 जून को वाइस चांसलर ने एक मीटिंग कर आंकड़ों को इस तरह पेश किया है जिससे न लगे कि चार लाख बच्चे फेल हो गए. हमारा जोर इस पर है कि पढ़ाई की क्वालिटी इतनी घटिया क्यों है कि छात्र नकल रोकने के नाम पर परीक्षा छोड़ देते हैं या फेल हो जाते हैं. हम कब तक भागेंगे इस सवाल से क्या तब तक जब तक भारत के सारे नौजवान बर्बाद नहीं कर दिए जाते. 19 जून की प्रेस रिलीज में बीए बीकॉम बीएसी के छात्रों की संख्या दी गई है और उनके पास प्रतिशत दिए गए हैं, मगर पास प्रतिशत को सरकारी अनुदान प्राप्त और स्वंय वित्त पोषित संस्थानों में बाट दिया गया है ताकि ये न लगे कि सरकारी संस्थानों में पढ़ाई का स्तर खराब है.

बीएससी द्वितीय वर्ष में 23,358 छात्र शामिल हुए और 20 प्रतिशत सफल हुए. क्या 80 फीसदी छात्रों का फेल हो जाना शर्मनाक नहीं है? बीएससी तृतीय वर्ष में 34,091 छात्र शामिल हुए और 19.18 प्रतिशत छात्र सफल हुए. क्या 80 प्रतिशत से अधिक छात्रों का फेल हो जाना शर्मनाक नहीं है? बीए फर्स्ट ईयर में 77,259 छात्र शामिल हुए और 59.95 प्रतिशत पास हुए. क्या 40 प्रतिशत छात्रों का फेल हो जाना शर्मनाक नहीं है? बीए सेकेंड ईयर में 61,610 छात्र शामिल हुए और 79.86 प्रतिशत पास हुए. क्या 20 प्रतिशत छात्रों का फेल हो जाना शर्मनाक नहीं है? बीएससी प्रथम वर्ष में 40,442 छात्र शामिल हुए और 43.01 प्रतिशत पास हुए. क्या 57 प्रतिशत छात्रों का फेल हो जाना शर्मनाक नहीं है?

यही खेल है. फेल होने वाले छात्रों का प्रतिशत सरकारी और प्राइवेट में बांट दिया गया है. अगर प्राइवेट में रिजल्ट इतना खराब है तो विश्वविद्यालय यह बताए कि वह क्या एक्शन लेने जा रहा है. सरकारी अनुदान प्राप्त कॉलेजों में पास प्रतिशत भले ही देखने में 50 से 70 प्रतिशत के बीच दिख रहा है मगर 20 से 40 प्रतिशत छात्रों का फेल होना भी उसकी क्लाविटी पर सवाल है. पर एक बात समझ नहीं आई. परीक्षा शुरू होने से पहले 22 फरवरी को विश्वविद्यालय के कुलपति मनोज दीक्षित ने प्रेस कांफ्रेंस में कहा था कि इस बार स्नातक स्तर की परीक्षाओं में छह लाख 11 हज़ार 680 छात्र शामिल होंगे. मगर 19 जून की प्रेस रिलीज़ में जो हिसाब दिया है उसके अनुसार तो परीक्षा देने वाले छात्रों की संख्या 3 लाख 31 हज़ार 239 ही है. हमें समझ नहीं आया कि बाकी के 2 लाख 80 हज़ार 441 छात्र कहां गए. क्या बीबीए और बीसीए जैसे कोर्स का हिसाब इसमें से हटा दिया गया है ताकि फेल होने वाले छात्रों की टोटल संख्या कम लगे.

हमने यूनिवर्सिटी सीरीज़ में दिखाया था कि अवध यूनिवर्सिटी के कई कॉलेजों में पर्याप्त संख्या में शिक्षक नहीं हैं. कई कॉलेजों में सिर्फ कागज पर ही हैं वहां पढ़ाई नहीं होती. यह सवाल मैंने अपने लिए नहीं बल्कि उस ग़रीब इलाके के साधारण परिवारों के बच्चों के लिए उठाया था कि आखिर उन्हें घटिया क्वालिटी की शिक्षा क्यों दी जा रही है. अब यूनिवर्सिटी ने कहा है कि 100 उत्तर पुस्तिकाओं के सैंपल दूसरी यूनिवर्सिटी में जांच के लिए भेजे जाएंगे ताकि इसकी पुष्टि हो सके कि जांच में गड़बड़ी तो नहीं हुई है. इसके लिए फीस नहीं लगेगी और छात्र चाहें तो इस 100 कॉपी में अपनी कॉपी शामिल कराने का आवेदन दे सकते हैं. क्या यह अजीब नही है. अगर पांच सौ छात्रों ने आवेदन कर दिया तो फिर यूनिवर्सिटी क्या करेगी. 

हमारा सवाल एक और है एक गरीब इलाके के छात्रों से उत्तर पुस्तिका की जांच के लिए 3000 रुपये लेना कहां तक उचित है. यह व्यवस्था 6 माह पहले लागू हुई या अब लागू हुई इससे मतलब नहीं है सवाल है कि 3000 रुपये जांच के क्यों लिए जाएंगे. गलती यूनिवर्सिटी की और पैसा छात्र का. यहां सिस्टम यह है कि 300 रुपये पहले दीजिए फिर उत्तर पुस्तिका की फोटो कॉपी हासिल कीजिए. उसमें लगता है कि गड़बड़ी हुई है तो फिर 3000 हज़ार दीजिए ताकि जांच हो. क्या होशियारी है पैसा कमाने की. अवध यूनिवर्सिटी ही नहीं दूसरी कई यूनिवर्सिटी में यह सब होने लगा है. छात्र सवाल उठाते हैं मगर कोई सुनने वाला नहीं है. 

अवध यूनिवर्सिटी ही नहीं आप जून के पहले सप्ताह के हिन्दी के अखबारों को देखिए. पत्रिका, अमर उजाला, जागरण, हिन्दुस्तान. बुंदेलखंड विश्वविद्यालय में 20 प्रतिशत छात्र ही पास हुए हैं. बीएससी प्रथम वर्ष में 88 प्रतिशत छात्र फेल हो गए हैं. प्राइवेट कॉलेजों का रिज़ल्ट सबसे खराब रहा है. सोचिए प्राइवेट कॉलेजों का ये हाल है. यहां भी दोबारा कॉपी चेक कराने के लिए 3000 रुपये देने पड़ते हैं. नकल रोक दी गई अच्छी बात है मगर जो असलियत सामने आई है वो उससे भी बुरी भी बात है. इन कॉलेजों का रिजल्ट इतना खराब क्यों हैं. कानपुर के छत्रपति शाहू जी महाराज विश्वविद्यालय के नतीजे भी बता रहे हैं कि नकल पर रोक के साथ साथ पढ़ाई की क्वालिटी पर ध्यान देने की ज़रूरत है. 

यह वीडियो कुछ दिन पुराना है. छात्र फेल होने पर नाराज़ हैं और उत्तर पुस्तिका की दोबारा जांच की मांग कर  रहे हैं. रजिस्ट्रार संजय कुमार ने बताया बीएससी प्रथम वर्ष में 93 हज़ार छात्र परीक्षा में शामिल हुए थे. इनमें से 49.9 बच्चे ही पास हुए हैं. 38.24 प्रतिशत फेल हुए हैं और 11 प्रतिशत के करीब परीक्षा में बैठे ही नहीं. बीएससी पार्ट टू में 94620 में सिर्फ 33 प्रतिशत छात्र ही पास हो सके. 58 प्रतिशत के करीब फेल हुए हैं. बीएससी थर्ड ईयर में 98 हज़ार के करीब छात्र परीक्षा में बैठे जिसमें 57 परसेंट ही पास हुए. 39 परसेंट फेल हो गए. कानपुर देहात के एक कॉलेज में 130 छात्रों में से एक पास हुआ है. ये हाल है पढ़ाई का. छात्रों की मांग पर कमेटी भी बनी कि कहीं मूल्यांकन में गड़बड़ी तो नहीं हुई मगर कमेटी ने यूनिवर्सिटी को क्लिन चिट दिया है. 

कानपुर यूनिवर्सिटी के बीएससी के तीनों साल में कुल 1 लाख 28 हज़ार छात्र फेल हुए हैं. क्या यह गंभीर मसला नहीं है? अब आप सोचिए कि क्या पढ़ाई हो रही है कि इतने छात्र फेल हो रहे हैं. ये भारत की उत्पादकता या अर्थव्यवस्था में क्या योगदान करेंगे. भारत के विश्वविद्यालयों में पचास हज़ार से एक लाख के बीच लेक्चरर प्रोफेसर के पद खाली हैं. यूनिवर्सिटी का प्रशासन खुश है कि नकल नहीं होने दी लेकिन क्या यह रोने वाली बात नहीं है कि कॉलेज के कॉलेज छात्र फेल हो गए. उन्हें क्या पढ़ाया गया क्या इसकी जवाबदेही किसी की नहीं है. क्यों हमारे कॉलेजों की पढ़ाई इतनी खराब है कि छात्र पास होने लायक नहीं हैं. यह सवाल वहां वेतन पा रहे प्रोफेसर लेक्चरर और छात्रों तीनों से है. क्या छात्र समझ रहे हैं कि वे अपने साथ क्या कर रहे हैं. बात सिर्फ कानपुर और अवध यूनिवर्सिटी की नहीं. इसी 4 जून को टाइम्स ऑफ इंडिया में पंकज डाभोल की एक खबर छपी है.

94 फीसदी आईटी ग्रेजुएट नौकरी देने के लायक नहीं हैं. यह बयान टेक महिंद्रा के सीईओ का है. आईटी कंपनियों को अब अपना ट्रेनिंग सेंटर खोलना पड़ा है. चोटी की आईटी कंपनियां मात्र 6 प्रतिशत आईटी इंजीनियर को नौकरी पर रखती हैं. हम यह बात कई साल से सुन रहे हैं कि हमारे इंजीनियर किसी लायक नहीं हैं. आम परिवार कर्ज़ लेकर बीस-बीस लाख फीस देकर प्राइवेट कॉलेजों में पढ़ा रहे हैं और पास होने के बाद यह सुनने को मिले कि 94 फीसदी आईटी इंजीनियर नौकरी पर रखे जाने लायक नहीं हैं तो यह किसके साथ धोखा है. क्या यह डकैती नहीं है. क्या मां बाप और छात्र के साथ धोखा नहीं हैं. क्या यह शर्मनाक नहीं है कि भारत की इंजीनियरिंग की शिक्षा इतनी घटिया है कि इसके कॉलेजों से पास 94 फीसदी इंजीनियर नौकरी पर रखे जाने लायक नहीं हैं. क्या नौजवानों के साथ धोखा नहीं हो रहा है. क्या उसने मुफ्त में पढ़ाई की थी. बेहतर है अपने सवाल बदल लें वरना हालात नहीं बदलेंगे. आपको पता है कि इलाहाबाद में यूपी लोक सेवा आयोग के बाहर छात्रों ने प्रदर्शन किया था. इनकी मांग थी कि हिन्दी की पहली पारी में दूसरी पारी के प्रश्न पत्र बंट गए हैं, इसलिए परीक्षा रद्द हो. आयोग ने परीक्षा रद्द भी कर दी मगर सिर्फ हिन्दी की. छात्र मांग करने लगे कि सारी परीक्षा रद्द हो मगर आयोग का कहना था कि एक ही सेंटर पर ऐसी गड़बड़ी हुई है, इसलिए बाकी परीक्षा क्यों रद्द करें. इस बात को लेकर छात्र उग्र हुए, पुलिस ने लाठी चार्ज की, आठ छात्रों को गिरफ्तार कर लिया. अब इनमें से सात छात्रों को छोड़ दिया गया है ताकि वे 21 जून की परीक्षा में शामिल हो सकें. मगर इसमें शामिल समाजवादी पार्टी की नेता और इलाहाबाद यूनिवर्सिटी की पूर्व अध्यक्ष ऋचा सिंह को नहीं छोड़ा गया है. उन्हें जेल भेज दिया गया है. 

बिहार में 20 जून को दसवीं का रिज़ल्ट आना था. 17 लाख से अधिक छात्र इंतज़ार कर रहे थे मगर रिज़ल्ट अब 26 जून को आएगा,क्योंकि आपको बताया था कि गोपालगंज ज़िले में 42 हज़ार उत्तर पुस्तिकाएं चोरी हो गई हैं. यही हाल किसानों का है. उत्तर प्रदेश के अमरोहा में किसानों ने कोई दस हज़ार बीघे में टमाटर उगाया है. यूपी में सबसे अधिक टमाटर अमरोहा में ही होता है वैसे आम भी खूब होता है. यहां के किसानों ने सड़क के किनारे टमामर फेंक दिया,क्योंकि बेचने पर भी लागत नहीं मिल रहा था. 30 किलो का एक क्रेट होता है. कुछ दिन पहले यहां की मंडी में 80-90 रुपये क्रेट मिल रहा था यानी एक किलो के 2 से 3 रुपये मिल रहे थे, जबकि एक किलो टमाटर उगाने में 15 रुपये की लागत आती है. अमरोहा से अनवर कमाल की इस रिपोर्ट के बाद जो रेट में बदलाव आया है उससे हम भी हैरान है. हफ्ता भर पहले 80 रुपया क्रेट भाव था, अब 280 से 290 रुपये क्रेट मिलने लगा है. यानी 8 रुपये से 9 रुपये किलो के भाव मिल रहे हैं. यह भी कम है मगर एक रिपोर्ट के बाद 3 रुपये से भाव 9 रुपये कैसे हो गया है, हम भी नहीं समझ पा रहे हैं. किसान कह रहे थे कि पिछले साल पाकिस्तान निर्यात के कारण खूब भाव मिला तो इस बार ज़्यादा ज़मीन किराये पर लेकर खेती कर ली. अमरोहा ज़िले में दस हज़ार बीघे में टमाटर की खेती हो गई. कई किसान नुकसान के कारण कर्ज़े में आ गए हैं.

अमरोहा दिल्ली से बहुत दूर नहीं है. वहां किसान को एक किलो टमाटर के 10 रुपये भी नहीं मिल रहे हैं लेकिन आज ही दक्षिण दिल्ली के कटवारिया सराय में टमाटर का भाव 50 रुपये किलो था. सफल में 44 रुपया किलो भाव है. अब आप ही बताइये अमरोहा में किसान को 3 रुपये किलो भाव नहीं मिल रहे हैं, जबकि वह एक किलो टमामर उगाने में 15 रुपये लगा दे रहा है और दिल्ली में 50 रुपये किलो टमाटर बिक रहा है. आप भी लुट रहे हैं और किसान भी लुट रहा है. फिर यह कौन है जो 47 रुपये का मुनाफा ले जा रहा है. इन सवालों का ठोस समाधान कोई पेश नहीं कर रहा है. राजनीति गप्पबाज़ी में बदल गई है. तय आपको करना है कि गप्प ही सुनना है या काम भी देखना है.


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