2023 लगातार आठवां ऐसा साल रहा, जिसमें देश के लोगों ने सबसे ज़्यादा ऑर्डर बिरयानी के दिए. रिपोर्ट स्विगी ने जारी की है. ऐसे में कुछ बुनियादी सवाल खड़े होते हैं. आखिर ऑनलाइन खाना मंगाने के मामले में बिरयानी लगातार टॉप पर क्यों बनी हुई है...? बिरयानी में ऐसा क्या है, जिससे यह देशभर में सबसे ज़्यादा पसंद की जाने वाली डिश बन गई...?
जो बिरयानी करीब चार सदी पहले मिडल ईस्ट से भारत आई, भारतीयों के मन-मिजाज के मुताबिक ढल गई, उसे अब स्थानीय मान लिया जाए या पैराशूट उम्मीदवार...? खैर, शक का सिलसिला तब तक चलना चाहिए, जब तक खुद बिरयानी ऑर्डर करने को मन मचल न जाए.
बिरयानी पॉलिटिक्स
हम भारतीयों की एक खास फितरत होती है, हर चीज को पॉलिटिक्स के चश्मे से देखने की. क्या पता, बिरयानी को नंबर वन का ताज दिलाने के पीछे भी कोई राजनीति हो. ठीक है, बिरयानी विनर है. पर ऐसा नहीं कह सकते कि वह हर भारतीय की पसंद है. इसकी मुखालफत में झंडा उठाने वालों का भी परसेंटेज देखा जाना चाहिए. यह भी तो देखिए कि जिनके पास मोबाइल में नेट डलवाने के पैसे नहीं हैं, उनकी पसंद-नापसंद कौन पूछेगा? जो पिछली पांत में खड़े हैं, जो ऑनलाइन ऑर्डर नहीं कर सकते, उनके मताधिकार का क्या...?
विविधता में एकता
बड़ा सुंदर नारा है यह. खाना आपको भी है, खाना हमको भी है, तो चलिए थोड़ा-थोड़ा एडजस्ट कर लेते हैं. एक न्यूनतम साझा कार्यक्रम तय कर लेते हैं. नहीं तो न हम खा सकेंगे, न आप. चलिए बिरयानी ही ऑर्डर कर लेते हैं. अब बिरयानी पर आम राय कायम हो गई. अगर न होती, तो आम राय बनाने के लिए ही बिरयानी पार्टी कर लेते! बिरयानी पर सहमति कैसे बनती है, इसके व्यावहारिक पहलू भी देखिए.
सोचिए, चार-पांच लोग मिलकर कुछ खाना ऑर्डर करना चाह रहे हैं. सबकी पसंद कुछ जुदा-जुदा. सबके 'लालच आहा लपलप' की वजह जुदा-जुदा. इनकी सहमति आखिर किस डिश पर बन सकती है? अगर चावल या रोटी पर एकमत हैं, तो फिर सब्ज़ी चुनने को लेकर टकराव. मुण्डे-मुण्डे मतिर्भिन्ना. ऐसे मौकों पर बिरयानी ही तारणहार बनती है. क्यों, इसे एक और उदाहरण से समझिए.
मान लीजिए, पांच लोगों के बीच कोई एक ही तरह का सॉफ्ट ड्रिंक मंगाना हो. कुछ को ऑरेंज फ्लेवर पसंद है, कुछ को कोक. ऐसे में सबकी सहमति वाइट-वाइट लेमन फ्लेवर पर बनने की संभावना सबसे ज़्यादा है. एकदम क्लियर है! चलिए न मेरी, न आपकी. बीच-बीच का लगा लेते हैं. बहुत संभव है कि अगर स्विगी पर मौजूद तमाम भोज्य पदार्थों का औसत निकाला जाए, तो उसका स्वाद बिरयानी के इर्द-गिर्द ही आए! एक ही बिरयानी में अलग-अलग, हर तरह के स्वाद. कुछ नरम, कुछ गरम. मिली-जुली सरकार जैसा आदर्श व्यंजन.
नवाबी शौक
इस नवाबी डिश के लिए दीवानगी के पीछे हमारे नवाबी शौक भी जिम्मेदार हैं. पर कैसे? कुछ दशक पहले तक घर-घर की माएं अपने बच्चों की कमीज-पैंट फटने पर उस पर चिप्पी लगा देती थीं. पर अब नए-नवेले और फटे कपड़े पहनने का फैशन है. तुम सटा बेचते रहो, हम फटा बेच लेंगे. तुम सटा पहनते रहो, हम फटा ही पहनेंगे. शौक बड़ी चीज़ है. यह सब कुछ एकदम एक्सीडेंटल नहीं है. इसके पीछे नए नवाबों को कैश करने को तैयार बैठा बाज़ार भी है. सबकी परचेज़िंग पॉवर बढ़ी है, तो इसका इस्तेमाल कहीं न कहीं होना ही है.
खिचड़ी घर-घर पकती आई है. पैसे की बचत, समय की बचत. पेट भराऊ भी, सेहतमंद भी. पर आगे चलकर न जाने क्यों यह मजबूरी का नाम बनकर रह गई. लेकिन लगता है, इसकी टैगिंग ही गलत हो गई. इस संभावित ताने को चकमा देने के खयाल ने ही पहले खयाली पुलाव पकाया होगा. तब आए होंगे असली पुलाव और फिर बिरयानी.
फर्क कहां है
तो क्या खिचड़ी, पुलाव या बिरयानी को एक ही तराजू पर तौला जा सकता है...? जी नहीं. इनमें तौल कर, किलो के भाव से केवल बिरयानी ही बिकती है. वैसे भी, भले ही तीनों में चावल कॉमन हो, पर हैं तीनों अलग-अलग. यह कुछ-कुछ वैसा ही है, जैसे तीन इंसान हों और तीनों के बीच कॉमन बात केवल इतनी ही हो कि तीनों के भीतर कॉमन सेंस नदारद हो. अभी खिचड़ी को तो साइड ही रख दीजिए. इसे बाद में पका लेंगे. विशेषज्ञ बताते हैं कि पुलाव और बिरयानी के बीच भी बहुत फर्क है. एक बड़ा अंतर यह है कि बिरयानी पकाने के लिए बर्तन में कई तहें लगाई जाती हैं. बिरयानी को एकदम धीमी आंच पर चढ़ाया जाता है, इसलिए टाइम ज़्यादा लगता है. साथ ही इसको बर्तन में बंद चीज़ों के रस में ही पकाया जाता है, जिसे 'दम स्टाइल' कहते हैं. यही इसके दमदार होने का राज़ है.
अगर किस्मों की बात करें, तो हैदराबादी बिरयानी और दरबारी बिरयानी की ज़्यादा पूछ है. होनी भी चाहिए. स्विगी की रिपोर्ट कहती है कि इस साल हर सेकंड 2.5 बिरयानी ऑर्डर की गई. वेज बिरयानी के एक ऑर्डर पर 5.5 चिकन बिरयानी. गनीमत है, बिरयानी में सबके लिए गुंजाइश छोड़ी गई है. चलिए, इसी तरह खिचड़ी की रिपोर्ट का भी इंतजार रहेगा.
एक ज़रूरी बात. सिर-फुटौवल के इस दौर में, अगर बिरयानी न होती, अगर स्विगी की रिपोर्ट न आती, तो शायद हम कभी यह जान भी न पाते कि आखिर वह कौन-सी चीज़ है, जिस पर हम लोग कुछ बरस से एकमत हैं. क्या हमें देश के सामने धीमी आंच पर सुलगते और सवालों पर भी एकमत नहीं होना चाहिए...? कम से कम इसलिए कि जो आज भी मजबूरन खिचड़ी पर अटके हैं, वे कल बिरयानी ऑर्डर कर सकें...!
अमरेश सौरभ वरिष्ठ पत्रकार हैं... 'अमर उजाला', 'आज तक', 'क्विंट हिन्दी' और 'द लल्लनटॉप' में कार्यरत रहे हैं...
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