याद रहे, मेरा मुल्क न हार जाए...

मैं नहीं जानता, कोर्ट क्या कहेगी, क्या करेगी... वहां मंदिर बनेगा या मस्जिद... कौन जीतेगा, कौन हारेगा... लेकिन इतना जानता हूं, अगर फसाद हुए तो मेरा-आपका मुल्क हार जाएगा...

क्या होगा... फैसला किसके हक में आएगा... वहां मंदिर बनेगा या मस्जिद... आज सिर्फ यही सवाल सारे मुल्क के सिर पर सवार है... सभी की पेशानी पर चिंता की लकीरें साफ नज़र आ रही हैं... बहुत-से ऐसे हैं, जिन्हें शायद मंदिर या मस्जिद से ज़्यादा दो जून की रोटी की फिक्र है, लेकिन सबसे ज़्यादा डरे हुए यही लोग हैं, क्योंकि अगर इतिहास ने खुद को दोहराया तो मरेंगे यही लोग... हमेशा यही लोग मरते हैं, चाहे सीधे फसाद की चपेट में आकर, या दंगे के हालात में भुखमरी से...

इस मुद्दे पर बहुत-से सुझाव और तर्क दिए जा रहे हैं... वहां मंदिर ही होना चाहिए, क्योंकि वह राम जन्मभूमि है... वहां मस्जिद थी, और वही रहनी चाहिए... वहां एक साथ सटाकर मंदिर और मस्जिद दोनों बना दिए जाएं, ताकि दोनों पक्ष संतुष्ट हो जाएं... वहां न मंदिर बनाया जाए, न मस्जिद, बल्कि कोई स्कूल या अस्पताल बना दिया जाए, ताकि दोनों समुदायों को लाभ हो...

यहां याद रखने वाली बात यह है कि इस देश के आधारभूत रूप से धर्म के जरिये संचालित होने वाले नागरिकों (इनमें हिन्दू-मुस्लिम सभी शामिल हैं) को ये सभी तर्क उन लोगों से सुनने को मिलते रहे हैं, जिन्हें कभी सड़क पर आकर दंगा नहीं झेलना पड़ता... वे अपने शानदार एयरकंडीशन्ड घरों में बैठकर या जनसभाओं के मंचों से, गरजती आवाज़ में हमारी (सुनने और मानने वालों की) गैरत को ललकारते हैं, और फिर हम लोगों में से ही कुछ सड़कों पर उतर आते हैं, और हम लोगों में से बचे हुओं पर चुन-चुनकर वार करते हैं... कुछ वक्त बीत जाने पर फसाद ठंडा हो जाता है, और वही गरजती आवाज़ में गैरत को ललकारने वाले फिर किसी जनसभा के मंच पर नज़र आने लगते हैं...

हमने पिछले दो दशक में खासतौर से यही माहौल देखा है... लेकिन हम यह क्यों भूल जाते हैं, जिन्हें हमने मारा, या जिन्होंने हमें मारा, वे सब वही लोग हैं, जिनके साथ हम पले-बढ़े, खेले-कूदे... कहा जाता है, किसी भी देश के प्रत्येक नागरिक की ज़िन्दगी को सुचारु रूप से चलाने में हर दूसरे देशवासी का हाथ होता है... मेरे बचपन से लेकर अब तक मैंने जो कपड़े पहने, जो खाया-पिया, जो पढ़ा-गुना, उसमें कितना अनाज हिन्दू ने उगाया, कितना मुसलमान ने, कितना कपड़ा हिन्दू ने बुना, कितना मुसलमान ने - क्या मैं कभी यह हिसाब लगा सकता हूं... सो, मेरी नज़र में हर हिन्दुस्तानी की ज़िन्दगी में हर हिन्दुस्तानी का योगदान है... सो, हम एक-दूसरे से अलग कैसे हुए...

सोचकर देखिए, हम एक-दूसरे से अलग सिर्फ उन हालात में होते हैं, जब हमारी सोच संकरी होने लगती है, हमारे अंदर कहीं बर्दाश्त का माद्दा कम होता महसूस होता है, और ऐसी हालत में हम एक-दूसरे के योगदान को भुलाने की कोशिश करते हैं... और फिर गरजती आवाज़ वाले अपने मकसद में कामयाब हो जाते हैं...

ये गरजती आवाज़ों में हमारे नेता होने का दावा करने वाले सिर्फ अपनी रोटियां सेंकने के लिए हमारे घर फुंकवा डालते हैं, अब इस बात को समझने के लिए कम से कम हमें किसी सबूत की ज़रूरत नहीं है... खुद को धर्मनिरपेक्ष कहलाने वाले यही लोग शायद सबसे ज़्यादा धर्म का सहारा लेते हैं, अपने भाषणों में... वास्तव में हमारे देश में धर्मनिरपेक्षता का अर्थ सिर्फ किन्हीं खास गुटों या समुदायों के लिए तुष्टीकरण की नीतियां बनाना रह गया है, और दिलचस्प तथ्य यह है कि वे गुट या समुदाय भी इन लोगों के लिए ज़रूरत के हिसाब से बदलते रहते हैं...

मैं नहीं जानता, कोर्ट क्या कहेगी, क्या करेगी... वहां मंदिर बनेगा या मस्जिद... कौन जीतेगा, कौन हारेगा... लेकिन इतना जानता हूं, अगर फसाद हुए तो मेरा-आपका मुल्क हार जाएगा... दंगे हुए तो इस धर्मनिरपेक्ष देश की धरती फिर लाल होगी, हर धर्म के लोगों के खून से, जो हर धर्म के मुताबिक एक ही भगवान या अल्लाह की संतानें हैं...

विवेक रस्तोगी Khabar.NDTV.com के संपादक हैं...

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