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This Article is From Aug 27, 2018

क्यों न रिपोर्टिंग ही बंद हो जाए, क्यों न आप अख़बार ही कल से बंद कर दें

Ravish Kumar
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    अगस्त 27, 2018 00:11 am IST
    • Published On अगस्त 27, 2018 00:11 am IST
    • Last Updated On अगस्त 27, 2018 00:11 am IST
मुज़फ्फरपुर बालिका गृह कांड से संबंधित अब किसी भी मामले की रिपोर्टिंग नहीं होगी. पटना हाईकोर्ट ने प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर यह बंदिश लगा दी है. पहले हो चुकी जांच और आगे होने वाली जांच से संबंधित कोई ख़बर ही नहीं छपेगी. हाईकोर्ट के इस आदेश पर एडिटर्स गिल्ड ने चिन्ता जताई है. गिल्ड ने कहा है कि कोर्ट को कहां मीडिया की स्वतंत्रता की रक्षा करनी चाहिए, लेकिन उस पर अंकुश लगाया जा रहा है. गिल्ड ने सुप्रीम कोर्ट और पटना हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस से अपील की है कि अपने फैसले की समीक्षा करें.

मुज़फ्फरपुर बालिका गृह कांड आज आपके सामने नहीं होता अगर मीडिया ने इसे उजागर नहीं किया होता. मुझे प्रिंट की जानकारी नहीं है, टीवी में थोड़ी बहुत ख़बर सबने दिखाई लेकिन कशिश न्यूज़ चैनल ने जिस तरह से लगातार इस मामले को उजागर किया, वो न होता यह कांड सीबीआई के दरवाज़े तक नहीं पहुंचता. शायद अदालत के दरवाज़े तक भी नहीं. कोर्ट को इस बात का संज्ञान लेना चाहिए था कि मीडिया की वजह से ही यह जघन्य अपराध सामने आया है. एक कैंपस में 30 से अधिक बच्चियों का बलात्कार और उनके साथ यौन अत्याचार सामान्य घटना नहीं है. बल्कि बाद में जब बाकी मीडिया की सक्रियता बढ़ी तब और भी कुछ नए तथ्य सामने आते गए.

इसलिए कम से कम इस मामले में कोर्ट से लेकर बिहार सरकार को मीडिया का शुक्रगुज़ार होना चाहिए. कोर्ट को यह ध्यान रखना चाहिए कि मीडिया की ख़बरों के कारण ही एक कबीना मंत्री को पद से हटना पड़ा और सीबआई ने उनके यहां भी छापेमारी की. मीडिया की रिपोर्टिंग से ही ज़ाहिर हो रहा है कि इस मामले को दबाने में बड़े बड़े लोग लगे हैं.

रिपोर्टिंग से जांच में मदद ही मिलेगी क्योंकि जांच शुरू ही हुई है रिपोर्टिंग के कारण. रिपोर्टिंग पर अंकुश लगने से उस शंका को बल मिलेगा कि बड़े लोगों ने ख़ुद को बचाने का इंतज़ाम कर लिया है. बचाने का एक तरीका केस को टालते जाने का भी है. लगातार रिपोर्टिंग होगी तो नए नए तथ्य सामने आएंगे और जांच एजेंसियों पर दबाव रहेगा कि वह अपनी रिपोर्ट लेकर अदालत के सामने समय समय पर हाज़िर होती रहे.

बालिका गृह कांड की रिपोर्टिंग उन बच्चियों के भरोसे के लिए भी है. उन पर लगातार ख़तरा बना रहेगा. कोई दबाव डाल सकता है. कई बार गवाहों की जान को ख़तरा हो जाता है. क्या इन सब आशंकाओं की पड़ताल मीडिया को नहीं करना चाहिए, और अपनी ख़बरों के ज़रिए अदालत और समाज के सामने नहीं लाना चाहिए? उन बच्चियों का कोई मां-बाप नहीं है. वे सत्ता तंत्र की मदद से ऐश कर रहे दरिंदों के आगे लाचार हैं. इस वक्त मीडिया की रिपोर्टिंग ही उनका संबल हो सकता था. इसलिए ज़रूरी है कि अदालत अपने इस फैसले की समीक्षा करे.

इस आदेश से मीडिया के उस तबके में खुशी ही होगी जिन पर इस कांड की तह तक जाने और ख़बरों को लाने का दबाव पड़ रहा था. जो लंबे समय तक रिपोर्टिंग की औपचारिकता पूरी कर एक कैंपस में 30 से अधिक बच्चियों के साथ बलात्कार की ख़बर को सामान्य ख़बर बनाकर किनारे कर रहा था. अब ऐसे लोगों को अदालत के आदेश से राहत मिल जाएगी. उनके संबंध दांव पर नहीं लगेंगे. इसलिए भी इस फैसले की समीक्षा ज़रूरी है.

एक दर्शक और पाठक के तौर पर आप सोचिए. क्या यह आप पर रोक नहीं है? क्या आप बिल्कुल नहीं जानना चाहेंगे कि एक कैंपस में 30 से अधिक बच्चियों के रेप के मामले में क्या हुआ? सीबीआई की तरफ से जांच कर रहे एस पी का तबादला क्यों हुआ? कहीं इस्तीफा देने वाली मंत्री को बचा तो नहीं लिया गया? कहीं केस कमज़ोर कर उस व्यक्ति को बचा तो नहीं लिया जाएगा? क्या आप वाकई इस भ्रम में हैं कि भारत में यह सब होना बंद हो गया है? अगर ऐसा है तो आप एक काम कीजिए. कल से अख़बार बंद कर दीजिए और न्यूज़ चैनल का कनेक्शन कटवा दीजिए. क्योंकि अब कुछ ग़लत ही नहीं हो रहा है. जांच एंजेंसी पर भरोसा ही करना होगा. रिपोर्टिंग होगी नहीं तो अख़बार ख़रीद कर आप क्या करेंगे. क्यों ख़रीद रहे हैं?

अमित शाह के बेटे जय शाह के मामले में भी अदालत से नोटिस आ गया. रिपोर्टिंग बंद हो गई. अब एक नया तरीका आया है. मानहानि का. भक्ति में डूब चुके लोग इस हद तक आ गए हैं कि कहने लगे हैं कि कोर्ट जाने से क्या डर है. क्या उन्हें पता है कि अंबानी के सामने कोई पत्रकार कितने वकील लेकर जा सकेगा? क्या उन्हें नहीं पता है कि 5000 करोड़ का दावा या 50 करोड़ का दावा ऐसे कितने रिपोर्टरों को डरा देगा? आप अपना पक्ष दीजिए न छपे तो अलग बात है लेकिन जब आपका पक्ष देने पर छप रहा है तो फिर मानहानि को हथियार क्यों बनाया जा रहा है?

हम कहां से कहां पहुंच गए. राजनीतिक भक्ति ने इस हाल में ला दिया है कि हम हर आज़ादी खोने को सही ठहरा रहे हैं. इस तरह के तर्क आपको मानसिक रूप से तैयार कर रहे हैं कि चुपचाप ग़ुलाम बने रहो. गोदी मीडिया ऐसे ही जनता को छोड़ चुका है. उसके लिए दर्शक या पाठक सिर्फ सर्वे के सामान हैं. सर्वे करने और वापस उसी को दिखाने के. अगर मीडिया में पहले से ये बीमारी थी तो क्या यही तरीका है ठीक करने का? या हम ठीक करना ही नहीं चाहते?

कोई जाकर उन बच्चियों से सिर्फ इतना कह दे कि अब इस मामले में कोई रिपोर्टिंग नहीं होगी. न टीवी में ख़बर दिखेगी न अख़बार में छपेगी. ये आदेश हाई कोर्ट ने दिया है तो उन बच्चियों पर क्या गुज़रेगी. क्या इस आदेश ने बलात्कार की शिकार लड़कियों को निहत्था नहीं किया है? क्या आपने भी इन लड़कियों का साथ छोड़ दिया है? मैं आपसे पूछ रहा हूं. आप जो एक दर्शक हैं, एक पाठक हैं.

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं. इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति NDTV उत्तरदायी नहीं है. इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं. इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार NDTV के नहीं हैं, तथा NDTV उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है.

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