हमें इसका इल्म और अहसास है कि पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ को दस साल की जेल हुई है और यह बड़ी ख़बर है और हम उस पर आएंगे मगर उन तमाम मायूस निगाहों की नज़र में बड़ी ख़बर वही है जो उनकी अपनी ख़बर है. लाखों अर्धसैनिक बल सेना की तरह समान पेंशन और वेतन की मांग को लेकर सड़क पर हैं, यूपी के 8000 बीटीसी शिक्षक नियुक्ति पत्र मिलने के इंतज़ार में धरने पर बैठे हैं, इन्हीं के साथ 4000 उर्दू शिक्षक नियुक्ति पत्र के इंतज़ार में सड़क पर हैं, पौने दो लाख शिक्षा मित्र समय से वेतन मिलने और 10,000 से 40,000 होने की मांग को लेकर दर दर भटक रहे हैं, यूपी के 75 ज़िलों के लेखपाल वेतन बढ़ाने को लेकर हड़ताल पर हैं, तहसीलों में किसी प्रकार का प्रमाण पत्र नहीं बन रहा है, इन सबको उम्मीद है कि चैनल इनकी ख़बर दिखाए क्योंकि इनके ज़हन में इस वक्त इनकी समस्या ही सबसे बड़ी ख़बर है. कितनी भी बड़ी ख़बर हो जाए इनका यही मैसेज आता है कि क्या आप आज हमारे मुद्दे पर चर्चा नहीं करेंगे. हम सभी के साथ चर्चा तो नहीं कर सकते क्योंकि हम न सरकार हैं न हमारे पास कोई सचिवालय है, फिर भी यह बात इसलिए कही कि लोग किस तरह से परेशानियां झेल रहे हैं, और ख़बरों की दुनिया से लोग ही ग़ायब हैं.
क्या आपकी नज़रों से उस हुजूम की तस्वीर कभी गुज़री है जब 14 और 15 मई के दिन लखनऊ में 4000 उर्दू शिक्षक अपनी नियुक्ति पत्र के लिए तपती गरमी में सड़कों पर थे. दिसंबर 2016 में उस वक्त की सपा सरकार ने 16,460 शिक्षकों की भर्ती का आदेश जारी किया था. इसमें से 4000 उर्दू शिक्षक थे और 12460 अन्य शिक्षक थे जिनके बारे में आपने प्राइम टाइम में कई बार सुना होगा. नई सरकार बनने से पहले 22 और 23 मार्च को इनकी भी काउंसलिंग हो गई थी मगर 23 मई को नई सरकार आने के बाद समीक्षा के नाम पर सारी प्रक्रिया रोक दी गई. सरकारी स्कूलों में उर्दू शिक्षकों का पद होता है उसी की बहाली होनी थी. इन सभी के पास भी 12460 शिक्षकों की तरह बेसिक टीचिंग सर्टिफिकेट है. 4000 उर्दू शिक्षकों में से तीस प्रतिशत ग़ैर मुस्लिम हैं. इनमें से 720 पद अनुसूचित जाति और जनजाति के लिए आरक्षित हैं. आपको लगेगा कि धर्म के कारण नहीं हो रहा मगर धर्म कारण होता तो 12460 बीटीसी शिक्षकों में 8000 धरने पर नहीं बैठे रहते कि उन्हें भी नियुक्ति पत्र मिल जाए. पौने दो लाख शिक्षा मित्रों में सभी धर्मों के लोग हैं फिर भी इनकी मांग पर किसी का ध्यान नहीं है. इन लोगों ने वंदेमातरम् के नारे भी लगाए, भारत माता की जय भी कहा, सबका आह्वान किया, सबको याद किया मगर बहाली नहीं हुई.
एक मिनट के लिए सोचिए, अगर कोई सरकार आपका चयन करे, अदालत से दो दो बार उस चयन पर मुहर लगे तो क्या नियुक्ति पत्र नहीं मिल जाना चाहिए? 12640 शिक्षकों के साथ भी यही हुआ. उन्हें भी दो-दो बार हाई कोर्ट से जीत मिली है मगर अभी तक सभी की ज्वाइनिंग नहीं हुई है. इसी 3 नवंबर 2017 को हाईकोर्ट से उर्दू शिक्षक भी केस जीत गए. यूपी सरकार 28 नवंबर को डिविज़न बेंच चली गई मगर 12 अप्रैल 2018 को सरकार मुकदमा हार गई. अदालत ने कहा कि 2 माह के भीतर इन चार हज़ार उर्दू शिक्षकों की अभी तक ज्वाइनिंग नहीं हुई है. 12 जून 2018 को दो माह की सीमा पूरी हो गई. अब अगर अदालत का आदेश लागू नहीं हो सकता तो सोचिए जनता कहां जाएगी.
ऐसा नहीं है कि राज्य के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ इनसे मुलाकात या बात नहीं करते हैं. 22 जून को मुख्यमंत्री ने उर्दू शिक्षकों से मुलाकात की थी, इस मुलाकात को हासिल करने के लिए इन नौजवानों को मंत्री अनुपमा जयसवाल के घर के बाहर धरने पर बैठना पड़ा था. 4 और 8 जून को भी इन लोगों ने धरना दिया था. मुख्यमंत्री से मुलाकात तो हुई मगर 22 जून के बाद 6 जुलाई आ गया, कुछ भी होने या किये जाने का अब तक पता नहीं चला है. मुख्यमंत्री ने तुरंत कार्रवाई का आश्वासन दिया था, शायद उनकी किताब का मतलब 15 दिन कुछ नहीं होता होगा.
ट्विटर पर ज़िंदाबाद मुर्दाबाद करना आसान होता है, सड़क पर उतर कर लाठी खाते हुए ज़िंदाबाद मुर्दाबाद करके देखिए. जायज़ मागों पर भी सुनवाई नहीं है. जनता ही जनता से बेख़बर रहने लगे तो इसका नुकसान हर तरह की जनता से होगा क्योंकि जब आपकी बारी आएगी तो आपके साथ भी ये सिस्टम वैसा ही करेगा जो इन लाखों लोगों के साथ कर रहा है. इसलिए आप देखिए कि आपके साथ क्या-क्या हो सकता है. ऐसे लोग प्रदर्शन न करें तो लगेगा ही नहीं कि भारत में लोकतंत्र ज़िंदा है. मेरी राय में आप सभी नागरिकों को इस बात का अधिकार मांगना चाहिए कि धरना प्रदर्शन के लिए सरकार सुविधाएं उपलब्ध कराए. धरना प्रदर्शन कर आप लोकतंत्र पर अहसान करते हैं, जनता के बाकी हिस्सों को भरोसा देते हैं कि अभी हम ज़िंदा हैं.
भारत के लोकतंत्र को इन लोगों का शुक्रिया अदा करना चाहिए कि ये सभी यूपी के आज़मगढ़ और गाज़ीपुर ज़िले से चलकर दिल्ली आए हैं. 900 किमी की रेलयात्रा इसलिए कि ताकि वे प्रधानमंत्री मोदी तक अपनी आवाज़ पहुंचा सकें. दिल्ली के रामलीला मैदान की खुरदुरी ज़मीन पर ख़ुद को खींचते हुए ये लोग इस आस में चार दिनों तक यहां रहे कि कोई तो आएगा जो उनकी बात सुनेगा और प्रधानमंत्री तक पहुंचा देगा. बिभोरी पाल देख नहीं सकते हैं मगर दिल्ली ने भी तो इन्हें नहीं देखा. भिकाईपुर, बबुरा गांव से 200 लोग जिनमें से 100 के करीब महिलाएं थीं और 70-80 के करीब वो लोग जिन्हें प्रधानमंत्री ने नया नाम तो दे दिया मगर उन तक उनका हक नहीं पहुंचा. कलेजे को थोड़ा मज़बूत कीजिए तो आप देख पाएंगे कि लोकतंत्र में आवाज़ के पहुंचने में इनकी आस्था कितनी मज़बूत होगी कि ये दिल्ली तक आए, कितनी उदासी लेकर लौटे होंगे कि किसी ने आवाज़ ही नहीं सुनी. महिलाएं इसलिए आईं थीं कि सभी को विधवा पेंशन नहीं मिल रहा है. शारीरिक चुनौतियों का सामना करते हुए ये लोग सिस्टम की चुनौतियों से इसलिए भिड़ने आए थे कि इनके पास शौचालय नहीं है. हमारे सहयोगी सुशील महापात्रा की नज़र इन पर न पड़ी होती तो इनके ज़रिए एक बेहद गंभीर बात कहने का मौका नहीं मिलता. आपको पता ही नहीं चलता कि सिस्टम के भीतर कितनी सड़न आ गई है कि वो नागरिकों को कीड़े मकोड़े समझने लगा है. ठीक इसी शब्द का इस्तेमाल किया एक सज्जन ने. कहा कि जब दूसरे के खेत में शौचालय के लिए जाते हैं तब लोग मारते हैं. जब अधिकारी के पास शौचालय मांगने जाते हैं तब इनसे कीड़े मकोड़े की तरह बर्ताव किया जाता है.
अब अगर गांवों से ग़रीब लोग दिल्ली धरना देने आएंगे तो क्या उनसे 5000 रुपया लिया जाना चाहिए? पहले जंतर मंतर पर मुफ्त में धरना प्रदर्शन होता था, वहां से हटाकर रामलीला मैदान भेज दिया गया मगर एक नई शर्त के साथ कि धरना देने के लिए फीस देनी होगी. राजनीति इतनी बेशर्म न हुई होती तो संसद से कानून पास करती कि धरना देने का अधिकार लोकतांत्रिक अधिकार है. धरना देने पर सरकार आपको मानदेय देगी. खुद ये राजनीतिक दल के लोग एक दूसरे के घरों को घेरते रहते हैं और टीवी पर आते रहते हैं मगर आम लोगों को धरना देने के लिए 5000 रुपये देने पड़े, इस सवाल पर क्यों नहीं सोचा जाना चाहिए. सुशील महापात्रा को भी पता नहीं चलता अगर इन ग़रीब लोगों के साथ समर्थन देने आए एक दिल्ली वाले ने पैसे मांग रहे अधिकारी का विरोध न किया होता.
हमारे दिमाग़ में एक सवाल और आया. गाज़ीपुर के गांव में तो शौचालय नहीं है लेकिन रामलीला मैदान में क्या इन लोगों के लिए शौचालय का इंतज़ाम किया गया था? इन लोगों ने बताया कि वहां का शौचालय बंद था, इसलिए काफी तकलीफ उठाते हुए दूर के शौचालय में गए जहां पांच रुपये देकर इस्तेमाल किया. सुशील महापात्र दोबारा रामलीला मैदान गए, यह देखने के लिए कि शौचालय का क्या इंतज़ाम है. यहां से निकलने के बाद सुशील की मुलाकात एक और परिवार से हुई. यह परिवार दिल्ली का ही है और पिछले आठ दिनों से यहां धरने पर बैठा है. इनकी दुकान उजड़ गई है फिर भी पांच हज़ार की पर्ची कटाकर यहां धरना दे रहे हैं. सवाल सिम्पल है. जब सरकार पैसा ले रही है तो फिर सरकार इनसे सुनने क्यों नहीं आती है. क्या पैसे लेने के बाद सरकार को सुनने की गारंटी नहीं देनी चाहिए?
सुशील महापात्रा ने रामलीला मैदान के प्रबंधन से जुड़े अधिकारियों से बात करने का प्रयास किया मगर कैमरे पर बात करने के लिए कोई तैयार नहीं हुआ. यही बताया कि पांच हज़ार जो लिया जाता है वो बाद में वापस हो जाता है. अब आप सोचिए. आप सरकार के पास गए हैं या सूदखोर के पास गए हैं. धरना देने के लिए पांच हज़ार दीजिए जो धरने के बाद वापस हो जाएगा, सुनकर आपको अजीब नहीं लगा.
This Article is From Jul 06, 2018
नौकरी की जंग लड़ते जवान-नौजवान, सरकार से मिला भरोसा कब पूरा होगा?
Ravish Kumar
- ब्लॉग,
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Updated:जुलाई 06, 2018 22:36 pm IST
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Published On जुलाई 06, 2018 22:36 pm IST
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Last Updated On जुलाई 06, 2018 22:36 pm IST
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