कमाल की बात है, एक और मध्य प्रदेश सरकार फसल बर्बादी के लिए तकरीबन साढ़े तीन हजार करोड़ रुपये का मुआवजा भी बांट देती है और दूसरी और बंपर अन्न उत्पादन के लिए तमगा भी हासिल कर लेती है। वह भी ऐसा-वैसा नहीं राष्ट्रीय स्तर का। इस दौड़ में वह केवल अकेला राज्य नहीं होता। अवार्ड प्राप्त करने वाला यह राज्य किसान आत्महत्याओं के मामलों में भी तीसरे पायदान पर है।
यह अलग बात है कि यहां विधानसभा में यह बताया जाता है कि किसान कर्ज के कारण नहीं, बल्कि प्रेम संबंधों के कारण आत्महत्या कर रहे हैं।' और तो और, जब इस पुरस्कार की घोषणा की जाती है तो सत्ता समर्थित भारतीय किसान संघ के नेता यह आरोप धर देते हैं कि अधिकारी फर्जी आंकड़े पेश कर यह अवार्ड हासिल कर रहे हैं। यह सब कुछ हो रहा है देश के ह्रदय स्थल मध्य प्रदेश में जो कि उत्पादन के मामले में अगला पंजाब कहा जा रहा है। यह अलग बात है कि पंजाब की धरती अब खुद उपजाऊ नहीं बची है। कई रिपोर्ट और जमीनी अध्ययन बता रहे हैं कि वहां की उर्वरा क्षमता घट गई है।
..तब तक बंट चुका था साढ़े तीन हजार करोड़ का मुआवजा
यह जानना लाजिमी होगा कि जिस वक्त अवार्ड की यह खबर मिली उस वक्त तक सरकार की ओर से वित्तीय वर्ष 2015 के लिए साढ़े तीन हजार करोड़ रुपये का घोषित मुआवजा किसानों को बंटा जा चुका है। यह तर्क हो सकता है कि इसके बावजूद फसल का बंपर उत्पादन हुआ है। सवाल यही है कि अगर नुकसान के बावजूद बंपर उत्पादन हो गया तो वह कैसे हो पाया ? क्या इस चमत्कारिक खोज को हम दूसरे राज्यों में लागू नहीं कर सकते हैं और यदि कर ही दिया है इस फार्मूले को छिपाया क्यों जा रहा है? आखिर कर ही दिया है तो उनके अपने लोग इसे कागजी चमत्कार क्यों बता रहे हैं?
जमीनी हकीकत ऐसी नहीं
जब हम किसी एक क्षेत्र के समग्र अवार्ड की बात करते हैं तो हमें लगता है कि वहां सारे लोगों की स्थिति में बुनियादी परिवर्तन नजर आता होगा। लेकिन जमीन पर चले जाएं तो ऐसा है नहीं। खासकर छोटे और लघु सीमांत किसानों की माली हालत का देखें तो समझ आ जाएगा कि पुरस्कार जीतने जैसे हालात तो नहीं हैं। आखिर हम कैसे भूल सकते हैं कि कुछ महीने पहले ही तो खुद मध्यप्रदेश के मुखिया ने अपने अधिकारियों को खराब फसल का जायजा लेने के लिए गांव-गांव दौड़ाया था। यह अलग बात है कि बर्बाद फसलों का जायजा लेने गए अधिकारी कहीं खेतों की बजाए पर्यटन स्थलों पर नजर आए। दुख की घड़ी में बजाए किसानों के कंधे पर हमदर्दी का हाथ रखकर बात करने के जमीन पर बैठाकर बातचीत करते अखबारों में छपे।
अपने उत्पाद का मूल्य खुद तय नहीं कर पाता किसान
दरअसल, खेती के संकट तो हमने खुद भी पैदा किए हैं। नीतियों ने उनको और बड़ा दिया है। और उसकी शुरुआत तो तभी से देखी जानी चाहिए जब खेती को आजीविका के एक बेहतर जरिये से व्यवसाय में तब्दील कर दिया गया। बेहतर और आधुनिक बीजों के नाम पर परंपरागत बीजों को खत्म कर दिया गया क्योंकि बीज का अपना बाजार है। हर साल केवल खाद की व्यवस्था करने वाले किसान को अब अब खाद के साथ बीज की व्यवस्था भी करनी पड़ रही है। जिससे खेती की कुल लागत में इजाफा हुआ है। जैविक और घर में बनने वाली खाद अब रही नहीं क्योंकि खेती अब मशीनों से हो रही है इसलिए खाद-बीज के लिए किसान बाजार पर ही निर्भर है। बाजार जानता है कि उसे कब क्या करना है। इसलिए हर साल किसान लगातार सरकारी सप्लाई होने के बावजूद उर्वरक का भारी संकट झेलता है। मौसम की मार से बचकर किसी तरह अनाज पैदा भी हो जाए तो मंडियों में उसकी कीमत किसान खुद तय नहीं करता। संभवतः देश में किसान ही ऐसा अकेला कारोबारी है जिसके उत्पाद का मूल्य वह खुद तय नहीं करता और उस उत्पाद को बेचने के लिए भी सबसे ज्यादा वक्त का इंतजार खुले आसमान में बैठकर करना पड़ता है। इन विपरीत परिस्थितियों के बावजूद यदि कृषि कर्मण का अवार्ड मिल जाए तो हैरानी तो स्वाभाविक है।
अभी भी गुम ही है फायदे की बेलेंस शीट
सबसे बड़ी गड़बड़ तो यही है कि आधुनिक कृषि ने खेती की विविधता को ही खत्म कर दिया है. केवल गेहूं, धान और सोयाबीन की नकदी फसलों ने बाकी मसालों और घर के उपयोग की चीजों की पैदावार खत्म कर दी है अब हालात यह है कि किसान खुद बाजार से महंगी दाल खरीद रहा है. यह जरूर है कि कुछ फसलों के उत्पादन के आंकड़ों में हमने तरक्की कर ली है, लेकिन फायदे की बेलेंस शीट तो अभी भी गुम ही है। लेकिन सरकारें यह अच्छे से जानती हैं कि कहां क्या करना है, किसान भी समझता है कि कहां क्या हो रहा है. फिर भी वह बड़ी उम्मीद से वोट देने चला जाता है, उसकी सरकार अवार्ड भी हासिल कर लेती है।
राकेश कुमार मालवीय एनएफआई के फेलो हैं, और सामाजिक मुद्दों पर शोधरत हैं...
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