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'Universityseries' - 4 News Result(s)
  • साल भर पहले खुला कॉलेज कहां गया?

    साल भर पहले खुला कॉलेज कहां गया?

    हम सबने पढ़ा है कि भारत एक कृषि प्रधान देश है मगर भारत एक विचित्र प्रधान देश भी है. इससे प्रधान लोगों को आहत होने की ज़रूरत नहीं है बस उस कॉलेज को खोजने की ज़रूरत है जो दस साल बाद इंस्टिट्यूट ऑफ एमिनेंस बनता हुआ दुनिया के टॉप 500 में शामिल हो जाएगा. एक कॉलेज और है जो था मगर गायब हो गया है, जिसे वापस लाने की मांग को लेकर छात्र आंदोलन कर रहे हैं.

  • दुनिया के शीर्ष शिक्षा संस्थानों में हम क्यों नहीं?

    दुनिया के शीर्ष शिक्षा संस्थानों में हम क्यों नहीं?

    हिन्दी प्रदेशों में विवाद तो दो ही विश्वविदयालय के चलते हैं एक जेएनयू के और दूसरा एएमयू. चैनलों ने जब चहा यहां से देशद्रोही और हिन्दू-मुस्लिम नेशनल सिलेबस का कोई न कोई चैप्टर मिल ही जाता है.

  • शिक्षा व्यवस्था को लेकर कितने गंभीर हैं हम?  

    शिक्षा व्यवस्था को लेकर कितने गंभीर हैं हम?  

    कई बार हमें लगता है कि किसी विश्वविद्यालय की समस्या इसलिए है क्योंकि वहां स्वायत्तता नहीं है इसलिए उसे स्वायत्तता दे दी जाए. जब भी उच्च शिक्षा की समस्याओं पर बात होती है, ऑटोनमी यानी स्वायत्तता को एंटी बायेटिक टैबलेट के रूप में पेश किया जाता है. लेकिन आप किसी भी विश्वविद्यालय को देखिए, चाहे वो प्राइवेट हो या पब्लिक यानी सरकारी क्या वहां सरकार या राजनीतिक प्रभाव से स्वायत्त होने की स्वतंत्रता है. सरकार ही क्यों हस्तक्षेप करती है, वो हस्तक्षेप करना बंद कर दे. कभी आपने सुना है कि वाइस चांसलर की नियुक्ति की प्रक्रिया बेहतर की जाएगी, उनका चयन राजनीतिक तौर पर नहीं होगा.

  • नौकरी के लिए इतना संघर्ष क्यों?

    नौकरी के लिए इतना संघर्ष क्यों?

    कई बार जवानों और किसानों की हालत देखकर लगता है कि हम सब ज़िद पर अड़े हैं कि इनकी तरफ देखना ही नहीं है. समस्या इतनी बड़ी है कि समाधान के नाम पर पुड़िया पेश कर दी जाती है जो मीडिया में हेडलाइन बनकर गायब हो जाती है. अनाज और आदमी दोनों छितराए हुए हैं. न तो दाम मिल रहा है न काम मिल रहा है. सत्ता पक्ष और विपक्ष के लिए ये मुद्दे एक दूसरे की निंदा करने भर के लिए हैं मगर कोई भी ठोस प्रस्ताव जनता के बीच नहीं रखता है कि वाकई क्या करने वाला है, जो कर रहा है वो क्यों चूक जा रहा है. कई बार लगता है कि हमारे राजनेता, हमारे अर्थशास्त्री, सिस्टम में बैठे लोगों ने ज़िद कर ली है कि इन बुनियादी सवालों पर बात नहीं करना है, मीडिया को हर रात कोई न कोई थीम मिल जाता है, सब कुछ इसी थीम की तलाश के लिए हो रहा है. इसके बाद भी भारत के भीतर से तस्वीरें उथला कर सतह पर आ जा रही हैं.

'Universityseries' - 4 News Result(s)
  • साल भर पहले खुला कॉलेज कहां गया?

    साल भर पहले खुला कॉलेज कहां गया?

    हम सबने पढ़ा है कि भारत एक कृषि प्रधान देश है मगर भारत एक विचित्र प्रधान देश भी है. इससे प्रधान लोगों को आहत होने की ज़रूरत नहीं है बस उस कॉलेज को खोजने की ज़रूरत है जो दस साल बाद इंस्टिट्यूट ऑफ एमिनेंस बनता हुआ दुनिया के टॉप 500 में शामिल हो जाएगा. एक कॉलेज और है जो था मगर गायब हो गया है, जिसे वापस लाने की मांग को लेकर छात्र आंदोलन कर रहे हैं.

  • दुनिया के शीर्ष शिक्षा संस्थानों में हम क्यों नहीं?

    दुनिया के शीर्ष शिक्षा संस्थानों में हम क्यों नहीं?

    हिन्दी प्रदेशों में विवाद तो दो ही विश्वविदयालय के चलते हैं एक जेएनयू के और दूसरा एएमयू. चैनलों ने जब चहा यहां से देशद्रोही और हिन्दू-मुस्लिम नेशनल सिलेबस का कोई न कोई चैप्टर मिल ही जाता है.

  • शिक्षा व्यवस्था को लेकर कितने गंभीर हैं हम?  

    शिक्षा व्यवस्था को लेकर कितने गंभीर हैं हम?  

    कई बार हमें लगता है कि किसी विश्वविद्यालय की समस्या इसलिए है क्योंकि वहां स्वायत्तता नहीं है इसलिए उसे स्वायत्तता दे दी जाए. जब भी उच्च शिक्षा की समस्याओं पर बात होती है, ऑटोनमी यानी स्वायत्तता को एंटी बायेटिक टैबलेट के रूप में पेश किया जाता है. लेकिन आप किसी भी विश्वविद्यालय को देखिए, चाहे वो प्राइवेट हो या पब्लिक यानी सरकारी क्या वहां सरकार या राजनीतिक प्रभाव से स्वायत्त होने की स्वतंत्रता है. सरकार ही क्यों हस्तक्षेप करती है, वो हस्तक्षेप करना बंद कर दे. कभी आपने सुना है कि वाइस चांसलर की नियुक्ति की प्रक्रिया बेहतर की जाएगी, उनका चयन राजनीतिक तौर पर नहीं होगा.

  • नौकरी के लिए इतना संघर्ष क्यों?

    नौकरी के लिए इतना संघर्ष क्यों?

    कई बार जवानों और किसानों की हालत देखकर लगता है कि हम सब ज़िद पर अड़े हैं कि इनकी तरफ देखना ही नहीं है. समस्या इतनी बड़ी है कि समाधान के नाम पर पुड़िया पेश कर दी जाती है जो मीडिया में हेडलाइन बनकर गायब हो जाती है. अनाज और आदमी दोनों छितराए हुए हैं. न तो दाम मिल रहा है न काम मिल रहा है. सत्ता पक्ष और विपक्ष के लिए ये मुद्दे एक दूसरे की निंदा करने भर के लिए हैं मगर कोई भी ठोस प्रस्ताव जनता के बीच नहीं रखता है कि वाकई क्या करने वाला है, जो कर रहा है वो क्यों चूक जा रहा है. कई बार लगता है कि हमारे राजनेता, हमारे अर्थशास्त्री, सिस्टम में बैठे लोगों ने ज़िद कर ली है कि इन बुनियादी सवालों पर बात नहीं करना है, मीडिया को हर रात कोई न कोई थीम मिल जाता है, सब कुछ इसी थीम की तलाश के लिए हो रहा है. इसके बाद भी भारत के भीतर से तस्वीरें उथला कर सतह पर आ जा रही हैं.