बजट को समझने के लिए देश का होशियार तबका अपना सिर खुजाने में लग गया है. इस बजट से जिन्हें तोहफे बंटने का ऐलान हुआ वे भी हिसाब लगा रहे हैं कि उन्हें आखिर मिलेगा क्या? अब क्योंकि बजट के जरिए किसी को हाल के हाल तो कुछ मिलता नहीं. सो इसका अंदाजा उन्हें कुछ दिनों बाद ही हो पाएगा कि उन्हें कितनी राहत पहुंचेगी. इन सबके अलावा बचते हैं वे अर्थशास्त्री जो देश का आगा पीछा देखने में लगे रहते हैं. वैसे बजट को समझने वाले समष्टिभाजी अर्थशास्त्रियों का आजकल भारी टोटा पड़ा हुआ है. जो थोड़े बहुत अर्थशास्त्री देश छोड़कर बाहर नहीं चले गए हैं और देश में उपलब्ध हैं उनमें ज्यादातर सरकार के साथ ही हैं और उन्होंने ही सरकार को यह चुनावी बजट बनाने में मदद की होगी लिहाजा वे तो यह साबित करेंगे ही कि इस बजट से बढ़िया बजट हो ही नहीं सकता. बजट पर बोलने के लिए अब बचा विपक्ष. बहुत ही दिलचस्प तथ्य है कि विपक्ष भी आजकल वही है जो पिछले सात दशकों में कोई 50 बार बजट बनाकर पेश कर चुका है. यानी उसे पता होगा कि बजट में कहां कहां गुंताड़ा करने की गुंजाइश होती है. विपक्ष को यह भी पता होगा कि दो तीन महीने बाद अगर वह सत्ता में आ गया तो इस बजट की ऊंच नीच से वह निपटेगा कैसे? इतना ही नहीं उसकी सरकार को भी तो तीन चार महीने बाद पूर्ण बजट पेश करना होगा. यानी इस अंतरिम बजट की समीक्षा करते समय विपक्ष के सामने भी झंझटें कम नहीं हैं. यानी कुलमिलाकर बजट जैसे महत्वपूर्ण दस्तावेज की पेचीदगियां समझना और समझाना आसान काम नहीं है. फिर भी सरसरी तौर पर बजट पर कुछ टिप्पणी तो की ही जा सकती है. ज्यादा कुछ नहीं तो कम से कम कुछ सवाल तो बनाए ही जा सकते हैं. ऐसे सवाल जो इस बजट को समझने में थोड़ी बहुत मदद कर सकें.
बजट पर कुछ कहने से पहले
यह बात दोहराना जरूरी है कि बजट होता क्या है? यह एक ऐसा दस्तावेज है जिसमें सरकार की संभावित आमदनी और खर्चे का हिसाब होता है. यानी बजट के जरिए सरकार अपनी आमदनी के लिए राजस्व वसूली का ऐलान करती है. और फिर यह ऐलान करती है कि वह इस पैसे को जनता के लिए कहां कहां कितना कितना खर्च करेगी. यहां यह याद दिलान जरूरी है कि किसी लोकतांत्रिक सरकार के सामने सबसे पहला काम यह होता है कि वह सबको बराबरी के स्तर पर लाने की दिशा में काम करे? खासतौर पर उस गरीब तबके के लिए सबसे पहले करने की जरूरत होती है जो बुरी तरह से कराह रहा हो. इसे साधने के लिए सरकार के पास कानूनी तरीका यह है कि सरकार संपन्न और समृद्ध यानी अमीरों से पैसा वसूल करे और वह पैसा विपन्न और वंचितों तक पहुंचा दे. यानी बिल्कुल साफ समझ लेना चाहिए कि किसी बजट की अच्छाई को तोलने के लिए सबसे जरूरी बात यह है कि कोई सरकार गरीबों तक सुविधा पहुंचाने के लिए अमीरों से पैसा उगाहने का कितना काम कर रही है. अच्छी सरकार वही कही जाएगी जो अमीरों से पैसा उगाहने का काम ठोककर कर सके. और सिर्फ और सिर्फ तभी वह गरीबों या वंचितों के लिए कुछ कर सकती है.
इस बजट का महत्त्व
इस बजट की समीक्षा की जाए इसके पहले यह याद रखना जरूरी है कि इस सरकार का कार्यकाल पांच साल का था और यह सरकार अपने कार्यकाल के लिए निर्धारित पांच बजटों का आखिरी बजट पिछले साल ही पेश कर चुकी थी. इस सरकार के तीन महीने और बचे हैं. सो सिर्फ तीन महीने के खर्चों के लिए उसे एक अंतरिम बजट पेश करना था. बाकी 2019-20 का पूर्ण बजट मई या जून में बनने वाली सरकार पेश करेगी. यानी इस बजट की जो समीक्षा होनी चाहिए वह गुजरे साल के बजट का हिसाब किताब को सामने रख कर ही होनी चाहिए. क्योंकि इस सरकार के ये आखिरी महीने हैं सो हद से हद हम इस सरकार के पिछले पांच साल के आर्थिक कामकाज की समीक्षा कर सकते हैं. इसमें हम देख सकते हैं कि इस सरकार ने अपने पिछले पांच साल में कितना धन अमीरों से उगाहा और उसमें से कितना धन गरीबों वचिंतों पर खर्च किया. इस तरह से यह बजट दस्तावेज इस सरकार के पांच साल के कामकाज का हिसाब लगाने तक सीमित होना चाहिए. अब ये एक आश्चर्य ही है कि पिछले पांच साल का हिसाब किताब कोई नहीं लगा रहा है बल्कि सब के सब यह हिसाब लगा रहे हैं कि इस बेचारे अंतरिम बजट या लेखानुदान बजट से गरीबों वंचितों को क्या मिलने जा रहा है. जबकि यह हिसाब तीन महीने बाद आने वाले पूर्ण बजट से ही तय होना है. खैर.
इस अंतरिम या लेखानुदान या चुनावी बजट की समीक्षा
यह बहुत ही कठिन काम है कुछ जागरूक पत्रकारों का तो यह भी कहना है कि बजट को पढ़ने या समझने का काम आईआईटी की पढ़ाई से भी दुष्कर है. फिर भी अगर यह मान लें कि बजट का मतलब है अमीरों से राजस्व उगाही का काम तो इस बजट की समीक्षा इसी आधार पर होना चाहिए. इस लिहाज से देखें तो न तो सरकार ठोक कर बता रही है कि उसने अपनी आमदनी बढ़ाने के लिए अमीरों से उगाही बढ़ाने का क्या काम किया है. और न ज्यादातर विशेषज्ञ यह चर्चा कर रहे हैं कि सरकार ने आमदनी बढ़ाने का क्या इंतजाम किया. सरकार सिर्फ यह बता रही है कि उसने देश के हर तबके को भरपूर तोहफे दिए हैं. हर तबके मतलब अमीर गरीब सारे के सारे तबके. गरीब, बीच के तबके और खाते पीते तबकों यानी सबके सब को खूब दिए जाने का प्रचार है. अमीरों को छुआ नहीं गया. बजट से हमेशा डरने वाले अमीरों को भी राहत यह मिली है कि उनसे कुछ लेने का एलान इस बजट में नहीं है. उनके लिए तो यह बहुत कुछ मिलने के बराबर है. यानी सब किसी को अगर मिला ही मिला है तो जो दिया जा रहा है वह आएगा कहां से? बस यही गुत्थी है. ऐसी गुत्थी जिसे समझने के लिए देश के होशियार तबके, समष्टिभाजी अर्थशास्त्रियों और अनुभवी विपक्ष को फौरन से पेश्तर काम पर लग जाना चाहिए.
आमदनी के लिए इस बजट में क्या सोचा गया
पता नहीं सोचा गया या नहीं लेकिन कहा जरूर गया है. मसलन प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष कर से ज्यादा पैसा आ जाएगा. कमाल की बात है कि आयकर की सीमा ढाई लाख से पांच लाख कर दी गई. तीन करोड़ आयकर दाताओं को आयकर देने से बरी कर दिया गया. उधर जीएसटी को कम कर देने का वायदा अलग से है. जीएसटी से सरकारी आमदनी पहले से ही लक्ष्य से कम हो रही है. अमीरों से टैक्स वसूली बढ़ाने का कोई प्रस्ताव अभी तक तो सुनने में आया नहीं. तो फिर इस बजट में अगले साल के लिए सरकार की कुल आमदनी तीन लाख करोड़ रुपये बढ़ जाने का हिसाब कैसे लगा, इसे ज़रा बारीकी से देख लिया जाना चाहिए. इतना ही नहीं इस बजट में राजस्व घाटे का अनुमानित आंकड़ा भी बढ़ा हुआ नहीं दिखाया गया. तीन दशमलव तीन फीसद का अनुमानित राजस्व घाटा लगभग तीन दशमलव चार ही बताया गया हो तो किस हिसाब से किसानों और गरीबों को देने के लिए पैसे का इंतजाम है यह वाकई एक गुत्थी ही है. वैसे सरकार के लिए यह गुत्थी नहीं भी हो सकती है क्योंकि उसने सिर्फ आज की सख्त चुनावी जरूरत को देखा होगा. बाकी आने वाली सरकार के जिम्मे होगा. चाहे विपक्ष सत्ता में आए या यही सरकार सत्ता में आए उसके सामने सबसे बड़ी चुनौती यही होगी कि हर तबके के लिए फुटकर फुटकर जो तमाम ऐलान हो चुके हैं उन्हें पूरा कैसे करे. जाहिर है आज नहीं तो कल सरकार को अपने खर्चे पूरे करने के लिए कहीं न कहीं से तो पैसे की जुगाड़ करनी ही पड़ेगी. या फिर राजस्व घाटे के लिए तैयार रहे.
अभी तो चुनाव में फेंके गए वायदों का बोझ भी बढ़ेगा
चुनाव का प्रचार अभी शबाब पर नहीं आया है. सरकार के लिए तो यह बजट एक घोषणा पत्र जैसा बनकर तैयार हो गया है. लेकिन इन तीन महीनों में जब इस बजट की सही सही समीक्षा होगी तो बड़ा अंदेशा है कि देश के तमाम तबकों को यह लगने लगे कि इन ऐलानों में उसके लिए ज्यादा कुछ है नहीं. लिहाजा सरकार को चुनावी प्रचार के दौरान नए नए बड़े बड़े वायदे जनता से करने ही पड़ेंगे. उसके लिए अलग से धन की जरूरत पड़ेगी. उधर विपक्ष ने जिस तरह से बेरोज़गारी और किसानों की बदहाली दूर करने का भारी भरकम काम करने का इरादा जताया है. मसलन युवाओं के लिए रोजगार पैदा करने का काम, किसानों की कर्जमाफी, किसानों के लिए सिंचाई योजनाएं, पूरे देश में पीने के पानी का इंतजाम, बदहाल शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं को सुधारने का काम, ऐसे जरूरी काम हैं जिनके लिए किसी भी सरकार को पैसों की जरूरत पड़ेगी. इनमें कोई भी ऐसा काम नहीं है जो विज्ञापनों या जागरूकता आभियानों या नए नए विभागों या आयोग बनाने भर से ही हो जाए. यानी आने वाले दिन देश के लिए एक बड़ी भारी आर्थिक चुनौती बनकर आते दिख रहे हैं.
सुधीर जैन वरिष्ठ पत्रकार और अपराधशास्त्री हैं...
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