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This Article is From Aug 03, 2021

संसद की अवमानना का असली ज़िम्मेदार कौन है?

Priyadarshan
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    अगस्त 03, 2021 20:43 pm IST
    • Published On अगस्त 03, 2021 20:43 pm IST
    • Last Updated On अगस्त 03, 2021 20:43 pm IST

प्रधानमंत्री दुखी हैं कि विपक्ष संसद नहीं चलने दे रहा. इसे वे संसद, संविधान और लोकतंत्र विरोधी कृत्य मान रहे हैं. लोकसभाध्यक्ष उचित ही यह हिसाब लगा रहे हैं कि मॉनसून सत्र के बरबाद गए घंटों की वजह से कितने रुपये जाया हुए. लेकिन क्या यह कोई नई प्रक्रिया है जो संसद में पहली बार देखी जा रही है? क्या 2014 से पहले बीजेपी संसद का यह हाल नहीं करती रही थी? दिलचस्प यह है कि तब यूपीए सरकार पैसे की बरबादी की शिकायत करती थी और विपक्ष संसद के बहिष्कार या व्यवधान के अपने फ़ैसले का बचाव करता था. आउटलुक के पोर्टल पर पीआरएस लेजिस्लेटिव रिसर्च का एक हवाला है जिसके मुताबिक 2009 से 2014 के बीच जो नवीं लोकसभा का कार्यकाल था, उस वक़्त लोकसभा अपने नियत समय के बस 61 फ़ीसदी चल सकी और राज्यसभा करीब 66 फ़ीसदी. रिसर्च के मुताबिक ये पचास साल का सबसे बुरा कार्यकाल था.

बोफोर्स को लेकर लगातार 45 दिन संसद नहीं चल पाई थी. तब राजीव गांधी के पास विराट बहुमत था. फिर भी अंततः उन्हें झुकना पड़ा और बोफोर्स मामले की जांच के लिए संयुक्त संसदीय समिति गठित करनी पड़ी. 2010 में शीत सत्र में पहले 11 दिन कामकाज नहीं हो पाया तब बताया गया कि 25 करोड़ का नुक़सान हो चुका है. तब भी सरकार यही शिकायत कर रही थी कि विपक्ष अपने अड़ियल रवैये की वजह से सदन चलने नहीं दे रहा और कई ज़रूरी बिल अटके हुए हैं. और तब मुख्य विपक्षी दल- यानी बीजेपी- का क्या रुख़ था? एक-दो बार नहीं, तीन बार बीजेपी के सबसे महत्वपूर्ण बौद्धिक नेता माने जाने वाली दिवंगत अरुण जेटली ने कहा था कि कई बार संसद में व्यवधान लोकतंत्र के लिए हितकर होता है. उनका कहना था कि संसद विचार-विमर्श और बहस के लिए है- अगर सरकार इससे बचना चाहती है तो इसके लिए वह संसद का इस्तेमाल नहीं कर सकती. एक अन्य अवसर पर बीजेपी की दूसरी कद्दावर नेता सुषमा स्वराज ने भी यही बात कही थी.

क्या प्रधानमंत्री को अपने इन दिवंगत वरिष्ठ सहयोगियों के इन वक्तव्यों की याद है? ठीक है कि उन दिनों वे मुख्यमंत्री हुआ करते थे. लेकिन क्या तब उन्हें अपनी पार्टी के इस रुख़ में संसद और लोकतंत्र की अवमानना नहीं दिखाई पड़ती थी? क्या भूमिकाएं बदल जाते इस तरह बोलियां बदल जाती हैं?

लेकिन यह बदली भूमिका और बोली का मामला भर नहीं है. यह दरअसल संसद की उस अवमानना का मामला है जो सरकारों के रुख़ से पैदा हो रही है, विपक्ष के हंगामे से नहीं. संसद सरकार द्वार बनाए क़ानून पास करने की मशीनरी भर नहीं है- वह हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था के संपूर्ण संवाद का मंच भी है. उसे देश की दिशा तय करनी है, सरकार को दिशा दिखानी है. इसलिए तमाम मुद्दों पर वहां बहसें हुआ करती हैं, नतीजे निकाले जाते हैं और उसके हिसाब से जरूरी होने पर क़ानून भी बनाए जाते हैं. विधेयकों पर भी बहस होती है और उसके बाद विस्तृत विचार-विमर्श के बाद किसी अंतिम क़ानून पर मुहर लगती है.

लेकिन हो क्या रहा है? सरकारें बहस से भाग रही हैं. वे संसद के कामकाज का हवाला देकर अपने ऊपर लग रहे आरोपों से छुटकारा चाहती हैं. राजीव गांधी की सरकार बोफ़ोर्स पर बहस नहीं चाहती थी, नरसिंह राव की सरकार सुखराम पर बात नहीं करना चाहती थी, मनमोहन सिंह की सरकार टू-जी स्पेक्ट्रम पर बहस करने से बचती थी और मोदी सरकार कृषि क़ानूनों और पेगासस जासूसी कांड पर बहस करने से बच रही है.

लेकिन कल और आज में फिर भी एक अंतर है. नरसिंह राव की सरकार अल्पमत सरकार थी. मनमोहन सिंह की सरकार यूपीए के सहयोगियों के भरोसे थी. यानी लोकसभा की बहस उनके लिए अस्तित्व का ख़तरा बन सकती थी. लेकिन इस बार नरेंद्र मोदी प्रचंड बहुमत के साथ सत्ता में हैं. किसी भी तरह की बहस से उनकी सरकार को ख़तरा नहीं है. फिर विपक्ष पेगासस पर जिस नियम 267 के तहत बहस की मांग कर रहा है, अतीत में उसके तहत कई मुद्दों पर बहस हो चुकी है. मनमोहन सिंह के कार्यकाल में मुद्रास्फीति, खुदरा क्षेत्र में विदेशी निवेश और किसानों की आत्महत्या पर बहस हुई तो नरेंद्र मोदी के कार्यकाल में कृषि संकट, कश्मीर मुद्दे और नोटबंदी पर चर्चा हुई.

फिर सरकार इस बार कृषि कानूनों और पेगासस पर बहस कराने से क्यों बच रही है? महीनों से किसान तमाम मौसम और बीमारी झेलते हुए दिल्ली की सरहदों पर मौजूद हैं. लेकिन सरकार ने दरवाज़े बंद कर लिए हैं. जिन कृषि क़ानूनों में वह कई संशोधनों के लिए तैयार है, जिन्हें वह कुछ साल तक स्थगित करने के लिए भी तैयार बताई जाती है, उन्हें वह किसानों के लोकतांत्रिक अधिकार का सम्मान करने के लिए वापस क्यों नहीं ले सकती? लोकतंत्र में क्या इस हद तक निर्णय थोपे जाते हैं? इसी तरह पेगासस जासूसी का मामला डरावना है. अगर देश के तीन सौ नंबरों की जासूसी का संदेह है जिनमें नेताओं, पत्रकारों और कई अन्य शख़्सियतों के फोन नंबर भी शामिल हैं, तो क्या सरकार को इससे परेशान नहीं होना चाहिए? क्या वह खुल कर यह बता सकने की स्थिति में है कि उसने पेगासस की ख़रीद की है या नहीं?

इसी से यह संदेह होता है कि यह सरकार बहस से बचने के लिए संसद का इस्तेमाल करना चाहती है. यही नहीं, वह जिस तेज़ी से हंगामे के बीच बिल पर बिल पास करा रही है, उससे भी संसद की गरिमा कम होती है. क्या संसद सिर्फ विधेयकों पर अंगूठा लगाने या मुहर मारने के लिए है? कृषि क़ानूनों को भी इसी तरह पास कराया गया था. अगर तृणमूल के सांसद डेरेक ओ ब्रायन ने कहा कि कानून पापड़ी-चाट की तरह बनाए जा रहे हैं तो उनका इशारा बस यह था कि इतनी हड़बड़ी में क़ानून पास नहीं होने चाहिए. लेकिन सरकार को बस चाट पापड़ी समझ में आया और उसने संसद की अवमानना का आरोप मढ़ दिया.

सच तो यह है कि सरकारें लगातार संसद की अवमानना कर रही हैं. हमारे लोकतंत्र में संविधान और संसद दोनों की सर्वोच्चता है. संविधान की भावना के मुताबिक यह विधायिका है जिसे कार्यपालिका को निर्देशित करना चाहिए- यानी संसद को बताना चाहिए कि सरकार क्या करे. लेकिन ऐसा लग रहा है जैसे सरकार फ़ैसले कर रही है और अपने बहुमत के बल से संसद से मुहर लगवा ले रही है.

यह स्थिति सरकार को- और उसके मुखिया प्रधानमंत्री को- निरंकुश करती है, संसद की अवहेलना करती है और अंततः लोकतंत्र को कमज़ोर करती है. संसद के मॉनसून सत्र में जो कुछ हो रहा है, उसके लिए विपक्ष से ज़्यादा ज़िम्मेदार यह सरकार है.

प्रियदर्शन NDTV इंडिया में एक्ज़ीक्यूटिव एडिटर हैं...

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं. इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति NDTV उत्तरदायी नहीं है. इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं. इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार NDTV के नहीं हैं, तथा NDTV उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है.

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