1 जनवरी 2023 के तड़के दिल्ली के सुल्तानपुरी इलाके से लेकर कंझावला इलाके तक जो चलता रहा, वो देखकर ऐसा लगता है कि ये राजधानी दिल्ली की पुलिस नहीं हो सकती. दिल्ली पुलिस को स्मार्ट पुलिस कहा जाता रहा है. पुलिस अफसरों को सुपर कॉप कहा जाता रहा है. लगता है, ये तमगे नए प्रयोगों और सुपरविजन की कमी के चलते अब धूमिल हो गए हैं. अब दिल्ली पुलिस अपने घुटनों पर है और बुरे दौर से गुजर रही है.
एक लड़की को 13 किलोमीटर तक घसीटा गया.आरोपी 2 घंटे तक लड़की को लेकर घूमते रहे.13 किलोमीटर तक कोई पुलिस बैरिकेडिंग नहीं. कोई पेट्रोलिंग नहीं. जबकि चश्मदीद दीपक की मानें तो गाड़ी में काफी दूर से टायर से तेज आवाज आ रही थी, क्योंकि उसमें अंजलि का शव फंसा हुआ था, लेकिन दिल्ली पुलिस के कानों में ये आवाज नहीं गई. दीपक के मुताबिक उसने 20 से ज्यादा बार पुलिसवालों से बात की. वहीं दिल्ली पुलिस के सूत्रों का दावा है कि पहली पीसीआर कॉल रात 2 :18 बजे मिली. जिसमें एक शख्स ने दुर्घटना के बारे में बताया. दूसरी पीसीआर कॉल 2 :20 पर मिली. ये भी दुर्घटना के बारे में थी. इसके बाद 2 पीसीआर कॉल 3:24 बजे के आसपास दीपक ने की, उसने बताया कि कार में किसी शव लटका है.
फिर 4:26 बजे और 4:27 बजे साहिल नाम के शख्स ने 2 पीसीआर कॉल कर बताया कि सड़क पर एक महिला का शव पड़ा हुआ है. उस रास्ते पर कुल 5 पीसीआर वैन थीं, लेकिन सीरियस कॉल को देखते हुए कुल 9 पीसीआर वैन को लगाया गया, लेकिन दावा किया जा रहा है कि कोई भी पीसीआर उस कार को नहीं खोज पाई, क्योंकि रात में धुंध थी और पीसीआर के पहुंचने के पहले कार निकल जाती थी. दावा यह भी है कि पीसीआर का रिस्पॉन्स टाइम ठीक था.
दिल्ली पुलिस की पीसीआर भले ही आरोपियों तक नहीं पहुंच पाई हो, लेकिन दीपक का कहना है कि उसने कई किलोमीटर तक आरोपियों की कार का पीछा किया और रास्ते में जो पीसीआर वैन मिली, उन्हें भी बताया, लेकिन कोई मदद नहीं मिली और आखिरकार शराब के नशे में चूर आरोपी अंजलि के शव को नग्न अवस्था में सड़क पर ठिकाने लगाकर आराम से घर चले गए और फिर पुलिस उन्हें पकड़ पाई. ये उस रात हुआ, जब दावा किया जा रहा था कि नये साल में हुड़दंगियों को रोकने के लिए पूरी दिल्ली पुलिस सड़कों पर थी. खुद पुलिस कमिश्नर संजय अरोड़ा सड़क पर थे.
आखिर ऐसा क्यों हो रहा है? क्यों दिल्ली पुलिस की पीसीआर वैन समय से नहीं पहुंच पा रहीं? क्यों थाने के पुलिसकर्मियों पर लापरवाही के आरोप लगते हैं?
इस पर हमने दिल्ली पुलिस के कई मौजूदा और पूर्व अफसरों से बात की. दरअसल, ये शिकायतें मिलती थीं की पुलिस मौका-ए-वारदात पर समय से नहीं पहुंच पाती, इसलिए पुलिस रिफॉर्म्स के तहत दिल्ली में पीसीआर को 1968 में खोसला आयोग की रिपोर्ट पर थानों से अलग कर दिया गया या इसका अलग गठन किया गया. इसका मकसद यह था कि मदद मांगते ही थानों की पुलिस से पहले पीसीआर की गाड़ी पहुंच जाए. इसके बाद दिल्ली में 1978 में पुलिस कमिश्नरी सिस्टम शुरू हुआ. फिर 1982 में जब दिल्ली में एशियाड गेम्स हुए तो पीसीआर सिस्टम को और मजबूत किया गया. पीसीआर की और गाडियां मंगाईं गईं. नया सिस्टम लगा और पीसीआर कंट्रोल रूम को आईटीओ पुलिस मुख्यालय में शिफ्ट किया गया. ये कंट्रोल रूम उस समय के पुलिस कमिश्नर एम बी कौशल ने अपनी देखरेख और मेहनत से बनवाया था. इसके बाद दिल्ली में 1984 के दंगे हुए. उस समय दिल्ली में केवल 36 पीसीआर वैन थीं, लेकिन दंगे के दौरान, जब लोगों ने पीसीआर के जरिए पुलिस से मदद मांगी तो अफसरों को लगा कि दिल्ली की कानून व्यवस्था के हिसाब से पीसीआर बहुत कम हैं. इसके बाद सरकार ने दिल्ली में और ज्यादा पीसीआर बढ़ाने का फैसला किया और 1987 आते-आते इनकी संख्या 100 कर दी गई. उस वक्त दिल्ली में पुलिस कमिश्नर वेद मारवाह थे. उसके बाद दिल्ली की आबादी और अपराध के देखते हुए पीसीआर वैन की संख्या बढ़ाई जाती रही. पीसीआर में डीसीपी से लेकर स्पेशल कमिश्नर तक की तैनाती की गई और 2010 में जब दिल्ली में कॉमनवेल्थ गेम्स हुए, तब इनकी संख्या 600 कर दी गई. इसके बाद जब दिल्ली पुलिस कमिश्नर बी एस बस्सी बने, तो गृह मंत्रालय ने 400 पीसीआर वैन दिल्ली पुलिस को और देने की संस्तुति कर दी. इस तरह दिल्ली में पीसीआर वैन की संख्या करीब 1000 के करीब पहुंच गई. हालांकि, सड़कों पर इतनी पीसीआर वैन नहीं थी. तब इनकी संख्या 850-900 के बीच थी. 2019 में जब दिल्ली पुलिस कमिश्नर अमूल्य पटनायक थे, तब 25 करोड़ रुपये की लागत से पीसीआर का हैदरपुर में नया मुख्यालय बनकर तैयार हुआ और हेल्पलाइन 112 को लांच कर दिया गया. बताया गया कि हेल्पलाइन 112 डायल करते ही पुलिस के अलावा फायर और एंबुलेंस को एक साथ सूचना जाएगी. पीसीआर के इस नए मुख्यालय में एक शिफ्ट में लोगों की कॉल सुनने के लिए 120 लोगों को तैनात किया गया, जहां पहले एक शिफ्ट में 100 लोग ही काम करते थे. इस तरह कुल तीन शिफ्टों में पीसीआरकर्मी काम कर रहे थे. जीपीएस से लैस हर एक पीसीआर वैन को स्मार्ट आईपैड दिया गया, जो कि पीसीआर मुख्यालय से कनेक्ट था. इसमें ऑटोमेटिक तरीके से कॉलर की लोकेशन भी आती है.
जब दिल्ली में फरवरी 2020 में दंगे हुए, उस दिन पीसीआर की संख्या 842 थीं और दंगों के दौरान लोगों द्वारा 16000 पीसीआर कॉल्स की गईं थीं. पीसीआर की भूमिका आप इस बात से समझ सकते हैं कि कई बार एक सीरियस कॉल पर एक साथ 10 पीसीआर वैन पहुंच जातीं थीं. किसी घायल को अस्पताल ले जाना हो या किसी लेबर पेन से कराहती महिला को अस्पताल ले जाना, पीसीआर दिल्ली पुलिस की लाइफलाइन थी. कई बार तो खासतौर पर कोविड के वक्त पीसीआर में तैनात महिला पुलिसकर्मियों की मदद से पीसीआर में ही कई महिलाओं ने बच्चों को जन्म दिया. कई बार पीसीआर कर्मियों ने बड़ी मुठभेड़ों को अंजाम दिया और बड़े अपराधियों को मार गिराया.
इसके बाद 2021 में इस विरासत को एक झटके में तहस-नहस कर दिया गया. जुलाई 2021 में गुजरात कैडर के आइपीएस राकेश अस्थाना को पुलिस कमिश्नर बनाया गया. उन्होंने पूरी पीसीआर यूनिट को दिल्ली के पुलिस थानों के हवाले कर दिया. पीसीआर में काम करने वाले 6000 से ज्यादा पुलिसकर्मियों और 790 पीसीआर वैन को थाने के अधीन कर दिया गया. दलील ये दी गई कि इससे थानों में वाहनों की संख्या और पुलिसकर्मियों की संख्या बढ़ेगी, जिससे अपराध काबू में आएगा और कानून व्यवस्था सुधरेगी. पीसीआर में तैनात डीसीपी से लेकर स्पेशल कमिश्नर तक के पद खत्म कर दिए गए. दावा किया गया कि अब पीसीआर वैन का रिस्पॉन्स टाइम और अच्छा हुआ है, जो पहले करीब 7:30 मिनट से लेकर 8 मिनट था, वो घटकर 4:30 मिनट रह गया है. सूत्रों की मानें तो ये कवायद इसलिए की गई, क्योंकि दिल्ली के थानों में पुलिसकर्मियों की बेहद कमी थी. उस कमी को पूरा करने के लिए गृह मंत्रालय के एक अफसर और राकेश अस्थाना ने मिलकर पीसीआर में बदलाव करने का फैसला किया.
इसी के बाद दिल्ली पुलिस का बुरा दौर शुरू हुआ. थाने का वो एसएचओ, जिसके पास पहले से ही इतना काम होता है, उसे पीसीआर के परिचालन का काम और दे दिया गया. पीसीआर में थाने के पुलिसकर्मियों को भी तैनात कर दिया गया, जो पीसीआर में ड्यूटी करना नहीं चाहते थे. पीसीआर सिस्टम में थाने के काम की तरह लापरवाही और मनमानी आ गई. कई पुलिस अफसरों की मानें तो राकेश अस्थाना का ये फैसला एक डिजास्टर की तरह है, जिसने पीसीआर सिस्टम को पूरी तरह से ध्वस्त कर दिया. अफसर कहते हैं कि अब ऐसा खूब हो रहा है कि पीसीआर समय से नहीं पहुंचती या पहुंचती है तो पीसीआर में बैठे पुलिसकर्मी पीड़ित को न्याय देने की बजाय मामले को वहीं रफा-दफा कर देते हैं.
इसके साथ ही राकेश अस्थाना ने मौखिक रूप से फैसला किया कि जो इंस्पेक्टर पांच साल थानों में एसएचओ रह चुका है, वो एसएचओ नहीं बन पाएगा और ऐसे भी पुराने एसएचओ को हटा दिया गया. इनमें कई इंस्पेक्टर अपराध के अच्छे जानकर थे और उन्हें दिल्ली के अलग-अलग इलाकों और अपराधियों की अच्छी समझ थी. हालांकि, कई जानकारों ने इस फैसले का इसलिए स्वागत किया कि नए लोगों को एसएचओ बनने का मौका मिलेगा. इसके बाद फिर दिल्ली में तमिलनाडु कैडर के आइपीएस संजय अरोड़ा को लगाया गया. उन्होंने एक आदेश के तहत ये कहा कि अब एक इंस्पेक्टर 3 साल ही एसएचओ रहेगा. कई पुलिस अफसर ये मानते हैं कि ऐसे में जब तक एसएचओ थाने में चीजों को समझेगा, तब तक उसका तबादला हो जाएगा. कई पुलिस अफसर ये भी कह रहे हैं कि दो बार से दिल्ली के बाहर से आए पुलिस कमिश्नर न तो दिल्ली की पुलिसिंग को ठीक से समझ पाए और न ही दिल्ली में कानून व्यवस्था और अपराध के इकोसिस्टम को.
कुल मिलाकर 1968 में दिल्ली पुलिस में लागू हुए जिस पीसीआर सिस्टम को लंदन, न्यूयार्क और ऑस्ट्रेलिया जैसे दूसरे देशों ने अपनाया, वो एक दबे विरोध के बाद भी एक झटके में खत्म कर दिया गया.
अब पीसीआर वैन की संख्या महज 747 रह गई है. पीसीआर वैन धीरे-धीरे कम हो रही हैं. कई गाड़ियां खराब हो रही हैं और कई गाड़ियों को कहीं और तैनात किया गया है. जानकर मानते हैं कि थाने के पुलिसकर्मियों पर अफसरों का सुपरविजन घटा है. इसकी वजह भ्रष्टाचार और जी हुजूरी है. इसीलिए थानों के साथ साथ पीसीआर की पुलिसिंग दम तोड़ रही है.
नए पुलिस कमिश्नर संजय अरोड़ा ने अभी तक ऐसा कोई बड़ा कदम नहीं उठाया, जो दिल्ली पुलिस उनके जाने के बाद याद रखे. हालांकि, अभी उनका कार्यकाल चल ही रहा है. वो इस पर अभी तक स्टडी ही करवा रहे हैं कि क्या पूर्व कमिश्नर राकेश अस्थाना का पीसीआर का थानों के साथ विलय का फैसला सही था या नहीं.
मुकेश सिंह सेंगर NDTV इंडिया में एसोसिएट एडिटर, क्राइम एंड इन्वेस्टिगेशन हैं
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