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This Article is From Dec 06, 2019

नागरिकता देने में धार्मिक आधार पर भेदभाव क्यों?

Ravish Kumar
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    December 06, 2019 00:27 IST
    • Published On December 06, 2019 00:27 IST
    • Last Updated On December 06, 2019 00:27 IST

राष्ट्रवाद की चादर में लपेटकर सांप्रदायिकता अमृत नहीं हो जाती है. उसी तरह जैसे ज़हर पर चांदी का वर्क चढ़ा कर आप बर्फी नहीं बना सकते हैं. हम चले थे ऐसी नागरिकता की ओर जो धर्म और जाति के आधार पर भेदभाव नहीं करती हो, लेकिन पहुंचने जा रहे हैं वहां जहां धर्म के आधार पर नागरिकता का फैसला होगा. नागरिकता को लेकर बहस करने वाले लोग पहले यही फैसला कर लें कि इस देश में किस-किस की नागरिकता अभी तय होनी है. हम जिस रजिस्टर की बात कर रहे हैं उस रजिस्टर में क्या उन लड़कियों के भी नाम होंगे, जिन्हें बलात्कार के बाद जलाया गया है.

पश्चिम बंगाल के मालदा में एक महिला का जला हुआ शव मिला है. पुलिस को शक है कि बलात्कार के बाद हत्या हुई है. उत्तर प्रदेश के संभल ज़िले में 16 साल की उस लड़की की मौत हो गई जिसे बलात्कार के बाद जला दिया गया था. उन्नाव में गैंगरेप की एक पीड़िता को कोर्ट जाने के रास्ते में पकड़कर जला दिया गया. कुछ दिन पहले बिहार के बक्सर में एक महिला का शव मिला है, जिसे जला दिया गया है. पहचान मुश्किल हो गई है.

यह ख़बर भारत के बाहर खाली बैठे उन नॉन रेज़िडेंट इंडियन के लिए भी है, जिन्होंने बग़ैर किसी भेदभाव का सामाना किए नागरिकता ली है और एक अच्छी व्यवस्था का लाभ उठाकर उन देशों के लिए और भारत के लिए भी गौरव के क्षण हासिल किए हैं. क्या भारत में जैसा नागिरकता बिल लाया जा रहा है, क्या इस तरह के बिल का समर्थन न्यूज़ीलैंड, ऑस्ट्रेलिया, पुर्तगाल, मलेशिया, अमरीका और ब्रिटेन में उनकी नागरिकता लेकर रहने वाले भारतीय भी समर्थन करेंगे. हम इतिहास भूल गए हैं. एक बार ठीक से सोचिए.

दक्षिण अफ्रीका के ट्रांसवाल प्रान्त में 20 अगस्त 1906 को एक अध्यादेश जारी हुआ. वहां बसे हिन्दुस्तानी और एशियाई लोगों के पुराने परमिट रद्द होंगे और उन्हें नए परमिट लेने होंगे. उसमें शिनाख़्त की पहचान देकर रिजस्ट्रेशन कराना था. सबको रजिस्ट्रार के ऑफिस में अंगूठे के निशान भी देने थे. उस रजिस्ट्रेशन को हमेशा साथ रखना था. न दिखाने पर जेल की सज़ा थी. ट्रांसवाल की विधानसभा ने इस अध्यादेश को पास कर कानून बना दिया. वो परमिट भी एक तरह की NRC था. सिर्फ भारतीयों के खिलाफ नहीं था. इस फैसले की चपेट में चीनी परिवार भी थे. 11 सितंबर 1906 को जोहानिसबर्ग के पुराने एम्पायर थियेटर में एक बड़ी सभा होती है. गांधीजी के साथ सेठ हाजी हबीब ने भी भाषण दिया जो गुजरात के ही व्यापारी थे. तीन हज़ार लोग उस सभा में थे, जबकि ट्रांसवाल में 13000 हिन्दुस्तानी रहते थे. उस सभा में सेठ हाजी हबीब ने सुझाव दिया कि सभा में मौजूद सभी लोग शपथ लें कि इस कानून को नहीं मानेंगे तो गांधी जी स्तब्ध रह गए. उन्होंने सभा में मौजूद लोगों को समझाया कि ईश्वर की शपथ बड़ी चीज़ होती है. यह तोड़ी नहीं जा सकती है. एक बार सोच लें फिर शपथ लें. सबने हाथ उठाकर शपथ ली. 11 सितंबर 1906 को सत्याग्रह का जन्म् होता है.

गांधी जी और सेठ हाजी हबीब दोनों गुजरात के थे. दोनों का मज़हब अलग था मगर मुल्क एक था. परदेस में भी वे हिन्दुस्तानी थे. आज गांधी के देश में गांधी को भी भुला दिया गया और सेठ हाजी हबीब को भी. आज एनआरसी को देश भर में लागू करने की बात हो रही है. असम में जहां की आबादी साढ़े तीन करोड़ है. वहां सरकार के 1600 करोड़ खर्च हुए. जब भारत भर में यह काम होगा तो इसका बजट सोच लीजिए. सारा देश नोटबंदी की तरह काम छोड़ कर लाइनों में होगा और रिश्वत देकर दस्तावेज़ बना रहा होगा. असम में इस बात का हिसाब होना चाहिए कि आम लोगों को एनआरसी में सर्टिफिकेट बनाने को लेकर कितना खर्च करना पड़ा.

यूपी से असम गए एक सज्जन ने बताया कि असम से कई गांव जाकर वोटर लिस्ट लाना पड़ा. इसी में 10 से 15000 खर्च हो गए. इस काम के लिए लाखों लोगों ने यात्रा की होगी. यूपी और बिहार गए होंगे. 1922 में राजेंद्र प्रसाद असम गए थे, उन्होंने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि तब उन्होंने छपरा के लोगों को देखा था जो वहा मछली पालन से लेकर हलवाई का काम करते थे. इनके वंशजों को भी एनआरसी के कारण गांव-गांव जाकर प्रमाण पत्र जुटाने पड़े और जो असम के भीतर से प्रमाणपत्र जुटा रहे थे उनका भी 3000 से 4000 रुपया खर्च हुआ. अगर मामला ट्रिब्यूनल में गया या वकीलों की ज़रूरत पड़ी तो फीस की कोई सीमा नहीं है. कुछ वकील 20 से 30 हज़ार भी मांगते हैं. कई लोगों ने कहा कि ट्रिब्यूनल तक जाते-जाते उनके एक लाख तक खर्च हो गए. इसकी भी गिनती होनी चाहिए ताकि आप देश भर में होने वाले एनआरसी के लिए आर्थिक तौर पर तैयार रहें. क्या आम जनता पर एक रजिस्टर के नाम पर ऐसा बोझ डालना उचित है. नेताओं की भाषा से संकेत मिल रहा है कि इससे सिर्फ मुसलमान परेशान होंगे, लेकिन हमने जिनका हिसाब बताया उनमें से कोई मुसलमान नहीं था. पहले पूरे भारत में आधार कार्ड बनाने की बात कही गई. कहा गया कि यह नंबर सभी पहचानों का आधार है. इस पर न जाने कितने सौ करोड़ खर्च हुए, लेकिन अब इसके ऊपर भी एक एनआरसी की बात हो रही है.

एनआरसी के साथ इस बहस में एक और मामला है. नागरिकता संशोधन बिल, जिसे सोमवार को संसद में पेश किया जा सकता है. इस बिल के बारे में गृह मंत्री बार-बार कह रहे हैं कि हरेक घुसपैठिये को निकाला जाएगा. क्या भारत बांग्लादेश से बात करने वाला है, इतना मुद्दा बनाया गया तो बांग्लादेश से बात क्यों नहीं हुई? संयुक्त राष्ट्र की आम सभा में मुलाकातों के दौरान प्रधानमंत्री मोदी ने बांग्लादेश की प्रधानमंत्री से कहा था कि एनआरसी का बांग्लादेश पर कोई असर नहीं होगा. जब उसके बाद शेख हसीना आईं थीं तो उन्होंने कहा था कि हमें यही बताया गया है कि यह भारत का आंतरिक मामला है. तो फिर सरकार बताए कि बाहर निकालने की बात किससे हो रही है? अभी के ही स्तर पर अगर सेना के पूर्व अधिकारी को बांग्लादेशी बताकर डिटेंशन सेंटर में बंद कर दिया गया था, अगर ऐसी एक भी नाइंसाफी हुई तो क्या होगा?

इसकी जवाबदेही किस पर होगी? पिछली बार मोदी सरकार ने सिटिजन अमेंडमेंट बिल को राज्य सभा में समाप्त हो जाने दिया, क्योंकि पूर्वोत्तर राज्यों में इसे लेकर भारी विरोध हो गया था. अब फिर से इसे लाया जा रहा है. कैबिनेट ने पास कर दिया है. बिल का क्या स्वरूप है, यह सार्वजनिक नहीं हुआ है. लेकिन सूत्रों के हवाले से जो पता चल रहा है उसके अनुसार शरणार्थी अगर पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान से होंगे, अगर वे हिन्दू, ईसाई, जैन, सिख, पारसी और बौद्ध हैं तो सभी 6 समुदायों को भारत की नागरिकता मिल जाएगी. 31 दिसंबर 2014 तक आने वालों को नागरिकता मिलेगी. यह बिल पूर्वोत्तर के जनजातीय इलाकों में लागू नहीं होगा. मिज़ोरम, नागलैंड और अरुणाचल प्रदेश में लागू नहीं होगा.

अमित शाह बार-बार हिन्दू ईसाई, जैन, सिख पारसी और बौद्ध का नाम लेते हैं. ईसाई हैं, मुसलमान नहीं हैं. क्या यह धर्म के आधार पर फर्क करना नहीं हो गया. कैसी शरणार्थी नीति है जो मज़हब के आधार पर बनने जा रही है? अमित शाह क्यों एक मज़हब का नाम नहीं लेते हैं. असम एनआरसी को लेकर कितना बेचैन रहा. 19 लाख लोग फाइनल लिस्ट में नहीं आए. 14 लाख हिन्दू ही निकले. 5 लाख मुस्लिम. बीजेपी के ही नेता फिर से एनआरसी कराने की मांग कर रहे हैं. क्या इसलिए कि लिस्ट में हिन्दू ज़्यादा हो गए हैं. नागिरकता संशोधन बिल से इन्हें नागरिकता तो मिल जाएगी लेकिन फिर क्या धर्म के आधार पर किसी एक को अलग थलग नहीं किया जा रहा है? क्या घुसपैठिया भी मज़हब के आधार पर तय होगा? क्या यह कोई नई रेखा खींची जा रही है? पिछली बार मोदी सरकार ने पूर्वोत्तर में भारी विरोध के कारण इस बिल को छोड़ दिया था. अब नए संशोधनों के साथ कैबिनेट ने पास कर दिया है, लेकिन उसमें क्या-क्या आधिकारिक रूप से पता नहीं. असम में भी इस बिल को लेकर चिन्ताएं ज़ाहिर की जा रही है. असम में अवैध घुसपैठियों को लेकर लंबा आंदोलन चला था. इसमें घुसपैठिये को मज़हब के आधार पर नहीं बांटा गया था.

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